धर्म से स्वर्ग प्राप्ति

December 1947

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पूर्व मीमाँसा में भगवान जैमिनी मुनि ने धर्म का लक्षण निम्न प्रकार किया है :-

वोदना लक्षणों धर्मः॥ पू.मी. 1। 2

धर्म का लक्षण प्रेरणा है। ‘अर्थात् अपनी अवस्था उच्चतर करने के लिए जो आँतरिक स्फूर्ति होती है, वह प्रेरणा है। जब यह प्रेरणा मन में उत्पन्न हो जाती है, तब मनुष्य कर्म के लिए प्रवृत्त होता है, पश्चात कर्म करता है और अपनी उन्नति की सिद्धि प्राप्त करता है। यह सब जिस प्रेरणा से होता है, वह धर्म की प्रेरणा है। अपनी स्थिति सुधारने का पुरुषार्थ करने की ओर प्रबल प्रवृत्ति होना ही धार्मिक प्रवृत्ति का लक्षण है। धार्मिक वाङ्मय में ‘स्वर्ग और नरक’ इन दो कल्पनाओं से मनुष्य की दो अवस्थाएं बतायी हैं। साधारण लोग समझते हैं कि स्वर्ग ऊपर है, नरक नीचे और हम बीच में हैं। अर्थात् तीन मंजिल का यह मकान है, बीच की मंजिल पर भूलोक है, ऊपर का मंजिल स्वर्गलोक है और निचला मंजिल नरक के समान परन्तु यह वास्तविक कल्पना नहीं है, स्वर्ग और नरक की वास्तविक कल्पना होने से ही धर्म की वास्तविक बात जानी जा सकती है।

“नर” शब्द मनुष्य वाचक है और उसको अल्पार्थक ‘क’ प्रत्यय लग कर ‘नर-क’ शब्द हुआ है, इसका मूल अर्थ ‘अल्प मनुष्य, छोटा आदमी, नीच मानव’ है। इसके पर्याय शब्द ये हैं।

‘नारकस्तु नर को निरयों दुर्गति॥ प्रमर 1।9।1

नारक, नरक, निरय, दुर्गति ये चार शब्द नरक वाचक हैं। इन शब्दों में ‘दुर्गति’ शब्द दुष्ट अवस्था का वाचक स्पष्ट है। ‘निरय’ शब्द भी नीच अवस्था का द्योतक है। ‘नरक’ शब्द का अर्थ ‘नीच मनुष्य’ ऊपर दिया ही है। इसी प्रकार ‘नार-क’ शब्द का अर्थ ‘नीच मनुष्य समाज’ है, क्यों कि (नराणाँ समूहों नारं) मनुष्य संघ का ही नाम ‘तार’ है नरक वाचक ये शब्द मनुष्य की पतित अवस्था ही बता रहे हैं। मनुष्य की दुर्गति हीन अवस्था, पतित अवस्था, नीच स्थिति, सामाजिक अधोगति, राष्ट्रीय कष्टमय अवस्था आदि भाव ‘नरक’ शब्द में है। तात्पर्य पृथ्वी की निचली मंजिल का नाम नरक नहीं है और भूमि के नीचे कोई मंजिल है भी नहीं, परंतु मनुष्यों की पतित अवस्था का नाम ही नरक है, जिस अवस्था में रहने से मनुष्य हीन समझा जाता है, वह अथवा नरक शब्द बता रहा है। धर्म प्रेरणा लक्षण होने से धर्म मनुष्य को ऐसी उच्च प्रेरणा करता है कि मनुष्य का पतन न हो और मनुष्य नरक की दुर्गति में न गिरे। धर्म का यही कार्य है कि वह मनुष्य के सामने उच्च आदर्श सदा रखे और कभी उसको गिरने न दे !

उक्त प्रकार नरक की ठीक कल्पना हो गई, तो स्वर्ग की कल्पना होने में देरी नहीं लगेगी। ब्रह्माण्ड ग्रंथों में इसका निर्वचन निम्न प्रकार आता है-

स्वः, स्वर, सु-वर, सुवर्ग। (ब्राह्मण निर्वचन)

अर्थात् (सु-वर्ग) उत्तम वर्ग ही स्वर्ग लोक है। वर्ग शब्द समाजवाचक किंवा संधवाचक है। उत्तम झुँड, उत्तम संघ, श्रेष्ठ जमाव, उच्च समाज आदि भाव ‘सु-वर्ग’ शब्द बता रहा है। ‘सु-वर’ शब्द ‘उत्तम उच्च अवस्था’ का आशय व्यक्त करता है। ‘स्व-र’ शब्द ‘अपना प्रकाश’ अथवा अपना प्रभाव बता रहा है, और वही भाव अर्थात् वही आत्मत्व का भाव ‘स्वः’ शब्द में है। इसका तात्पर्य यह है कि ‘अपने उच्च प्रभाव का अनुभव’ स्वर्ग में है और ‘अपनी हीन अवस्था की दुर्गति’ ‘नरक’ अवस्था में है। एक अवस्था मानवी श्रेष्ठता की है और दूसरी अधोगति की है। अर्थात् ये दो नाम दो अवस्थाओं के हैं न कि अन्य स्थानाँतर के। ‘नाक’ शब्द स्वर्गवाची है, उसका अर्थ (न + अ + क) नहीं है, दुःख जिस अवस्था में, वह अवस्था स्वर्ग है। दुःख हीन अवस्था किंवा सुखमय अवस्था का नाम स्वर्ग है। सच्चा सुख अपनी उच्च अवस्था में ही होता है। अस्तु इस प्रकार स्वर्ग की मूल कल्पना है।

धर्म प्रेरणा करके मनुष्य में ऐसा पुरुषार्थ करने की इच्छा उत्पन्न करता है कि जिससे वह मनुष्य उच्च और श्रेष्ठ बनता चला जाता है और पतित नहीं होता। इस प्रकार धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और धर्म का पालन न करने से पतित अवस्था का नरक भोगना पड़ता है।

-वैदिक धर्म


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles