आत्म समर्पण का अश्वमेध

December 1947

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दो सच्ची आत्माओं का सत्कार्य के लिए मिलन होना अश्वमेध कहलाता है। ऐसे अश्वमेधों की महिमा अपार है। प्रसिद्ध है कि दो सजीव आत्माएं एक और एक मिलकर ग्यारह बनती हैं। सत् कार्य के लिए श्रेष्ठ आत्माओं का सच्चा मिलन तो 111 एक सौ ग्यारह बन जाता है और उनके द्वारा अद्भुत शक्ति का आविर्भाव होता है। इस तत्व को समझ कर विवेकवान व्यक्ति अपनी न्यून भौतिक शक्ति को अधिक श्रेष्ठ अधिक सूक्ष्म शक्ति के साथ नियोजित कर देते हैं। इसे आत्म समर्पण भी कहते हैं।

संकीर्णता, तुच्छता और अदूरदर्शिता के कारण मनुष्य अपने ‘अहम्’ को बहुत ही छोटी सीमा में केंद्रित करता है। वह सोचता है कि मैं पृथक रहूँ अपने कार्य पृथक रूप से करूं। वह नहीं जानता कि पृथकता की व्यवस्था में इतनी शक्ति खर्च हो जाती है कि अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य करने का बहुत ही कम अवसर शेष रह जाता है। सुरक्षा और उन्नति के लिए उसे स्वयं प्रयत्न करने पड़ते हैं। फल स्वरूप बोझ इतना बढ़ जाता है कि उसके मार का दबाव ही मानसिक शान्ति को खा जाता है। इस प्रकार संकीर्ण व्यक्तियों को न तो बड़प्पन मिल पाता है और न वे किसी महान कार्य में अपने जीवन का सदुपयोग कर पाते हैं।

अल्प योग्यताओं से महान कार्य करने की दूर-दर्शिता जिनमें होती है वे अपनी डेढ़ ईंट की अलग मस्जिद बनाने की अपेक्षा अपनी शक्तियों को किसी विशाल शक्ति स्त्रोत में जोड़ देते हैं इस सम्मिलन से एक आश्चर्यजनक शक्ति का उदय होता है और उसके द्वारा बड़े-बड़े कार्य पूरे हो जाते हैं। जिनके हृदय तुच्छ स्वार्थों से संकुचित है, अपने मन का अहंकार जिनके सिर पर भूत की तरह हुआ है वे ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाते हैं। परन्तु जिन्हें इस संकीर्णता की तुच्छता और सम्मिलन के महान लाभों का ज्ञान है। वे अपने को अपने से बड़ी सत्ताओं के साथ जोड़कर महान कार्यों की पूर्ति का आयोजन करते हैं।

हनुमान जी ने राम के आगे आत्म समर्पण कर दिया- अपनी शक्तियों को उन्हें सौंप दिया। फलस्वरूप अलौकिक शक्ति का आविर्भाव हुआ। रामावतार की महत्ता में हनुमान जी का स्थान अत्यंत ऊंचा है। इस मिलन से उभयपक्षीय लाभ हुआ। यदि हनुमान सोचते कि राम के साथ मिलकर उनके कार्य में सहायक होने से मुझे क्या लाभ? मैं तो अपना अलग से कोई काम करूंगा, तो शायद वे अपने प्रयत्न से छोटा मोटा राज्य स्थापित कर लेते या और कोई सफलता पा लेते पर रामचन्द्र जी सम्मिलन से उन्हें जो अमर लाभ हुआ उससे उन्हें वंचित ही रहना पड़ता।

अर्जुन ने कृष्ण के आगे आत्म समर्पण किया। उनकी इच्छानुसार अपने को चलाया यही कारण है कि अर्जुन अमर हो गया, जब तक सूर्य चन्द्र और पृथ्वी है तब तक उसका यश शरीर अमर रहेगा। यदि वह सोचता मैं किससे कम हूँ, कृष्ण का गुलाम क्यों बनूँ, अपना पुरुषार्थ ही प्रधान क्यों न रखूँ, तो इस विचार धारा के अनुसार शायद वह कुछ सफलता प्राप्त भी कर लेता पर मामूली राजा या योद्धा से अधिक उसका कोई स्थान न बनता?

भामाशाह ने अपनी जन्म भर की गाढ़ी कमाई राणा प्रताप को समर्पित कर दी। इस समर्पण से विपत्ति ग्रस्त असहाय राणा का कलेजा ढाल हो गया उनने इस शक्ति के द्वारा म्लेच्छों के दाँत खट्टे कर दिये। यदि भामाशाह सोचते राणा के आगे आत्मसमर्पण करने से मेरा क्या फायदा? इससे तो अच्छा यह है कि अपना नाम चलाने के लिए कोई स्मारक बना जाऊं। यदि भामाशाह ऐसा करते तो संभव है उनका स्मारक जब तक बना रहता जब तक लोग उनके लिए की यदा कदा चर्चा कर लिया करते। पर आज उनका यश शरीर संसार में जिस प्रकार भ्रमर हुआ तथा राणा प्रताप द्वारा जो महान कार्य सम्पादित हुआ वह न हुआ होता।

विश्व पुरुष महात्मा गान्धी के व्यक्तित्व में सेठ जमनालाल बजाज ने अपने को मिला दिया। उनके गोद लिये हुए बेटे बन गये। इस आत्म समर्पण में उन्होंने जितना खोया उससे अधिक पाया। ऐसे अनेकों सेठ साहूकार हैं जो स्वतंत्र रूप से दान धर्म में जमुनालाल बजाज की अपेक्षा भी अनेक गुप्त धन व्यय करते हैं पर उनकी तुलना बजाज जी से नहीं हो सकती। गाँधी के द्वारा जो महान् लोक हित हुआ उसके पीछे बजाज का कम हाथ नहीं था। वे सच्चे व्यापारी सिद्ध हुए आत्म समर्पण करके उन्होंने अपना लोक, परलोक, गाँधी जी की शक्ति का अभिवर्धन, जनता का लाभ तथा विश्व में सतोगुण की अभिवृद्धि का महान अनुष्ठान किया। अपने अहंकार को सबसे भिन्न रखने पर बजाज के द्वारा कुएं बावड़ी, धर्मशाला, सदावर्त आदि का निर्माण हो सकता था कुछ दिन तक इन स्मारकों द्वारा उनका नाम भी चल सकता था पर वे महापुरुषों की उस पंक्ति में बैठकर अमर नहीं हो सकते थे जिसमें कि आज हैं।

ईसा और बुद्ध के शिष्यों ने अपना अलग मजहब चलाकर स्वयं धर्म गुरु बनने की इच्छा नहीं की वरन् अपने को इन देवदूतों के आगे समर्पित कर दिया। उनके कार्य को आगे बढ़ाने के लिये देश देशान्तरों में अलग जगाया। आज इन धर्म वृक्षों की छाया में करोड़ों मानव प्राणी आत्म शान्ति का रसास्वादन कर रहे हैं।

ऋण और धन विद्युत के दोनों तार स्वतंत्र रूप में कुछ नहीं, उनकी शक्ति कुछ नहीं, पर जिस क्षण वे दोनों मिल जाते हैं-एक महान् शक्तिशाली विद्युत धारा का संचार होता है। घातक शक्ति उपजती है। सोना और सुगंध मिल जाने से कुँदन बनता है। गंगा और यमुना का संगम होने का स्थान तीर्थ राज कहलाता है। इन दोनों नदियों के तटों पर अनेकों छोटे बड़े तीर्थ मौजूद हैं पर तीर्थ राज तभी बना जब वे दोनों आपस में मिली। रात्रि और दिन के मिलन को संध्या काल-ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। न दिन में, न रात्रि में ऐसा शुभ समय फिर कभी नहीं आता जैसा कि इस मिलन काल में होता है। रज और वीर्य के नन्हें से परमाणु आपस में मिलकर एक विशालकाय चैतन्य मानव भ्रूण की उत्पत्ति करते हैं। पति-पत्नी का, भाई-भाई का, माता-पुत्र का, गुरु-शिष्य का, मित्र-मित्र का सच्चा मिलन दोनों पक्षों के अन्तःकरणों में जो गुदगुदी उत्पन्न करता है उसका रस और महत्व अवर्णनीय है। रसायन विज्ञान के ज्ञाता जानते हैं कि दो मामूली वस्तुओं के मिलने से तीसरी कैसी-कैसी अद्भुत वस्तुयें विनिर्मित होती हैं।

सत्कार्य के लिये, शुभ आयोजन के लिये जब समान विचारों की, समान हृदय की दो आत्मायें आपस में मिलती हैं तो वह एक अश्वमेध होता है। यज्ञ में अश्व की आहुति एक विशिष्ठ परिणाम उत्पन्न करती है। अपने को अश्व बनाकर सत्कर्म के लिये, शुभ आयोजन के लिये, श्रेष्ठ आत्माओं के अन्दर धधकते हुये यज्ञ में अपने आपको समर्पित करते हैं वे एक आध्यात्मिक अश्वमेध का आयोजन करते हैं। जिसका फल समस्त विश्व के लिये कल्याणकारक होता है आत्म आहुति का त्याग, अनेक गुने उच्च परिणामों के साथ उस होता के पास वापिस लौटता है।

अखण्ड ज्योति ऐसे अश्वमेधों के स्वर्गीय दृश्य देखने के लिये आँखें पसार-पसार कर चारों ओर देखती है और परमात्मा से प्रार्थना करती है कि प्रभु-भारतभूमि को ऐसा निर्जीव मत बनने दो कि ऋषियों की यह प्राचीन अश्वमेध परंपरा ही टूट जाय।


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