(प्रो. मोहनलाल वर्मा, एम.ए., एल.एल.बी.)
वेद का एक सत्र है-”शतहस्त समाहर सहस्र हस्त संकिरा” अर्थात् हे ज्ञान के पथिकों, हे कर्म मार्गियों तुम सौ हाथों से कमाओ, यथाशक्ति अर्थोपार्जन करो किन्तु उस माया के मोह में लिप्त न होओ, उस अर्जित धन को सत्कार्यों में दूसरों की भलाई, ज्ञान यज्ञों, भूखे पीड़ित मानव समाज के हितार्थ व्यय करो। जो रुपये के अभाव में आत्मविकास नहीं कर पा रहे हैं, जिन्हें तुमसे अधिक धन की आवश्यकता है उन सुपात्रों को हजार हाथों से बाँट दो। मुक्त हृदय से अपनी धर्म की कमाई में से दान दो।
दान एक ऐसा समर्पण है, जिससे धन सम्पत्ति घटते नहीं वरन् विद्युत वेग से विकसित होते हैं। निस्वार्थ दान एक ऐसी सेवा है जिसका फल न केवल इस संसार में वरन् परलोक में भी प्राप्त होता है।
धन की उपयोगिता उसे सत्कार्यों में व्यय करने पर ही है। आप स्वयं उसका उचित उपयोग करें। यदि आप सदुपयोग करना नहीं जानते, तो ऐसे व्यक्तियों को दान दीजिए, जो यह कार्य उत्तम रीति से कर सकते हैं।
धन का सदुपयोग अनेक प्रकार से हो सकता है। अपने धन के कुछ भाग को दान में व्यय कीजिए। ऐसी संस्थाओं को दान दीजिए जो समाज सेवा कार्य करती हैं। पुस्तकालयों में, औषधालयों तथा धर्मशालाओं में दान देकर आप पीड़ित मानवता की अच्छी सेवा कर सकते हैं। ज्ञान, भक्ति, कर्म का प्रचार करने वाली उच्चकोटि विश्वस्त संस्थाओं को सहायता प्रदान करना चाहिए। अनाथालयों में वस्त्र, अन्न इत्यादि उपयोगी वस्तुएं दीजिए। जहाँ तक बने पीड़ित जनता की सहायता कीजिए। यह स्मरण रखिये कि आपके दान से लोग निकम्मे, आलसी और मुफ्तखोर न बन जाए।