(ले.- पं. तुलसीराम शर्मा वृन्दावन)
‘पण्डा आत्मविषया बुद्धिः येषातेहि पण्डिताः’
(गीता. 2।11 शाँकर भाष्त)
आत्म विषयक बुद्धि का नाम पण्डा है और वह बुद्धि जिनमें होवे पण्डित है।
सत्यं तपोज्ञान महिंसताच विद्वत्प्रणाँम च सुशीलताच एतानि। योधारयते सविद्वान न केवलयः पूठतेस विद्वान॥
- सुभाषितरत्न भाण्डागार
सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वानों का सत्कार और शीलता ये गुण जिसमें है वह विद्वान (पण्डित) है केवल शास्त्र पढ़ने वाला नहीं।
निषेवते प्रशस्तामि निन्दितानिन सेवते।
अनास्तिकः श्रद्वधान एतत्पंडितलक्षणाम्॥ 21॥
-विदुर नीति अ01
जो सुन्दर कर्मों को करता है निन्दित कर्म नहीं करता, जो नास्तिक नहीं है और श्रद्धावान वह पंडित है।
क्रोधो हषश्च दर्पण ही स्तम्भो मान्यमानिता।
यमर्थान्नाप कर्षन्ति सवै पंडित उच्चते॥22॥
जिस पुरुष को क्रोध, हर्ष, घमण्ड, भय, संकोच एवं बड़प्पन की भावना- अपने कर्तव्य कर्म से लज्जा नहीं हटा सकती है वही पंडित है।
आर्य कर्मणि रज्यन्ते भूति कर्मणि कुर्बते।
हितं च नाभ्यसूयन्ति पंडिता भरतर्पभः ॥30॥
हे धृतराष्ट्र! पण्डित लोग शास्त्रानुकूल मार्ग पर चलते हैं और जिन कर्मों को करने से कल्याण प्राप्त होता है उनको करते हैं हितकारी वाक्यों को प्रेम से सुनते हैं और हितोपदेष्टा का सत्कार करते हैं।
पठकाः पाठ का श्वैव येचान्ये शास्त्र चिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा वः क्रियावान स पंडितः॥
-म.मा.वन. 313। 110
पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले और शास्त्र के चिन्तक ये सब एक प्रकार से व्यसनी हैं परन्तु जो शास्त्र में लिखे पर चलने वाला है वह पण्डित है।
मातृ वतपरदाराणि पर द्वव्याणिलोष्ठवत।
आत्मवत सर्वभूतानि यः पश्यति स पण्डितः॥
-सुभाषितरत्वभाँडागार
पराई स्त्रियों को माता के समान मानता हो, पराये धन को मिट्टी समझता हो, सारे प्राणियों को अपने समान अर्थात् उनके दुख में दुख सुख में सुख मानता हो, वह पंडित है।
नंपडित मतोराम बहु पुस्तक धारणात।
पर लोक भयं यस्यतमाहु पंडित बुधाः॥
-विष्णु धमोत्तर पु0 2।51।13
हे राम! बहुत पुस्तक पढ़ने से पंडित नहीं होता, जिसको परलोक का भय है अर्थात् पाप कर्म से बचा हुआ है उसी को बुद्धिमान पंडित कहते हैं।
आत्मार्थ जीवन लोके अस्मिन्कोन जीवति मानवाः।
परं परोपकार्थच यो जीवति स पंडितः॥
अपने लिए तो इस संसार में कौन नहीं जीता अर्थात् सभी जीते है। परन्तु जो परोपकार के लिए जीवित रहता है वह पंडित है।
युध्यन्ते पक्षि पशवः पठन्ति शुक सारिकाः।
दातु शक्नोति यो दानं स शूरः स च पंडितः॥
लड़ते तो पशु पक्षी भी हैं और पढ़ते तो तोता मैना भी हैं, इसलिए केवल शास्त्रार्थ या पठन पाठन की योग्यता से कोई शूर वीर नहीं होता जो दान दे सकता है अपनी शक्तियों को परमार्थ में लगा सकता है वही शूर है और वही पंडित है।
सर्वनाश समुत्पन्नेह्रार्घत्यजति पंडितः।
अर्धन कुरुते कार्यसर्व नाशो न जायते॥
सर्वनाश सामने आने पर पंडित लोग आधार त्याग देते हैं और आधे से कार्य करते हैं जिससे सर्वनाश नहीं होता।
संत कबीर ने पंडित की बड़ी अच्छी परिभाषा की है-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय॥