दार्शनिक विकृतियों का परिमार्जन आवश्यक है।

December 1947

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शुद्ध दर्शन वह है जो मानव प्राणी को पाशविक वृत्तियों से ऊंचा उठाता है, संयम सिखाता है, दूसरों के पक्ष में अपने स्वार्थों का त्याग करने की प्रेरणा देता है, उन्नति के लिए प्रोत्साहित करता है, भय और प्रलोभनों में फिसलने नहीं देता, भविष्य को आशापूर्ण दिखाता है, निरर्थकता से बचा कर शक्तियों को उपयोगी कार्यों में नियोजित करता है और तृष्णा एवं असफलता की अशाँति से बचाकर अन्तःकरण को शाँति तथा संतोष से आच्छादित रखता है। दर्शन का यही उद्देश्य है इसी उद्देश्य के लिए उसका जन्म हुआ है। मानव तत्व के विज्ञानी आचार्यों ने मनुष्य को अनेक प्रकार के बाह्य एवं आन्तरिक संघर्षों, अभावों, क्लेशों से बचाने के लिए ऐसी विचार प्रणाली का आविर्भाव किया था जिस सड़क पर अपने मस्तिष्क को चला देने से वह उधर ही बढ़ता है, जिधर व्यक्ति तथा समाज की सुख शाँति की निर्भर है।

इस दृष्टि से हिंदू दर्शन, हिंदू संस्कृति का विश्व के ज्ञान साहित्य में अनुपम स्थान है। वेद, शास्त्र, स्मृति, उपनिषद्, योग, दर्शन, धर्म, कर्मकाण्ड आदि के द्वारा मनुष्य के सोचने का एक ऐसा ढंग बनाया गया था जो उसको स्वस्थ, सुदृढ़, सम्पन्न, सदाचारी पराक्रमी, उत्साही तेजस्वी, आशीर्वादी कर्मठ, प्रसन्न चित्त एवं लोकसेवी बनाता था। इस साँचे में ढल कर जो लोग दुनिया के सामने आते थे, वे बड़े पराक्रमी एवं महान होते थे उनकी कीर्तिध्वजा आज तक दुनिया के कोने-कोने में लहरा रही है। उस प्राचीन संस्कृति के कारण ही आज इस गिरी हुई दशा में भी भारत वर्ष जगद्गुरु गिना जाता है। गीता का संसार भर में, विश्व की समस्त भाषाओं में जितना महत्व है, उसकी तुलना में अन्य ग्रन्थ नहीं ठहरते।

भारतीय दर्शन को उन्नत, सुरक्षित समृद्ध, सुदृढ़ एवं सुविस्तृत बनाने के लिए हमारे ऋषि मुनि अपने जीवनों को न्यौछावर करते थे, लौकिक भोग ऐश्वर्यों में लात मारकर वे दिन रात इस दैवी शक्ति के चरणों में अपना सर्वस्व आत्मोत्सर्ग करते थे, क्योंकि यह सम्पत्ति, आर्य जाति की प्राणशक्ति थी, इसी के ऊपर उसकी महत्ता निर्भर थी। उस थाती की रक्षा और वृद्धि करने वाले लोग ‘ब्राह्मण’ को महान गौरवशाली पद से सम्मानित किये जाते थे।

समय ने पलटा खाया। अव्यवस्था बढ़ी। ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्व दोनों का ही स्खलन हुआ। उन्होंने अपनी मर्यादाएं शिथिल कर दी। आदर्श और परमार्थ प्रधान भारतीय विचार प्रणाली में ‘भोग और स्वार्थ’ का समावेश हुआ। यह भारी पत्थर जब पैरों में पड़ गये तो नीचे की ओर खिसकना निश्चित था। भारत अपनी महानता और साथ ही साथ शक्ति को खोने लगा। इतिहास साक्षी है कि उसे भीतरी अराजकता का बहुत समय तक सामना करना पड़ा और मुट्ठी भर विदेशियों की नगण्य शक्ति के सामने सिर झुकाकर राजनैतिक पराधीनता स्वीकार करनी पड़ी, जो कि कल तक कायम रहीं।

इस बीच में बहुत चढ़ाव उतार हुए। जिन्होंने हमारे दुःख, अपमान और उत्पीड़न की अवधि को विशेष रूप से लम्बा कर दिया और एक हजार वर्ष की लम्बी दुर्दशा के गर्त में गिरना पड़ा। विदेशी लुटेरों ने अपना आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात् अपने शासन की जड़े मजबूत करने का प्रबन्ध किया। जितनों को वे अपनी संस्कृति में लोभ एवं भय दिखाकर ले सकते थे- लिया-शेष को लुँज पुँज बना डालने के लिए उन्होंने उन विचारों को प्रोत्साहन दिया जिनके कारण किसी भी जाति का नैतिक पतन होता है और महत्व यही होता है। जापान ने चीन को लुँज पुँज बनाकर अपनी दासता में लेने के लिए उस देश में अफीम का प्रचार अपने एजेन्टों से कराया, ताकि चीन की प्रजा अफीम की पीनक में मस्त रहे और जापानी उनके सिर पर छा जावे। अंग्रेजों ने भारतीयों को काला अंग्रेज बनाने के लिए ऐसी शिक्षा का प्रसार किये, जिसके द्वारा वे अपने प्राचीन आदर्शों को ‘मूर्खता’ समझे और पाश्चात्यों का अन्धानुकरण करने लगे। लार्ड मैकाले की योजना प्रसिद्ध है वे यहाँ के मस्तिष्कों को ऐसे रंग से रंग देना चाहते थे कि भारतीयों में वे आकाँक्षायें उत्पन्न ही न हो जिसकी प्रेरणा से स्वाधीनता, आत्म गौरव एवं अतीय महत्वाकाँक्षा के भाव जागृत होते हैं। लार्ड मेकाले की अंग्रेजी शिक्षा का आधार मजबूत था, परन्तु परिस्थितियों को क्या किया जाय, दो महायुद्धों में अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने, प्रजातंत्रीय प्रचण्ड विचार धाराओं ने, सारी दुनिया को ही उलट-पलट कर दिया। यदि यह सब न हुआ होता तो निस्संदेह लार्ड मेकाले की योजना सफल होती और न जाने कितने लम्बे काल तक मुसलमानों की भाँति अंग्रेजों के चंगुल में रहना पड़ता।

मुसलमानों ने जब देखा कि राजनैतिक प्रभुत्व जितनी आसानी से प्राप्त कर लिया गया उतनी आसानी से साँस्कृतिक प्रभुत्व स्थापित नहीं किया जा सकता। कत्लेआम कराके उन्होंने देख लिया कि लोग मृत्यु की तुलना में भी अपने धर्म को, संस्कृति को, अधिक महत्व देते हैं तो उन्होंने राजनीतिक दूरदर्शिता के साथ दूसरा मोर्चा स्थापित किया। बाहरी हमला अधिक सफल न होते देखकर उन्होंने भीतर से हमला करने की योजना बनाई। भारतीय दर्शन को विकृत करने के लिए उन्होंने अपने गुप्तचर लगाये। कितने ही मत, मतान्तर, सम्प्रदाय, ग्रन्थ, काव्य, सन्त, महन्त इस प्रकार के उपजे जिनका उद्देश्य भारतीय दर्शन को दूषित एवं विकृत कर देना था ताकि उस विचार प्रणाली को अपनाने वाली प्रजा अपना नैतिक बल, पराक्रम, शौर्य, साहस एवं गौरव खो बैठे और फूट, घृणा, अपव्यय, भ्रम, व्यसन एवं अज्ञान के गहरे गर्त में गिर कर सब प्रकार दीन, हीन, एवं स्थायी रूप से पराधीन हो जावे।

इतिहास हमें बताता है कि एक ओर हकीकतरायों, बन्दा वैरागियों सिख गुरुओं के ऊपर कहर बरसता है और दूसरी ओर सन्त महन्तों पंडित विद्वानों को राज्यकोष की जागीर मिलती है, सम्मान प्राप्त होता है, उनकी महत्ता बढ़ाने के लिए बादशाह उनको असाधारण चमत्कारी घोषित करता है, राज्य के द्वारा गुप्त रूप से उन्हें प्रोत्साहन एवं पुरस्कार मिलते हैं। दुर्योधन का अन्न खाकर भीष्म और द्रोण जैसों की बुद्धि विचलित हो गई थी, फिर साधारण लोगों की तो बात ही क्या? इसी काल में एक ओर पंडितों द्वारा अगणित ग्रन्थ रचे जाते हैं उन्हें अति प्राचीन एवं ऋषि प्रणीत घोषित किया जाता है और दूसरी ओर ऋषि प्रणीत ग्रन्थ बादशाहों के हम्माम गरम करने के लिए जलाये जाते हैं।

इस काल को हम “अन्धकार युग” के नाम से पुकार सकते हैं। इस अन्धकार युग में हमारा चतुर्मुखी जातीय पतन हुआ। दर्शन ने परोक्ष रूप से विदेशियों का आश्रय ग्रहण किया तद्नुसार यह पराधीन होकर सर्वनाशी अधःपात में लुढ़क पड़ा। अन्धकार युग ने हमें अनेकों, विचित्र विचार धाराएं, प्रथाएं, परम्पराएं, मान्यताएं दी हैं, जिनका वैदिक संस्कृति से कुछ भी मेल नहीं खाता न वे विवेक संगत है, न मनुष्य को उत्कर्ष की ओर ले जाते हैं, इतना ही नहीं वे अनुगमन करने वालो को नीचे की ओर घसीटते हैं बौद्धिक दृष्टि से पराधीन बनाते हैं, एवं ऐसे कार्यक्रम उपस्थित करते हैं जिसमें में उलझ जाने के समस्याओं की ओर ध्यान ही न जा सके।

आज हम ऐसी अनेकों कुप्रथाएं हिन्दू समाज में प्रचलित देखते हैं जिनके कारण सामाजिक जीवन भीतर ही भीतर खोखला होता जाता है। इन प्रथाओं का कोई लोकोपयोगी आधार नहीं, फिर भी वे प्राचीन परम्परा के नाम पर प्रचलित हैं। कितने ही व्यक्ति इन्हें शास्त्रोक्त एवं सनातन समझते हैं। उनके समर्थन में दो चार श्लोक भी जहाँ-तहाँ से सुना देते हैं। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि आजकल जितनी प्रथाएं हमारे समाज में प्रचलित हैं वे सभी सनातन नहीं हैं और न संस्कृत भाषा में जो कुछ लिखा मिलता है वह शास्त्रोक्त है। तुलसीकृत रामायण में पिछले दिनों इतने आपेक्षक लोगों ने जोड़ दिये थे कि वह मूल रचना की अपेक्षा करीब ड्यौढ़ी बढ़ गई थी। सौभाग्य से तुलसीदास जी का समय अभी बहुत निकटवर्ती है और उनके हाथ की लिखी तथा अन्य प्रामाणिक रामायणें मिल जाने से उन क्षेपकों को छाँट दिया गया, यदि समय अधिक बीत गया होता तो तुलसीकृत रामायण के अतिरिक्त- अनेक कवियों की रचना के लिए भी तुलसीदास जी को ही जिम्मेदार बनना पड़ता। प्राचीन ग्रन्थों में आपेक्षकों का भरमार है और कितने ही लुप्त ग्रन्थों के स्थान पर अंधकार युग में लिखी हुई रचनाएं उसी नाम पर प्रसिद्ध की गई हैं। ऐसी दशा में हर संस्कृत वाक्य को शास्त्र वचन नहीं कहा जा सकता। उसके लिए शास्त्र शोधक बुद्धि का आश्रय लेना पड़ेगा।

अन्धकार युग की परिस्थितियों ने हमारे दर्शन पर असाधारण प्रभाव डाला है। आज हम उसी रंगे हुए दर्शन को अपना ‘आदि दर्शन’ समझते हैं। अब हमें उसका परिशोधन और परिमार्जन करना होगा। ताकि इस नवचेतना के युग में अपना जातीय निर्माण मजबूत आधार कर सकें और अपनी लोक प्रसिद्ध संस्कृति का झण्डा हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर गाड़ सकें। आइए, इस कार्य में आप भी सहायता कीजिए।


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