शरीर पर विचारों का प्रभाव

December 1947

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(श्री विश्वामित्र वर्मा डमौरा)

यदि कोई अपने आपको आरोग्य, सुन्दर, प्रसन्न और बलवान मानता है तो वह निरोग, सुन्दर, युवा, प्रसन्न और बलवान रहता है, और जो अपने को रोगी, कुरूप, वृद्ध, निर्बल और अप्रसन्न मानता रहता है तो वह वैसा ही बनता है। मानसशास्त्र का यह नियम है कि मनुष्य अपने आपको जैसा समझता है वैसा ही बनता है। सुनने में तो अचंभा होता है पर बात बिल्कुल सच है। बड़े विद्वानों के जीवन का अनुभव करके इस नियम को सत्य पाया है। प्रेम के भाव से चेहरा चमकने लगता है, भय से खून जम जाता है, चिंता से सारा शरीर मुर्दार बन जाता है- घृणा से सिर में दर्द हो जाता है- मैथुनेच्छा से क्षय हो जाता है। द्वेष, ईर्ष्या आदि के भाव शरीर की धातुओं को सुखा देते हैं- लोभ जठराग्नि को मन्द कर अजीर्णता उत्पन्न करता है, क्रोध से शरीर का रक्त गरम हो जाता है- तथा आंखें लाल हो जाती हैं- रक्त व लार विषाक्त तथा चारों ओर का वातावरण भयानक हो जाता है। किसी घृणा दिलाने वाली वस्तु पर दृष्टि डालने से कोमल प्रकृति वाले पुरुष का जी मिचलाने लगता है- यह सब केवल विचारों से और भावों से होता है। हम किसी उपन्यास में जासूसी अथवा खून होने की घटना पढ़ते-पढ़ते उसमें ऐसे लीन हो जाते हैं कि मानों हम भी उसी में सम्मिलित हों- और वे भाव हम में आ जाते हैं। हमें बड़ी जोर से भूख लगी हुई है- तुरंत एक तार आया जिसमें एक मित्र के मृत्यु का समाचार है- हमारी भूख काफूर हो गई- जबरदस्ती भोजन खिलाया भी जाय तो गले नहीं उतरता- ऐसी अवस्था में अमृत भी विषतुल्य प्रतीत होता है।

जो बात एक बार मन में आकर बार-बार चला करती है वह विश्वास के रूप में दृढ़ होकर मन में अपना स्थान जमा लेती है और शरीर के संबंध में जिसका जैसा विश्वास जम जाता है वैसे ही लक्षण प्रतीत होने लगते हैं। मनुष्य जिस एक बात को स्वीकार कर लेता है वे ही बातें बार-बार उसके मन में आती हैं। और जिन बातों की वह अस्वीकार करता है अथवा जो बातें उसे अप्रिय हैं वे उसके मन में नहीं आती। मनुष्य की भावना ही उसको फल देती है-

“यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।”

जिस वस्तु का तीव्र इच्छा होता है वह अवश्य प्राप्त होती है- यह प्रकृति का नियम है। प्रकृति के भण्डार में से तुम्हें जिस वस्तु की आवश्यकता है उसकी प्राप्ति के नियम जानो। उनमें से सबसे प्रधान नियम यह है कि जिस वस्तु को तुम प्राप्त करना चाहो उसके लिए एक वाक्य बना लो जिसे अंग्रेजी में (्नद्धद्धद्बह्द्वड्डह्लद्बशठ्ठ) स्वीकृति कहते हैं और मान लो कि तुम्हें वह वस्तु प्राप्त हो गई- उसी वाक्य का मानसिक जप करते रहो, ईसामसीह ने कहा है - विश्वास रखो कि “मैं पा गया हूँ” तो तुम पा जाओगे।

इस अभ्यास से तुम्हारी आवश्यकताएं आप ही आप तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगेगी- और कभी भी आवश्यकता की ओर तुम्हें खिंचकर जाना पड़ेगा-फिर तुम्हें इस सत्य पर विश्वास हो जाएगा।

विचारों के कारण मनुष्य के शरीर में एक आकर्षण शक्ति भरी हुई है और शरीर के चारों ओर निश्चित सीमा तक प्रवाहित हो रही है और उस सीमा के अंदर आने वाले प्रत्येक मनुष्य को प्रभावित करती है। जो संसार की समस्त विद्युत तथा आकर्षण शक्ति से भिन्न है। यह आकर्षण अथवा विद्युत शक्ति हमारे विचारों पर निर्भर है और विचारों की सफलता, निर्बलता, दृढ़ता, अस्थिरता आदि की न्यूनाधिकता के अनुसार उत्पन्न और संचालित होती है तथा उसी मात्र में दूसरों को प्रभावित करती है अथवा स्वयं प्रभावित होती है। दूसरों को प्रभावित करने के लिए अथवा स्वयं आनंद और स्वास्थ्य लाभ करने के लिए हंस मुख रहना अति आवश्यक है। लोग उदास मनुष्यों से मिलना बहुत कम पसंद करते हैं- वे चाहते हैं प्रसन्न मन वाले मनुष्य में और कोई सद्गुण चाहे न हो परन्तु जिसका चेहरा हंसमुख, प्रसन्न और मुस्कराता हुआ रहता है वह अपनी आवश्यकताओं को सहज में सिद्ध कर लेता है, दूसरों पर अपनी अच्छा प्रभाव डालता है। सारा जगत् उस विद्वान और बुद्धिमान मनुष्य को चाहता है जो अलौकिक शक्तियों के साथ मिलनसार भी हो-ऐसे मनुष्य को संसार शीघ्र ही खोज निकालता है- जो लोग सब लोगों से हेल मेल नहीं रखते- अथवा जिनमें मेल रखने की योग्यता नहीं है वे सचमुच अपनी बड़ी हानि कर रहे हैं और इसीलिए बहुत कम प्रसिद्ध और सफल होते हैं। तुम्हारी उदासी, अप्रसन्नता का कारण तुम्हारा अज्ञान और नासमझी है। तुम सदा नई-नई इच्छाएं पैदा करते हो- नई-नई आवश्यकताएं बढ़ाते हो - पर उनकी इच्छायें और आवश्यकताओं के पूर्ण न होने पर दूसरों पर दोषारोपण करते हो अपना दोष नहीं देखते - देखो तुम्हारी उदासी और अप्रसन्नता इसका मुख्य कारण है। अतः आज से हंस मुख रहने का निश्चय करो।

भूतकाल की कोई आनंदप्रद घटना का मानसिक चित्र रखें और हंसना आरंभ करें- हंसी आये न आये हंसने की कोशिश करते रहें। हंसने से रक्त संचालन तीव्र वेग से होने लगेगा- पर अनयंत्रों के विशेष प्रकार की गति होती है मस्तिष्क के ज्ञान तंतुओं में भी एक प्रकार की स्फूर्ति पैदा होती है।

एकान्त स्थान में सुबह या सायंकाल को जाओ- एक आइना साथ लेते जाओ- आइने में अपना प्रतिबिम्ब देखने और मुस्कुराओ हंसो कुछ समय तक रोज इस प्रकार करते करते कुछ दिनों में मुस्कराना तुम्हारा स्वभाव हो जाएगा- इससे आनन्द का जो अनुभव तुम्हें होगा वह अवर्णनीय होगा- आनन्द के और सुख के साधन संसार के स्थूल-अनित्य पदार्थों को मत खोजो और न पैसे खर्च करो न समय बरबाद करो यह एक ऐसा साधन है कि सहज में ही तुम्हें बिना एक पाई खर्च किये चाहे जब यह आनन्द तुम खोजते फिरते हो- उससे इसकी तुलना करो- तुम्हें मालूम होगा कि मुस्कराहट में- साँसारिक आनन्द की अपेक्षा न जाने कितने गुना अधिक अलौकिक सुख और लाभ है। धीरे-धीरे यह मुस्कराहट तुम्हारे स्वभाव में परिणत हो जाएगी और जिन लोगों से तुम्हारा परिचय होगा वे लोग भी तुम्हारे साथ ही इस आनन्द धारा में तैरेंगे फिर देखा तुम्हारी वाणी में कितनी मधुरता और आकर्षण शक्ति है- लोगों के झुण्ड के झुण्ड तुम्हारी ओर अकर्षित होते चले आवेंगे- उन पर तुम्हारे मीठे स्वभाव की अमिट मधुर छाप लग जाएगी- फिर तुम्हें सफलता मिलते देर नहीं लगेगी।

उदास और रोते हुए मनुष्य का भी रुख तुम्हारे तेजस् के भीतर आते ही बदल जायगा और वह अपनी चिंता भूल जाएगा- फिर तुम्हें मालूम पड़ेगा कि तुमने अपने मधुर मुस्कान द्वारा उसके भाव को बदल कर उसका कितना उपकार किया है- इससे तुम्हारा भी उत्साह बढ़ेगा।


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