प्रेम की प्राप्ति

May 1942

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(श्री जगन्नाथ राव नायडू, नागपुर)

अनादि काल से अज्ञानावृत रहने के कारण जीव की स्वाभाविक रुचि ऐसी हो गई है कि वह सदैव घृणास्पद बातों को ही सोचा करता है। जिस समय चेतन (जीव) को ज्ञानरूप स्पर्शमणि का संसर्ग प्राप्त होता है, उस समय उसके अन्तःकरण में विप्लव सा हो जाता है। जीव के जन्म-जात संस्कार विरोधी संस्कारों से लड़ने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि साधक अपने को साधन शून्य देखकर घबड़ा जाता है। साधन में प्रवृत्त होना कठिन कार्य है। उनमें प्रवृत्त होने के पूर्व साधक को सत्संग के उसकी अपने साध्य में रुचि नहीं हो सकती। आवश्यकता है साध्य के प्रति रुचि तैयार करने की। जब रुचि तैयार हो जायगी, तो चाहे कितना हो दुःसाध्य साधन क्यों न हो, साधक घबड़ा नहीं सकता। मुझ से लोग प्रायः पूछा करते हैं कि बाबा साधन बताओ। मेरी समझ में नहीं आता कि वे दूसरे से साधन की बात क्यों पूछते हैं। जीव भगवान का कृपा पात्र अंश है, उसमें अनन्त शक्ति है। जिस प्रकार अज्ञान में उसने अपने आप प्रवेश किया है, उसी प्रकार ज्ञान में भी वह अपने आप प्रवेश कर सकता है, ज्ञान-ध्यान की बात किसी से पूछ कर नहीं जानी जाती, यह निरन्तर सत्संग से ही प्राप्त होती है। प्रारम्भ में निरन्तर सत्संग करते रहना चाहिये, साथ में भगवतनाम का जप भी आवश्यक है। भगवान के नाम की कृपा से जीव का अज्ञान नष्ट होता है और हृदय के स्वच्छ होते ही दिव्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है। यह प्रेम ही नामामृत, रूपामृत और लीलामृत का आस्वादन कराता है। प्रेम ही साध्य है और सत्संग ही साधन है, सत्संग के द्वारा आत्यन्तिक निवृत्ति तो होती ही है, साथ ही दिव्य भगवदीय प्रेम की प्राप्ति भी हो जाती है।


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