प्रेम का संघर्ष

May 1942

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(महात्मा गान्धी)

एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने आत्मबल या प्रेम से शत्रु को भी अपने वश में कर लेता है। मित्र मंडली में प्रेम की कसौटी नहीं होती। यदि मित्र-मित्र पर प्रेम करे तो इससे कोई नवीनतम नहीं है। वह गुण नहीं है, उसमें श्रम नहीं है परन्तु शत्रु के प्रति मित्रता रखने में ही प्रेम की कसौटी है, इसी में पुरुषार्थ है और इसी में सच्ची बहादुरी है। शासनकर्त्ताओं पर भी हम ऐसी दृष्टि रख सकते हैं। ऐसी दृष्टि रखने से हम उनके कामों का मूल्य जान सकेंगे और उनकी भूलों के लिए द्वेष के बदले प्रेम भाव से वे भूलें बता कर उन्हें दूर करने में समर्थ होंगे। इस प्रेमभाव में भय की गुजर नहीं। निर्बलता तो पास नहीं फटकती। निर्बल मनुष्य प्रेम का प्रकाश नहीं कर सकता। प्रेम तो शूर ही दिखा सकते हैं। प्रेम की दृष्टि से विकार को हटाकर हमें अपने शासनकर्त्ताओं को संदेह की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। यह भी मानिए कि वह सब काम पूरी नेकनीयती से करते हैं। प्रेमपूर्वक अपने द्वारा की हुई उनके कार्यों की परीक्षा इतनी शुद्ध होगी कि उसकी छाया उनके ऊपर पड़े बिना न रह सकेगी।

प्रेम लड़ सकता है। प्रेम को कितनी ही बार लड़ना पड़ता है। सत्ता के मद में मनुष्य अपनी भूलों पर दृष्टि नहीं रखता। उस समय सत्याग्रही बैठा रहता है। वह स्वयं दुख सहन करता है। सत्ताधीश की आभा का उनके कानूनों का सादर निरादर करता है और उस निरादर के परिणाम स्वरूप कष्ट, जेल, फाँसी इत्यादि सहन करता है। इस प्रकार आत्मा सुधरती है। वज्र के समान कठोर हृदय वाला भी आत्मबल की अग्नि में पिघल सकता है, यह अतिशयोक्ति नहीं, किन्तु गणित के अक्षरों के समान स्पष्ट है।


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