बुरी आदतें और कुसंस्कार

December 1947

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

मनुष्य की बुरी आदतें मूलतः उसके हृदय में जमे हुए कुसंस्कारों के परिणाम हैं। प्रत्येक अंग का परिचालन आन्तरिक सूचनाओं द्वारा होता है। ये आन्तरिक सूचनाएं कुछ तो स्वयं अपने द्योतन से होती हैं, कुछ दूसरों की विषैली सूचनाओं के कारण होती हैं। परिस्थितियाँ, दूसरे व्यक्तियों के साथ रहन सहन, बोलचाल, विशेष सम्प्रदाय के कारण भी अनेक प्रकार की आदतों का जन्म होता है।

कुछ जातियों में बीड़ी, सिगरेट, पान या शराब पीना बुरा नहीं समझा जाता, ऐसे सम्प्रदाय भी हैं, जिनमें प्याज, लहसुन, माँस खाना एक साधारण सी बात है। यह सब जातिगत कुसंस्कारों का परिणाम है। युग-युग से उनके पूर्वज उन्हीं विचार तथा आदतों की श्रृंखलाओं में आबद्ध रहे। उनके बच्चे भी अपने पूर्वजों के विचारों की छाप से मुक्त न रह सके।

हम देख रहे हैं कि अनेक व्यक्ति आज अपने बुरे संस्कारों के कारण कलुषित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे अपनी आदतों से मजबूर हैं। हमने स्वयं देखा है जेल के कैदियों को तीन आने रोज मिले। इनमें से अधिकाँश व्यक्तियों ने अपने पैसे बीड़ी, पान, सुँघनी, तम्बाकू, चाय, इत्यादि में व्यय कर डाले। कोई भी पौष्टिक तत्व उनके हाथ न लगा। अनेक निम्न श्रेणी के व्यक्ति, मजदूर, मोची, नाई, मेहतर दिन भर भूखे रह कर भी सन्ध्या समय चार-चार आने सिनेमा में फूँक देना अच्छा समझते हैं। इसी प्रकार अनेक कंजूस व्यक्ति अपने तथा अपने बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा, विकास, मनोरंजन में कुछ भी काम नहीं करते किंतु विवाह, शादी, दहेज, इमारत बनाने में बहुत व्यय कर डालते हैं। धन का ऐसा अपव्यय एक प्रकार की मानसिक दुर्बलता एवं अनेक जन्मों के कुसंस्कारों का द्योतक है।

क्या इन बुरी आदतों से, इन दूषित संस्कारों से छुटकारे का कोई मार्ग है?

वास्तव में मनुष्य का उत्थान तथा पतन उसके मन मंदिर में होता है? वहाँ से विकास एवं वहीं से पतन का प्रारंभ होता है। दुर्बलता और शक्ति मानसिक विकास या पतन की दो भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। पुनरुत्थान तथा नव निर्माण का कार्य भी हमें यहीं से प्रारंभ करना चाहिए।

मनुष्य के हृदय में सभी उत्तम गुणों के बीज मौजूद हैं। कुछ में ये दूसरों की बनिस्बत अधिक विकसित है। हमें चाहिए कि हममें जो दुर्बलता है, उसके विपरीत वाले गुण को प्रोत्साहन देकर उसे विकसित करे। पुनः-पुनः आत्म-द्योतक से अनायास ही मानव स्वभाव के उत्तम तत्व प्रस्फुटित होकर बढ़ने लगेंगे। जैसे-2 ये विकसित होंगे गन्दी आदतें तथा विषैले संस्कार फीके पड़ते जायेंगे। हमें चाहिए कि हम नवनिर्माण का कार्य अपने आपको भाग्यशाली मानकर आरम्भ करे। हम सोचें कि हम बड़े भाग्यशाली हैं। सुख, समृद्धि, आनन्द, विशुद्ध, जीवन से हमारा निकट सम्बन्ध है। हमारी बुरी आदतों का अन्त हो गया है, शुद्ध विवेक जागृत होने से कुसंस्कार स्वतः दब गये हैं। हम अब केवल भव्य विचार, पवित्र संकल्प, सद्चिन्तन को ही हृदय में स्थान देते हैं।

आप दृढ़ता से मन में नये पवित्र संस्कार जमाइये। बार-बार उन्हें दुहरा कर पुराने कुसंस्कारों को फीका बनाइये। प्रतिक्षण अपने मन में सद्चिन्तन, सद्वचन, शुभ कर्म में प्रवृत्त रहिये। पवित्र स्थानों में रमण कीजिये। सद्पुरुषों के संपर्क में रह कर उनकी मंजुल वाणी में आवाहन कीजिए। पुराने स्वभाव तथा आदतों को दूर करने का एक ही उपाय है। वह है उनके विरुद्ध उत्तम तथा विशुद्ध संस्कारों का दृढ़ निश्चय तथा दृढ़ता से उन पर कार्य। सत्य संकल्प से सब मनोरथ सम्पन्न होते हैं।


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