प्रेम किससे करें?

May 1942

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संसार में कोई बाहरी वस्तु ऐसी नहीं है, जिससे प्रेम करके सुख प्राप्त किया जा सके। नश्वर संसार की हर एक वस्तु प्रतिक्षण बदलती हुई अपने परिवर्तन के लिए बड़ी सरपट चाल से दौड़ी जा रही है। पञ्च भौतिक पदार्थ जड़ हैं, इनमें अपनी निजी चेतना न होने के कारण उत्तर देने की क्षमता नहीं है। दीवार से प्रेम किया जाय, तो वह इसके लिए न तो भला मानेगी न बुरा और न किसी प्रकार का उत्तर ही देगी। रुपया, पैसा, गाड़ी-मोटर, मकान, जायदाद आदि से प्रेम करना ऐसा ही है, जैसा दीवार से प्रेम करना। इन वस्तुओं में उत्तर देने की कोई शक्ति नहीं है और न वे आपके प्रेम-द्वेष की कुछ परवाह करती हैं। पञ्च-तत्व निरन्तर परिवर्तन चक्र पर तीव्र गति से घूम रहे हैं। पैसा आज आपकी जेब में है, पर वह दस दिन बाद न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचेगा। बढ़िया कपड़ा आज लिया है, वह कुछ महीने में जीर्ण-शीर्ण होकर नष्ट हो जायगा। संसार की एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो अधिक समय तक ठहर सके। देर सबेर में सब को पूर्ण रूप से बदल जाना है। आज का महल एक दिन खँडहर बने बिना न रहेगा। यदि इन वस्तुओं से प्रेम किया जाय, तो एक तो उधर से उत्तर न मिलने के कारण यह प्रेम एकपक्षीय और लँगड़ा रहेगा। दूसरे जब ये नाशवान् वस्तुएँ बदल जायेंगी, चली जायेंगी या नष्ट हो जायेंगी, तो उनके बिछोह का दुःख होगा। प्रेम में दुःख हो ही नहीं सकता। प्रेम तो आनन्द का अवतार है, जहाँ दुःख हो, वहाँ समझना चाहिए कि प्रेम के स्थान पर मोह का अड्डा जम गया है। जड़ पदार्थों से मोह ही हो सकता है और मोह का फल दुःख है। इसलिए समझना चाहिए कि उत्तर न देने वाली, परवाह न करने वाली, नष्ट होने वाली जड़ वस्तुएं हमारे प्रेम का पात्र नहीं बन सकती।

अब प्रश्न उठता है कि जीवित प्राणियों से प्रेम करना चाहिए? आमतौर से शरीरधारी प्राणियों के स्थूल शरीरों से ही स्नेह किया जाता है, किन्तु जिस कारण शरीरों से सम्बन्ध होता है वे कारण सदा स्थिर नहीं रहते, इसलिए स्नेह भी घट जाता है। युवक-युवती रूप-यौवन पर मुग्ध होकर एक दूसरे पर मरते हैं। जब जवानी ढल जाती है और बुढ़ापा आ घेरता है, तो यौवन की उन तरंगों का कहीं पता भी नहीं लगता। बालक माता का स्तनपान करता है और जीवन के लिए उस पर निर्भर रहता है, जैसे-जैसे उसके स्वार्थ माता के साथ कम होते जाते हैं, वैसे ही वैसे उसकी ममता भी घटती जाती है, अन्त में तरुण पुत्र अपनी वृद्धा माता की कुछ भी परवाह नहीं करता। न कमाने वाला पिता, निठल्ला भाई, असमर्थ मित्र, कुरूप और रुग्ण स्त्री किसे प्रिय लगते हैं। दूध देने वाली गाय, हल चलाने वाले बैल और सुन्दर घोड़े तभी तक प्रिय लगते हैं जब तक कि वे समर्थ हैं, असमर्थता आते ही उनसे पीछा छुड़ाने को जी चाहता है। जीवित प्राणियों के शरीरों से प्रेम करने में एक और व्यथा है कि जिन शरीरों से मोह बन्धन अधिक बँध जाता है, उनके विछोह पर बड़ी मर्मान्तक पीड़ा होती है। जिन्हें अपने प्रिय पात्रों का चिर बिछोह सहना पड़ा है, अपने कलेजे की हूक का अनुभव वही कर सकते हैं। विचारणीय बात है कि यदि प्राणधारियों के शरीरों से प्रेम करना उचित है, तो फिर उसमें यह विक्षेप क्यों उत्पन्न होता है असल में जिस प्रकार अन्य जड़ पदार्थ हैं, उस प्रकार प्राणियों के शरीर भी पंचभूतों से बने हैं। इनमें भी कोई पदार्थ ऐसा स्थिर और चैतन्य नहीं है, जो आत्मा का प्रेम पात्र बन सके।

बाहर का जड़ जगत् का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो तत्वतः प्रेम का अधिकारी हो। स्वभावतः बाहरी वस्तुओं से मोह हो सकता है; प्रेम नहीं। जड़ और चैतन्य का कोई जोड़ा नहीं। दोनों की भिन्नता हो ही नहीं सकती! प्रेम की ज्योति जगमगा रही है। उसे ही जागृत करके हम अपने अन्दर प्रेम की सरिता बहा सकते हैं। यह जानना चाहिए कि परमात्मा कोई पृथक वस्तु नहीं है। आत्मा के उच्चतम दशा में पहुँचकर जैसे सत् चित् आनन्द स्वरूप बन सकते हैं, जैसे महान् समर्थ, विशाल अन्तःकरण वाले उदार बन सकते हैं उस अपनी सर्वोच्च स्थिति की कल्पना ही ईश्वर है। अपने इस महान तथा विकसित रूप, जिसे आमतौर से ईश्वर के नाम से पुकारा जाता है, से ही प्रेम करना योग्य है। ईश्वर प्रेम का तात्पर्य यह है कि हम अपने वर्तमान अव्यवस्थित जीवन और उस ध्येय जीवन के बीच में एक ऐसी चुम्बक शृंखला बाँधते हैं जो दिन-दिन इन दोनों के बीच का अन्तर घटाती जाती है और अन्त में दोनों को मिलाकर एक कर देती है-आत्मा को परमात्मा बना देती है।

परमात्मा से प्रेम करना, अपने आत्मा से प्रेम करना ही सर्वश्रेष्ठ है, इसमें कभी किसी प्रकार का बिछोह, विकार या विरोध उत्पन्न नहीं होता। दिन-दिन यह बढ़ता जाता है और अन्त में मनुष्य सच्चा प्रेमी, सच्चा ईश्वर भक्त बन जाता है। सच्चा ईश्वर भक्त का रोम रोम प्रेम से परिपूर्ण हो जाता हैं, उसके मन वचन कर्म से प्रेम टपकता रहता है। क्योंकि उसके भीतर बाहर प्रेम ही प्रेम तो भरा हुआ है। देखने वाले देखते हैं कि वह हर प्राणी पर स्नेह की वर्षा कर रहा है त्याग और सेवा के लिए अपरिचित के साथ भी वैसे ही तत्पर रहता है मानो यह उसके सगे संबंधी हों। दूसरों का कष्ट देखकर उसकी आंखों में दया का झरना उमड़ पड़ता है। मोटी दृष्टि से देखने वाले समझते हैं कि यह व्यक्ति दूसरे लोगों से बड़ा भारी प्रेम रखता है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि वाले देखते हैं कि ईश्वर भक्त को किसी जड़ पदार्थ से ममता नहीं है, उसके अन्तर में जो अगाध प्रेम भरा हुआ है, उसको छूकर बाहर आने वाली बयार में वह गंध आती है। हमें आत्मा से प्रेम करना चाहिए, परमात्मा का भक्त बनना चाहिए, इसी से सच्चे प्रेमी बन सकते हैं और प्रेम का अमृत रस चखते हुए आत्मा की प्यास बुझाकर उसे तृप्त कर सकते हैं।


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