मौन :- एक प्रयोग

December 1947

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(श्री विजय कुमार मुँशी वी. ए. एल. एल. बी.)

मौन अपने सात्विक और बौद्धिक अर्थ में एक विरक्ति है, एक साधना है। मौन वह अमोघ अस्त्र है जिसके द्वारा हम विभिन्न कुविचारों को समाप्त कर सकते हैं। मौन वह प्रतिबिम्ब है, जिसमें हम आत्मस्वरूप के वास्तविक रूप को पहिचानने का प्रयास करते हैं। अब हम मौन होते हैं, तो हमारा मस्तिष्क अधिक तीव्रता से अपना कार्य करता है। इस कारण विचारों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए मौन सर्वथा आवश्यक है।

जब हम आशातीत प्रसन्नता से विहंस उठते हैं, या जब हम अकथनीय वेदना या व्यथा से आक्रान्त हो जाते हैं, तो हमें एकान्त अधिक रुचिकर प्रतीत होता है। एकान्त मौन का विकसित स्वरूप है जहाँ मौन से सीधा सम्बन्ध हमारे मन और वाणी से होता है, वहाँ एकान्त का सम्बन्ध बाह्य वातावरण से होता है और मौन दोनों ही साधन या चिन्तन में सहायक होता है।

जीवन की सुखद या दुखद अनुभूतियाँ चिंतन के ओजस्वी पानी में लय होकर निखार पाती हैं। मौन चिंतन का सूचक है। वह हमारी विचार शक्ति को केन्द्री भूत करता है।

सामाजिक जीवन में अधिक मौन एक अभिशाप है। राजनैतिक नेताओं महान् लेखकों और पत्रकारों में मौन प्रायः वरदान रूप ही देखा गया है। सौदागर यदि कम बोलता है, तो वह अपना सौदा कदापि नहीं बेच पाता। मौन भिखारी से भीख की कला में दक्ष भिखारी पर्याप्त कमा कर भीख को जीवन का पेशा बना लेता है। राजनैतिक नेताओं और कलाकारों में प्रायः अधिक बोलने की प्रवृत्ति नहीं होती। मौन से हृदय की सृजनात्मक वृत्तियाँ सदा क्रियाशील होती हैं।


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