(देवता स्वरूप भाई परमानन्दजी)
दो मार्ग है- एक प्रेय, जो बहुत प्यारा मालूम होता है, दूसरा श्रेय-जो प्यारी तो नहीं, किन्तु कल्याणकारी है। यदि कल्याण के मार्ग में वैसा ही सुख और आराम मिलता तो समस्त संसार उस मार्ग पर स्वमेव चल पड़ता। तब धर्म के सिद्धान्तों के प्रचार के लिये इतने बड़े ग्रन्थों और शास्त्रों की क्या आवश्यकता थी? और लोगों को धर्म मार्ग पर चलाने के लिये इतने ऋषि, मुनि और उपदेशक क्यों जोर लगाते? लोगों के सुधार के लिये इतनी सभाएं क्यों बनाई जाती?
यह सब इसलिये किया जाता है कि धर्म का मार्ग कठिन है। इस पर चलने में कष्ट होता है। मनुष्य-स्वभाव सुख चाहता है और जो बात उसे आराम और सुख देने वाली मालूम होती है, वह उसी की ओर दौड़ता है। बच्चा दिन भर खेलना चाहता, पुस्तक को देखना नहीं चाहता। उसे खेल तमाशे और गप्पों में आनन्द आता है, वह उनमें ही लगे रहना चाहता है। दिन भर इधर-उधर घूमता रहेगा, ताश खेलता रहेगा, पढ़ने का नाम न लेगा।
मनुष्य को चित्त उस बच्चे के चित्त के समान है। या उस बेलगाम घोड़े की तरह है, जो अपने मार्ग पर जाकर सवार को गड्ढ़े में गिराना चाहता है। इस चित्त को वश में करने के लिये शास्त्र रचे गये। आज शास्त्र की बात कौन सुनता है? सुन भी ली तो मानता कौन है? संसार-प्रवाह बड़ा जबरदस्त है। संसार की दासता हम में से अनेकों को बहा लिए जाती है।
बात यह है कि जो मनुष्य धर्म के मार्ग पर चलता है, वह स्वयं कष्ट ही उठाता है। किन्तु जब कोई दूसरों के लिये कष्ट उठाता है, तभी वह दूसरों का कल्याण करता है और दूसरों के कल्याण में उसका कल्याण होता है।