विश्व बन्धुत्व का उपदेश

May 1942

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(वेद का अमर सन्देश)

मित्रस्यमा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे।

यजु. 36।18

मुझे प्राणिमात्र मित्र की दृष्टि से देखें। अर्थात् कोई भी प्राणी मेरे से द्वेष न करे। वे मुझे मारें नहीं। मेरी मृत्यु से रक्षा करें, इसी प्रकार मैं भी प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखूँ।

समानी प्रपा सहवोऽन्भागः समाने योषत्रे सहवो युनाज्मि। सम्यंचोऽग्नि सपर्य्यतारा नाभिमिवा भितः।

अथर्व 3।30।6

अर्थ- तुम्हारा पानी पीने का स्थान एक हो, अन्न का भोजन साथ-साथ हो, मैं तुम्हें एक साथ एक ही बन्धन में जोड़ता हूँ। जिस प्रकार पहिये की नाभि में आरे जुड़े होते हैं उसी पर आपस में मिलजुलकर परमेश्वर विद्वान ज्ञानी गुरु और यज्ञाग्नि की सेवा करो।

येन देवा न वियन्ति नोच विद्विषते मिथः। तत्कृण्मो ब्रह्मवोगृहे सन्तानं पुरुषेम्यः

अथर्व 3।30।4

जिस ज्ञान को प्राप्त करके विद्वानगण परस्पर विरोध, लड़ाई-झगड़े नहीं करते और नहीं परस्पर ईर्ष्या द्वेष ही करते हैं ऐसे उस ब्रह्मज्ञान को तुम्हारे घरों में पुरुष मात्र के लिए भेंट करते हैं।

यथा नः सर्व इज्जनोऽनमीवः संगमें सुमना असत्। यजु 33। 86

हम सब का व्यवहार इस तरह का हो कि जिससे सबके सब मनुष्य हमारे संग में रोग रहित होकर, उत्तम मान वाले, हमारे प्रति सद्भाव करने वाले हो जावें।


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