वैराग्य और प्रेम

May 1942

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एक पुराना खयाल है कि “घर में प्रेम न करना चाहिये, स्त्री-बच्चों के प्रेम में फँस जाने से नरक मिलता है। “इस खयाल के अनुसार कई मनुष्य अपने ऊपर पड़े हुए गृहस्थ कर्तव्य को छोड़ कर भाग खड़े होते हैं और ईश्वर-भक्ति की रट लगाते हैं। कई नौजवान जो अपनी जिम्मेदारी निबाहने में नालायक साबित होते हैं, घर बार से मुँह मोड़ कर गेरुआ कपड़ा पहन लेते हैं और इधर-उधर भीख माँगते फिरते हैं। इनके आश्रित जो परिवार था, वह नाना प्रकार के कष्ट पाता हुआ बिलख-बिलख कर उन्हें कोसता है। पति रहित होकर स्त्री को अपमानित, अभावपूर्ण और अशान्तिमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है। योरोप जैसे देशों में ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देना किसी अंश तक बहुत बुरा नहीं है, क्योंकि वहाँ स्त्री को दुबारा घर बसा लेने के छूट है। किन्तु भारतवर्ष में हिन्दू धर्म के अनुसार जहाँ स्त्रियों को इस प्रकार की स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ उन्हें घुट-घुट कर मरने के लिये विवश करने वाला संन्यासी पति निश्चय ही प्रथम श्रेणी का अविवेकी है। स्वेच्छाचारिणी स्त्री को स्वतंत्र कर देना बात दूसरी है पर बेचारी अबला का एकमात्र अवलम्ब तोड़ देना बहुत ही बुरी बात है। इसी प्रकार जिन बालकों के भरण-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा का भार प्रभु ने सौंपा है, उस भार को एक ओर पटक कर ईश्वर की रट लगाने के लिए निकल पड़ना कैसी भक्ति है, यह समझ में नहीं आता। वृद्ध माता-पिता की सेवा, भाइयों की सहायता, स्त्री-पुत्रों का विकास, निकटवर्ती बान्धवों की सेवा यह सब त्याग कर धृष्टता पूर्वक गेरुए कपड़े पहन कर भिखारी बनने वाला व्यक्ति उस सेवक का उदाहरण बनता है जो अपने स्वामी के सौंपे हुए काम को तो तोड़-फोड़ कर चकनाचूर कर देता है और स्वामी का नाम जपने के लिए माला ले बैठता है। स्वामी किसी भी प्रकार उससे प्रसन्न नहीं हो सकता। भला ऐसे मूढ़ सेवक पर प्रसन्न हो भी कौन सकता है, जो कर्तव्य की तो कायरतापूर्वक उपेक्षा करता है और स्वामी को खुश करने की शेखचिल्ली जैसी अन्य युक्तियाँ सोचता है। रात को मालिक के घर की रखवाली के समय दुम दबाकर छिपा रहने वाला और दिन में मालिक के सामने दुम हिलाने वाला और पाँव चाटने वाला कुत्ता क्या कभी अपने स्वामी का प्रिय पात्र बन सकता है?

कि सी अत्यन्त महान कार्य को पूर्ण करने में गृह, कुटुम्ब, धन तथा प्राणों की बाजी लगा देना दूसरी बात है। विश्व सेवा का उच्चतम कार्य करने का किसी व्यक्ति में साहस हो और उस यज्ञ में आहुति देने के लिए अपनी प्राणप्रिय वस्तुओं को भी समर्पित कर देना दूसरी बात है। वह बहुत ऊँची और सराहनीय स्थिति है किन्तु साधारण जीवन बिताने में घर की अपेक्षा बाहर को महत्व देना, ईश्वर प्रेम के नाम आश्रित जनों को फाँसी पर टाँगना कायर-बुज़दिली, नपुँसकता और निकम्मेपन के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। ईश्वर ऐसा क्रूर और निर्दयी नहीं है जो मनुष्यों को यह आदेश करे कि तुम अपने साँसारिक उत्तरदायित्वों को छोड़कर मेरे सामने नाक रगड़ो।

ज्ञान से परिपूर्ण होकर मानसिक संन्यास ग्रहण करना और अपने जीवन को अधिक से अधिक लोगों की सेवा में लगा देना बहुत प्रशंसनीय कार्य है। ऐसी उच्चतम स्थिति जब परिपक्व हो जाय तो पके हुए फल की तरह डाली से टूट पड़ना सम्भव है। यही संन्यासी की दशा स्वाभाविक है। ऐसा संन्यासी बहुत काल पूर्व से अपनी साधना आरंभ करता है और अपने आश्रितों को मानसिक और भौतिक दृष्टि से ऐसा स्वावलम्बी बना देता है कि घर में रहने या घर छोड़ने में कुछ अन्तर नहीं रह जाता। उसे किसी कारणवश परिव्राजक बनना पड़े तो घर वालों को कष्ट नहीं होता। आवेश में आकर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर किसी समस्या को सुलझाने में असमर्थ होने पर, गेरुआ कपड़ा पहनकर भिखारियों की श्रेणी में मिल जाना न तो ईश्वरभक्ति है, न मुक्ति साधना है, न त्याग है और न संन्यास है। यह तो एक प्रकार की आत्महत्या ही कही जायगी।

यह पुराना खयाल कि घर में प्रेम न करना चाहिये, केवल इस बात का बोधक है कि पारिवारिक ममता में इतना लिप्त न हो जाना चाहिये कि परमार्थ का ध्यान भी न रहे। मोह और ममता का विस्तार होना घातक है। स्त्री-बच्चों में कभी-कभी इसकी अति देखी जाती है, इस अति पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये ही यह प्राचीन मत उपस्थित किया जाता है। वैराग्य, उदासीनता, निर्लिप्तता का भावार्थ मानसिक निष्काम भाव है। मन में विषयों का चिन्तन करता हुआ बाहर से त्याग का आडंबर करने वाला तो गीता के मत से मिथ्याचारी ही कहा जायगा। राजा जनक इतने बड़े योगी थे कि उनसे बड़े-बड़े ऋषि योगविद्या सीखने आते थे। गृहस्थ रह कर ही संन्यासी बनने का अभ्यास करना चाहिये। निष्काम भाव से कर्तव्य धर्म का पालन करते हुए निस्वार्थ प्रेम की स्थापना करनी चाहिये।

कर्तव्य भावना से प्रेम प्राप्त करने का हर प्राणी अधिकारी है, फिर यह कैसे उचित हो सकता है कि स्त्री-बच्चों के साथ सुस्नेह का परिचय न दिया जाय।


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