जीवन का सदुपयोग

December 1947

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(श्री स्वेटमार्डन)

ईश्वर ने तुमको जीवन इसलिये प्रदान किया है कि तुम उसको मनुष्य जाति के हित में लगाओ और अपनी व्यक्तिगत शक्तियों को जातिगत शक्तियों के विकास का साधन बनाओ। जिस प्रकार एक बीज अपनी जाति की उन्नति के लिए अपने को गला देता है, उसी प्रकार तुम भी अपने को निछावर कर दो। तुम्हारा धर्म है कि तुम अपने आपको तथा दूसरों को शिक्षा दो, स्वयं योग्य बनने एवं दूसरे के योग्य बनाने का प्रयत्न करो।

यह सच है कि ईश्वर तुम्हारे भीतर है। किन्तु वह सब मनुष्यों का (जो इस पृथ्वी पर निवास करते हैं) आत्मा है। ईश्वर उन सब जातियों के जीवन में है जो हो चुकी है, या होंगी। उसकी सत्ता और उसके नियमों तथा अपने कर्त्तव्यों के विषय में जो सिद्धान्त मनुष्य जाति ने निश्चित किये हैं, पिछली जातियाँ क्रमशः उनका संशोधन करती चली आई हैं और आगे की जातियाँ भी बराबर उसी प्रकार करती चली जायेंगी। जहाँ कहीं ईश्वरीय सत्ता अपना प्रकाश करे, तुम्हारा धर्म है कि वहीं उसकी पूजा करो और उसकी ज्योति चमकाओ। सारा विश्व उसका मंदिर है और इस मंदिर को अपवित्र करने का पाप इच्छा के विरुद्ध संसार में कोई काम होता हुआ देखकर चुप बैठा रहेगा।

यह कथन युक्ति युक्त नहीं है कि हम निर्दोष हैं, दूसरे यदि पाप करते हैं तो हमारा इसमें क्या दोष? जब तुम अपने समीप या सन्मुख पाप होता हुआ देखते हो और उसके विरुद्ध चेष्टा नहीं करते जो तुम अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं करते। क्या तुम सत्य और न्याय का अनुगामी अपने को कह सकते हो? जब कि तुम देखते हो कि तुम्हारे सजातीय माता पृथ्वी के जो हम सबकी माता है) किसी अन्य भाग में भ्राँति या अविद्या में पड़े अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं। और तुम उनको उठाने के लिए कुछ सहारा नहीं देते ?

तुम्हारे सजातीय भ्राताओं के नित्य आत्माओं में ईश्वर का प्रकाश धुँधला हो गया है। ईश्वर की इच्छा तो यह थी कि उसकी उपासना उसके आज्ञा पालन द्वारा की जावे, परन्तु तुम्हारे आस पास उसके कानून को तोड़ा जा रहा है और उसकी अन्यथा व्याख्या की जा रही है। उन लाखों मनुष्यों को (जिन पर ईश्वर ने अपनी इच्छा को पूरा होने का तुम्हारे समान भरोसा किया है) मनुष्योचित अधिकारों से वंचित किया जा रहा है और तुम चुपचाप बैठे हो! क्या इस पर भी तुम यह कहने का साहस कर सकते हो कि तुम उस पर विश्वास रखते हो

“ईश्वर एक है और सब मनुष्य ईश्वर के पुत्र हैं।” इन दोनों सच्चाइयों के प्रचार ने संसार की काया पलट दी और परस्पर सहानुभूति की सीमा पृथ्वी के इस छोर से उस छोर तक बढ़ा दी। मनुष्य के कर्त्तव्य जो कुटुम्ब और देश के प्रति थे, उनमें मनुष्य ने माना कि मनुष्य चाहे कहीं पर हो, उसका भाई है, जो उसी के समान अविनाशी आत्मा रखता है। और उसी के सदृश्य अपने सृष्टा की ओर जाना उसका उद्देश्य है तथा उससे प्रेम करना, उसको धर्म की शिक्षा देना और जब कभी आवश्यकता हो, उसकी सहायता करना उस पर उचित ठहराया गया है।


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