प्रभु और मानव दोनों का मिलन हो रहा है। अर्थात् प्रभु का मानव में अवतरण और मानव का प्रभुत्व की ओर ऊर्ध्व गमन।
परन्तु इस परस्पर योग का अर्थ ‘विनाश’ अथवा ‘लय’ नहीं होता। जीवन में जो जिज्ञासा, आवेग, दुःख तथा आनन्द व्याप्त है उनका सार्थकत्व आत्म विनाश में नहीं रहता।
यदि आत्मविनाश ही उनका अन्तिम आदर्श होता तो ब्रह्माण्ड की यह लीला ही आरम्भ न हो पाती।
विश्व का आदि कारण आनन्द है, शुद्ध आनन्द को जानने से तुम्हें भगवान् का बोध होगा।
विश्व का आदि किसमें है? सत् में। अस्तित्व का आनन्द लेने के लिए सत् स्वयं धारण किये है। इस प्रमाण में ही वह अपने स्वत्व की अनन्त रूपों में प्राप्त करता है।
तब, इस विराट विश्व-रचना का अन्त क्या है? कल्पना करो कि मधु स्वयं अपने माधुर्य का स्वाद ले सकता है और उसकी वे सर्व बिन्दु भी विशेष एकत्र आनन्द ले सकती है तथा समस्त बिन्दु एक दूसरी की मिष्टता का स्वाद भी चख सकती है और प्रत्येक मधुबिन्दु सम्पूर्ण मधुषुट का स्वाद ले सके तो इसमें क्या है?
भगवान्, आत्मा और विश्व का अन्तिम आदर्श भी इसी प्रकार का है।
समस्त विश्व मुक्ति की ओर देख रहा है, साथ ही प्रत्येक प्राणी अपनी शृंखला से भी कितना प्रगाढ़ प्रेम रखता है।
यह है सर्वोपरि विरोधाभास और प्रकृति की अटपटी गुँथन। जन्म के बन्धन को मनुष्य चाहता है, इसीलिए उसे जन्म के आगे-आगे मृत्यु के फंदे में फंसना पड़ता है और इस बन्धन में बंधे-बंधे ही उसे मुक्ति की अभिलाषा तथा आत्मसिद्धि की आवश्यकता भी अनुभव होती है।
मानव शक्ति चाहता है, इसीलिए उसे निर्बलता, अशक्ति के वशीभूत होना पड़ता है।
कारण यह है कि जगत सम्पूर्ण शक्ति की उत्ताल तरंगों से परिपूर्ण समुद्र है। ये तरंगें सतत् मिलती और परस्पर संघर्षित होती रहती हैं।
इन लहरों के मुख पर जो वास करना चाहता है उसे अन्य असंख्य लहरों के थपेड़ों की चोट खाकर मूर्च्छित होने को भी उद्यत रहना चाहिए।
मानव केवल सुख चाहता है, इसीलिए उसे दुःख तथा शोक की झंगुरी भी स्वीकार करनी पड़ती है।
निर्मल, विशुद्ध आनन्द तो केवल मुक्त और अनासक्त आत्मा को ही प्राप्त हो सकता है।
किंतु मानव के अन्तर में रमी हुई जो वस्तु सुख की वाँछा करती है, वही चेष्टा करने वाली- दुःख सहन करने वाली- शक्ति भी है।
मनुष्य शाँति के लिए तरसता है- किंतु साथ ही साथ वह अशाँत मन और दुःखित हृदय के अनुभव भी चाहता है।
‘भोग’ यह मानव-मन के लिए एक प्रकार का ज्वर है और उसे शाँति नीरस, पुनरुक्तिपूर्ण, जड़ता जैसी प्रतीत होती है।
मनुष्य स्थूल शरीर के बन्धनों को चाहता है, परन्तु साथ ही साथ वह अनन्त मन और अमर आत्मा की मुक्ति भी माँग रही है।
तो भी मनुष्य में कोई ऐसी वस्तु है जो इन समस्त विरोधों में आनन्द ले रही है।
केवल अमृतपान की वाँछा ही मनुष्य को आकर्षित नहीं कर रही है, हलाहल विष भी उसे खींच रहा है।
ऊपर जिन विरोधों की चर्चा की गई है उनमें भी कुछ अर्थ हैं। इन विरोधों का भी आधार है। प्रकृति की प्रत्येक क्रिया में भी पद्धति और नियम होते हैं। उसकी अनोखी वैचिण्यमयी गुंथने भी रहस्यमयी होती हैं।
अभी तक जीव ने अपने स्वत्व को नहीं खोजा है, इस बात की मृत्यु उसे बारंबार याद दिलाती है।
मानव-जीवन के चारों ओर यदि यमराज का घेरा न होता तो मनुष्य अपूर्ण जीव के बन्दीगृह में ही सड़ता रहता। किंतु जीवन के साथ मृत्यु लगी होने के कारण मानव में सम्पूर्ण जीवन का आदर्श जागृत होता रहता है और उस आदर्श जीवन को प्राप्त करने के साधनों की वह शोध करता है।
निर्बलता भी अपनी शक्ति से इसी प्रकार का प्रश्न करती है। शक्ति तो जीवन की लीला है, शक्ति द्वारा ही जीवन और उसके आविर्भाव का मूल्य आँका जाता है।
सक्रिय जीवन के पीछे दौड़ती हुई मृत्युलीला का नाम ही निर्बलता है। जीव की प्राप्त की हुई शक्ति की सीमाओं को वह तोड़ डालती है।
दुःख तथा शोक द्वारा प्रकृति आत्मा को याद दिला रही है कि “जो सुख तू इस समय भोग रहा है, वह आध्यात्मिक आनन्द के परिणाम में केवल दारिद्रय और निर्बलास्पद मात्र है।
प्रत्येक दुःख और घृणास्पद हिंसा में आनन्द की परिसीमा छिपी हुई है और विश्वव्यापी आनन्द ज्योति के सम्मुख हमारा महान से महान सुख, सूर्य के समक्ष दीपक के समान भी नहीं है।
इस छिपे हुए आनन्द को प्राप्त करने के लिए ही तो मानवी आत्मा को महान् यातनाएं, दुःख और रोमाँचित कर देने वाले क्रूर अनुभव करने पड़ते हैं।
हमारे सक्रिय आधार और प्रकृति में व्यक्त होने वाली अशाँति क्रान्ति द्वारा प्रकृति हमें समझती है कि तेरी वास्तविक प्रतिष्ठा ‘शाँति’ में बसी हुई है और उच्छृंखलता- अशाँति तो आत्मा के साथ एक व्याधि है।