हमारे भारतीय आदर्श

December 1947

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(श्री दौलतराम कटरहा वी. ए. दमोह)

स्वामी रामतीर्थ ने एक बार कहा था कि भारतीय आदर्श पाश्चात्य आदर्शों से बिल्कुल भिन्न है। भारत में जहाँ किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता उसके भोग-त्याग से नापी जाती है वहाँ पाश्चात्य देशों में कौन व्यक्ति कितना सुखोपभोग कर सकता है, यही उसकी श्रेष्ठता की कसौटी है। भारतीयों को सेवा और भोग-त्याग के इस आदर्श ने ही भारत को उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया था। महाराज चन्द्रगुप्त के समय में भारतीय सभ्यता का वर्णन करता हुआ मैगस्थनीज लिखता है कि भारतवासियों का जीवन अत्यन्त त्याग-पूर्ण और निःस्वार्थी होता है। भारतीय गृहस्थ भोग-लोलुप नहीं होते। गृहस्वामी और गृह-स्वामिनी दास-दासियों को भोजन कराने के उपरान्त ही भोजन पाते हैं। पहिले अपने आश्रितों और छोटे बच्चों को खिलाए बिना वे किसी वस्तु का उपभोग नहीं करते। उसी तरह हिंदुओं के एक व्रत विशेष में भगवान विष्णु की उपासना और पूजा ही विशेष लक्ष्य होता है किंतु उनकी पूजा करने के पहिले गणेश आदि अन्य छोटे-छोटे अनेक देवी-देवताओं की पूजा का विधान है। आप कहेंगे भगवान विष्णु की पूजा एक दम सीधे ही क्यों नहीं कर ली जाती किंतु इसमें एक तत्व सन्निहित है और वह है स्वार्थ एवं भोग- लोलुपता का त्याग तथा अपने आश्रितों को अपने से प्रथम आदर-सत्कार और बड़प्पन दिलाने का भारतीय आदर्श। भगवान राम के जीवन में इस आदर्श का पालन आपको सर्वत्र ही मिलेगा। क्या स्त्री, क्या भाई, क्या मित्र और क्या प्रजागण सबके साथ व्यवहार करते समय आप देखेंगे कि भगवान राम का ध्यान अपनी सुख-सुविधाओं की अपेक्षा उनकी सुविधाओं की ओर ही अधिक रहती है।

आत्म-त्याग का हमारा यह आदर्श अब लुप्त प्रायः हो गया है और हमारे द्वारा पाश्चात्य आदर्शों को अपनाए जाने के कारण हमारे राष्ट्रीय जीवन में बड़ा दोष आ गया है। आज हमारी यह वृत्ति है कि हमें अपनी ही अपनी पड़ती है और हम दूसरों को उनके उचित अधिकारों से भी वंचित रखना चाहते हैं। वाद में पहुँचने पर भी हम अपने पद और धन के बल पर, तरजीह प्राप्त करना चाहते हैं, बहुधा हम पहिले अपनी ही सुख-सुविधाओं पर ध्यान देते हैं, पश्चात अपने से न्यून स्थिति वालों तथा अपने अनुगामी और आश्रितों पर। वेतन लेते समय पहिले अधिक वेतन पाने वाले व्यक्ति अपना वेतन ले लेते हैं और फिर कभी-कभी कई दिनों बाद अल्प वेतन भोगी व्यक्ति कहीं अपना वेतन पाते हैं। किन्हीं लोगों की स्वार्थ-परता इतनी बढ़ जाती है कि वे अपने बच्चे के साथ भी स्वार्थ-मय व्यवहार करते हैं। खाते-पीते समय पहिले अपना हिस्सा लगाते हैं और फिर कहीं बाद में बच्चों का। बच्चे खड़े देखते रहते हैं और संयोग लोग सुस्वादु द्रव्य चट कर जाते हैं। ऐसा ही व्यवहार उनका घर के सेवकों के साथ भी होता है। पार्टियों में या अन्य अवसरों पर वे बड़ी लालसा से आशा लगाए रहते हैं अतएव अपने स्वामियों की इस लिप्सा का उन पर अच्छा असर नहीं पड़ता। वे बड़ा बुरा आदर्श उनके सम्मुख उपस्थित करते हैं। भोग प्राप्ति उनके जीवन का लक्ष्य होता है अतएव नौकरों का भी यही लक्ष्य हो जाता है और इस तरह इन श्रेष्ठ-जनों के द्वारा निम्न श्रेणी के लोगों के सामने एक बुरा आदर्श उपस्थित किये जाने के कारण सारा राष्ट्रीय आदर्श बिगड़ जाता है और देश पतित हो जाता है।

यद्यपि बाबर अभारतीय था तो भी वह आत्म-त्याग के इसी भारतीय आदर्श को अपनाए हुए था। काबुल के रास्ते भारत आते समय एक बार उसकी सेना को गिरती हुई बर्फ का सामना करना पड़ा। उसने अपने समस्त सैनिकों को तम्बुओं के भीतर सोने के लिए कहा और जब उसके लिए किसी तम्बू में जगह न रही तो उसने तम्बुओं के बाहर बैठे ही बैठे सारी रात गुजार दी। बाबर अपनी सेना का इसी तरह ख्याल रखता था और इस कारण वह उनका प्राण-प्रिय हो गया। नेपोलियन भी उसी प्रकार अपने सैनिकों का खूब आदर करता था इस कारण उसने अनेक युद्धों में विपक्षियों पर विलक्षण विजय प्राप्त की। महात्मा तुलसीदास ने इस भारतीय आदर्श को कितने सुन्दर ढंग के प्रतिबिम्बित किया है और अपने इष्ट देव के जीवन को ओत-प्रोत होता हुआ दर्शाया है। वे कहते हैं -

प्रभु अपने नीचहुँ आदरहीं।

अग्नि-धूम गिरी शिर तृण धरहीं॥

एक बार इन्द्रदेव भगवती उमा के पास बैठे हुए थे कि इतने में लक्ष्मीजी आई और इन्द्र ने उनसे उनके आगमन का कारण पूछा। लक्ष्मीजी ने बताया कि वे अभी-अभी राक्षसों को छोड़कर आ रही हैं। इन्द्र के आश्चर्यान्वित होकर पूछने पर कि वे पहले राक्षसों के घरों में क्यों निवास करती थीं और उन्होंने श्रेय किस कारण से उनके घरों को छोड़ दिया है उन्होंने बताया कि राक्षस पहले सदाचारी होते थे। वे वृद्ध-जनों का आदर करते थे, दीन-दुखियों और आपत्तिग्रस्त लोगों के प्रति सहानुभूति रखते थे और माता-पिता आदि गुरुजनों के आज्ञाकारी होते थे इसलिए मैं उनके गृहों में बहुत समय से निवास करती आई किंतु उन्होंने अब इन शुभ गुणों को छोड़ दिया है और वे अब दुराचारी होने लगे हैं। मित्रों के प्रति जहाँ वे पहले सच्ची सहानुभूति रखते थे वहाँ वे अब मित्र की विपत्ति को देखकर मन ही मन प्रसन्न होते हैं। किसी का मकान जलता रहता है और लोग खड़े-खड़े तमाशा देखते रहते हैं। स्त्रियों में सात्विकता जाती रही है और वे अब अत्यन्त हाव भाव से कटाक्ष करती हुई निकलती हैं। उनका शृंगार अत्यन्त तीव्र और कामोत्तेजक होता है। पुरुष बड़े-बूढ़ों का आदर-सत्कार नहीं करते। गुरु जनों के आने पर वे अब बैठे ही रह जाते हैं और उठकर अभिवादन नहीं करते। गुरुजनों के समक्ष भी वे प्रमाद-पूर्वक नशीली वस्तुओं का सेवन तथा रमणियों से प्रेमालय करते रहते हैं। पुरुष वृषमगामी तथा स्त्रियाँ अब दुराचारिणी हो गई हैं। घी आदि पवित्र वस्तुओं को वे अब जूठे हाथों से ही छूने लगे हैं। दूध आदि वस्तुओं का वे अब आलस्यवश ठीक तरह नहीं रखते। उनके छोटे-छोटे बच्चे खड़े देखते रहते हैं और वे अब मिष्ठानादि सब चट कर जाते हैं। अतएव मैं अब राक्षसों को त्याग कर देवताओं के पास आई हूँ।

भगवती लक्ष्मी के उपरोक्त कथन से हमें शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और हमें स्मरण रखना चाहिये कि राक्षसों के बाद के आचरण ने ही उन्हें जघन्यकर्मा, नीच और लोक-निंदा बना डाला। अतएव जब तक हम अपने बड़े-बूढ़ों, आश्रितों और सेवक जनों की भी सेवा का आदर्श ग्रहण न करेंगे तब तक हम सुखी और समृद्ध नहीं हो सकते।

महाभारत के पश्चात् पाँडव-गण विरक्त-भाव से हिमालय पर प्राण-त्याग-निमित्त बढ़े चले जा रहे थे। महात्मा युधिष्ठिर को छोड़ सभी पाँडव धराशायी हो गए। केवल वे और एक कुत्ता ही जो रास्ते में ही उनके साथ हो लिया था, शेष रह गए। आगे चलकर उन्हें लेने के लिए एक विमान आया किंतु उन्होंने कुत्ते को छोड़कर अकेले ही स्वर्ग जाने से इंकार कर दिया। अपने अनुगामियों के प्रति यह वात्सल्य-भाव भारतीय संस्कृति का एक अनुपम आदर्श है और हम आशा करते हैं कि स्वतंत्र भारत में वह पुनर्जीवित होगा।


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