माता या शत्रु?

May 1942

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(श्री दरबारीलाल जी सत्य भक्त )

एक नगर में एक विधवा स्त्री रहती थी, जिसका एक लड़का था। एक तो इकलौता बेटा, फिर दूसरा कोई सहारा नहीं, इसके अतिरिक्त मोहिनी मूढ़ भी काफी थी। इसलिये उसे अपने लड़के का गहरा मोह था। निरंकुश रहने से लड़का उद्दंड होने लगा। जब वह कोई बदमाशी करता और पड़ौसी उलाहना देते, तो वह लड़के के अपराध का विचार किये बिना पड़ोसियों से लड़ने लगती। अगर पड़ौसी इतना प्रभावशाली होता कि उससे लड़ना कठिन होता, तो लड़के को आँचल से ढ़क कर रोने लगती। इस प्रकार कहीं जीभ चला कर, कहीं आँसू दिखा कर वह पड़ौसियों को हरा देती और अपने लड़के पर आँच न आने देती। परिणाम यह हुआ कि लड़का चोर बदमाश और क्रूर हो गया और जवानी के प्रारम्भ से ही वह रंडीबाज़ी भी करने लगा। उसकी प्यारी वेश्या से जब एक दूसरे आदमी ने सम्बन्ध जोड़ा तो इसने उस आदमी का और वेश्या का खून कर दिया। जब सरकार से उसे मृत्यु दंड मिला और अधिकारियों ने जब दंड देने के समय उसकी अन्तिम इच्छा जानना चाही, तो उसने माता से मिलने की इच्छा प्रकट की। जब माँ उससे मिलने आई तब उसने माँ की नाक काट ली और कहा अगर तूने मेरी छोटी अवस्था में ही मोह में भूलकर मुझे उद्दण्ड न बनने दिया होता, पड़ौसियों के उलाहनों का विचार करके मुझे सुधारा होता तो आज मेरी यह दशा न हुई होती।

इस प्रकार मोह से मोहनी का जीवन भी बर्बाद हुआ, दूसरों की भी हानि हुई और उसका प्यारा लड़का भी जान से गया। सन्तान से प्रेम और वात्सल्य रखना चाहिए, मोह नहीं। मोह से अपना भी नुकसान होता है और सन्तान का भी जीवन बर्बाद होता है।

—सत्यामृत से


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