वर्षों से पीड़ित, अपमानित तथा समस्त देशों से ठुकराई जाने वाली भारत माँ की आँखें उसके युवक पुत्रों पर हैं। हमें यौवन का उन्माद, सम्पूर्ण शक्ति और सम्पूर्ण सामग्री उसका सिर ऊँचा करने के लिए लगा देनी चाहिए। पर लगा क्या दें! हमारी भुजाओं में बल नहीं, हमारे पास आजकल के युद्ध उपकरण नहीं, शिक्षा नहीं, राजशक्ति नहीं, फिर हम किसके भरोसे आशा करें? हमारे पास आधुनिक बल कहाँ है! जिसके भरोसे हम जड़ विज्ञान से परिपूर्ण, स्वार्थपरता में मतवाली शक्तियाँ जो संसार को विनष्ट करते हुए हमारे देश की ओर मुँह बाये चली आ रही हैं, उनका मानमर्दन कर सकें।
भारत सदैव से आध्यात्मिक भावों एवं उपकरणों से परिपूर्ण रहा है और इस विकट समय में भी यह इतना आध्यात्मिक भाव रखता है कि पशुबल से मस्त शक्ति यों को उचित उत्तर दे सकें, अब वह समय आ गया है कि दुनिया को कुपथ से रोका जाय। यह समझ में नहीं आता और कहना भी कठिन है कि जिस प्यास से विश्व की आत्मा आज छटपटा रही है, जो चिनगारियाँ रक्त के छींटे देकर अनाथ और असहायों की अस्थियों के ईंधन में जलाई जा रही हैं। वह अग्नि तमाशा देखने वालों को कब तक अछूता छोड़ेगी, परन्तु इतना सत्य है कि मानवता के कलेजे में आग लग गई। वह छटपटा कर निराश होकर इधर-उधर दौड़ रही है। विनाश का आकर्षण इतना बढ़ गया है कि अपना पराया कुछ नहीं सूझता, क्या पशुबल में मस्त राष्ट्रों के पास कोई साधन है? ये बतलायेंगे भी तो वही जड़ विज्ञान की सामग्री जिससे वास्तविक रक्षा नहीं के बराबर होगी। भारत इस समय भी इसका अमोघ अस्त्र रखता है और वह है त्याग और सहानुभूति। परन्तु यह बात बिना प्रेम के उत्पन्न नहीं हो सकती अतः भारत के पास जो वर्तमान वातावरण में रक्षा विधान है, वह है “प्रेम”।
प्रेम जीवन का प्रसून है, प्रेम जीवन को जाग्रत और सुखदायी बना देता है। किसी कवि ने कहा है कि—
प्रेम गगन में साधु भाव की ऊषा जब उत्थित हो। सुखकर दुःख हर चेतनता मय नवजीवन जागृत हो। हृदय देश के मनमानस में शत दल सम पुष्पित हो। करुणारुण, दीनानुराग से, मधु पराग पूरित हो।
वास्तव में प्रेम जीवन में ऐसी ही वस्तु है पर आर्य-जाति पीड़ित है, आध्यात्मिक अभाव से नैतिक पतन और सामाजिक व्याधियों से इसको न अब ईश्वर का प्रेम है न ज्ञान से और न सत्य से प्रेम रहा है, इसमें प्रेम नहीं के बराबर रह गया है या यों कहिये कि प्रेम है रूढ़िवाद, मिथ्या अहंकार और छुआछूत से।
यदि हम में अपनी जाति और देश के प्रति प्रेम है तो हमें अपने जीवन को अपने मुर्दा और कायर समाज के अन्याय पर बलिदान करके प्रेम सुधार और स्वाधीन देश की आई हुई विपत्तियों से प्रेम करने के लिए सर्व शक्ति युक्त बनाने के लिए, संस्कार शक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है। जब तक मनुष्य अपने निज के स्वार्थ का ही ध्यान रखते हों कुटुम्ब परिपालन करना ही जीवन का लक्ष्य बना रक्खा हो, समाज को एक दूर की बात समझ रक्खा हो तब तक समूहशक्ति होना भी असम्भव है। लाखों में से सैकड़ों मनुष्य तो ऐसे हों जो जाति और देश में मतवाले होकर देश और जाति के लिए बलिदान होने को तैयार हों, ऐसे न हों कि समाज और देश के वासी भूखे मर रहे हों और लाखों रुपया ब्याज के लिए और सहस्रों मन अन्न कोठों में अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए रख छोड़ा हो, तब भला देश और जाति की उन्नति की क्या आशा की जा सकती है।
यह तो सम्भव नहीं है कि देश के समस्त व्यक्ति इस प्रकार सच्चे देश प्रेमी और समाज प्रेमी बन जावें पर यह आवश्यक है कि ऐसे मनुष्यों की जितनी अधिक संख्या होगी उतनी देशोन्नति सुगम हो जावेगी, फिर यह भी आवश्यक नहीं है कि देश प्रेम के लिए सभी व्यक्ति युद्ध में पदार्पण करें, क्योंकि यह कार्य करने वाले यह काम करेंगे पर कोई सामग्री भी जुटायेगा? जिसकी जैसी इच्छा हो वैसी सहायता सप्रेम वह देश के लिए दे सकता है और अपना देश प्रेमी होने का परिचय दे सकता है।
देशोन्नति का शान्त समय चल रहा है, इसमें वीर बन कर आने वाले वीर बन कर आवें, धन देने वाले धन दें, सहानुभूति रखने वाले सहानुभूति रक्खें, प्रार्थना करें। परन्तु समस्त देशवासियों में देश प्रेम के भाव इस प्रकार हो जावें कि देश के लिए यथाशक्ति त्याग के साथ सेवा कर सकें, सब एक दूसरे का भला-बुरा समझते हुए किसी की वृथा निन्दा तथा अपवाद में न सम्मिलित होते हुए, प्रेम भाव से परस्पर सहयोग किया जावे और समान लक्ष्य की ओर निरन्तर पैर बढ़ाये जावें, तो ईश्वर कृपा से वह सुदिन अवश्य आयेगा कि देश समस्त विपत्तियों से मुक्त होकर विकास के मार्ग की ओर अग्रसर होगा।
ज॰ प्र॰ शर्मा।