ले॰-श्री नृसिंह पाठक “अमर”

May 1942

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कलियों को मुसकाते देखा,

फूलों को हँसते देखा।

नदियों को इठलाते देखा,

झरनों को झरते देखा॥

देखा सूर्य चन्द्रमा आते,

हँसते—हँसते वारी वारी।

देखा तारों को छिटकाते,

झिलमिल रूप विभा न्यारी॥

देखा सागर को लहराते,

और ऊषा को मुसकाते।

देखा वसुन्धरा को हँसते,

सावन घन को बरसाते॥

किन्तु सृष्टि के रत्न मुकुट,

विधि के विधान की श्रेष्ठ कला।

मानव दल को देखा हमने,

चिंतित मूर्च्छित हृदय जला॥

चारों ओर घिरी है ज्वाला,

धू धू लपटें दौड़ रहीं।

बन्दी सम है तड़प रहे,

व्याकुलताएं क्या जायं कही॥

मधुर हास्य के बदले उनको,

आर्त्त नाद करते देखा।

हाय! सृष्टि सम्राटों को,

कर मल मल कर मरते देखा॥

उत्तर स्वर्ग से भूमण्डल पर ‘सत्’ की अमर ज्योति आती है।

वेणु बजाती सत्य, प्रेम की, सुमधुर न्याय गान गाती है॥

वेणु बजाती सत्य, प्रेम की, सुमधुर न्याय गान गाती है॥


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