अनर्थ, स्वार्थ और परमार्थ।

May 1942

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हम देखते हैं कि दुनिया में स्वार्थ सर्व-प्रधान है। हर प्राणी सब से पहले अपने स्वार्थ को प्रधानता देता है, कोई व्यक्ति उस काम को करने के लिए तैयार नहीं होता, जिसमें उसे कुछ लाभ न हो। छोटे से लेकर बड़े तक जो भी काम हम करते हैं, पहले उसमें लाभ हानि का विचार कर लेते हैं तदुपराँत उसे करते हैं, मूर्ख से मूर्ख भी यह समझ कर किसी काम में हाथ न डालेगा कि इससे मुझे हानि होगी। सच तो यह है कि स्वार्थ की ऐसी बहुमूल्य कसौटी परमात्मा ने हमें दी है जिस पर कस कर हम जान लेते हैं कि कौन काम खरा है, कौन खोटा है? किसे करना चाहिये किसे न करना चाहिए। स्वार्थ जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता है, इसलिए उसका सदैव ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है।

पाठकों को यहाँ संदेह उत्पन्न हो सकता है, यदि स्वार्थ इतनी ही उत्तम वस्तु है तो उसे बुरा क्यों कहा जाता है, स्वार्थी से घृणा क्यों की जाती है, स्वार्थ परायण को धिक्कारा क्यों जाता है? हमें जानना चाहिए कि लोक और वेद में जिस स्वार्थ की निन्दा की गई है उसका नाम यथार्थ में ‘अनर्थ’ होना चाहिए। पूर्व आचार्यों ने विशुद्ध स्वार्थ को परमार्थ के नाम से पुकारा है। यह परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ है। अनर्थ को स्वार्थ कहना भूल है, क्योंकि वास्तविक अर्थों में परमार्थ से ही स्वार्थ की पूर्ति होती है। अनर्थ को अपनाना तो आत्मघातक है, इसे किसी दृष्टि से स्वार्थ नहीं कहा जा सकता है।

स्वार्थ के दो भेद किये जा सकते हैं। एक अनर्थ दूसरा परमार्थ। एक किसान खेत को बड़े परिश्रम से जोतता है, रुपया खर्च करके गेहूँ लाता है और उस गेहूँ को मिट्टी में मिला देता है। इसके बाद महीनों उस खेत को सींचता रहता है। और रखवाली करता है। करीब एक वर्ष तक उसे निरन्तर उस खेत में कुछ न कुछ लगाना पड़ता है, कभी हल खरीदना पड़ा, कभी फावड़ा, कभी बैल लिये, कभी चरस लिया, नराई, निकाई आदि में परिश्रम लगा और निरन्तर चिंता करनी पड़ी, उसका ध्यान रखना पड़ा सो अलग। यह किसान परमार्थी है; वह जानता है कि इस समय जो त्याग कर रहा हूँ उसका बदला कई गुना होकर मुझे मिलेगा। सचमुच उसकी मेहनत अकारण नहीं जाती। खेत में एक दाने के बदले हजार दाने पैदा होते हैं, किसान प्रसन्न होता है और अपनी परमार्थ बुद्धि की प्रशंसा करता है। एक दूसरा किसान परमार्थ पसन्द नहीं करता, वह सोचता है कल किसने देखा है। आज का फल आज न मिले तो परिश्रम क्यों किया जाय? वह अपने गेहूँ को खेत में डालने से झिझकता है, कल पर उसका विश्वास नहीं, आज के गेहूँ की आज ही रोटी बना कर खा लेता है, खेत खाली पड़ा रहता है, फसल नहीं उगती, कटाई के समय जब परमार्थी किसान के कोठे अन्न से भर रहे हैं, यह बैठा-बैठा सिर धुनता है, वह अपने बीज को बोने से पहले ही खा चुका, अब उसे कुछ भी नहीं मिलने वाला है। आप समझे होंगे कि परमार्थ का मतलब कल की बात सोच कर आज का काम करना है और अनर्थ का मतलब कल की भलाई-बुराई का विचार छोड़कर आज के लिए आज का काम करना है।

वर्तमान के लिए भविष्य को भुला देने की नीति अनर्थ मूलक है। एक चटोरा व्यक्ति वर्तमान समय के स्वाद में लिप्त होकर जरूरत से ज्यादा खा जाता है, कुछ समय बाद पेट में दर्द शुरू होता है, डॉक्टर आता है, जितना लोभ किया था उससे अधिक खर्च हो जाता है। एक कामी पुरुष किसी तरुणी पर मुग्ध होकर अमर्यादित भोजन करता है, कुछ ही समय उपरान्त वीर्य रोगों से ग्रसित हो जाता है। इसके विपरित एक व्यक्ति जिह्वा पर संयम रखता है, कल की बात सोच कर आज के चटोरेपन को दूर हटा देता है, उसका मर्यादित भोजन स्वस्थ रहने और दीर्घ जीवन जीने के लिए सहायता करता है। इसी प्रकार एक ब्रह्मचारी गृहस्थ नियत मर्यादा में रति संयोग करता है, वह निरोग रहता है, बलवान संतान प्राप्त करता है और पुरुषत्व को सुरक्षित रखता है। पहले दो असंयमी व्यक्ति दुःखी होंगे, क्योंकि वे आज के लोभ में कल की बात भुला देते हैं। इसके विपरीत पिछले दो व्यक्ति आनन्द करते हैं, क्योंकि वे कल के लिए आज का काम करते हैं।

“हमें तो अपने मतलब से मतलब” की नीति को अपनाने वाले लोगों को स्वार्थी कहकर घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। वास्तव में वे स्वार्थी नहीं अनर्थी हैं, क्योंकि वे वास्तविक स्वार्थ को भूल गये हैं और सत्यानाशी अनर्थ को अपनाये हुए हैं। जो व्यक्ति पड़ौस में हैजा फैल जाने पर उसे रोकने का प्रयत्न नहीं करता, जो व्यक्ति समाज में दुष्टता उत्पन्न होने पर उसे रोकने के लिए नहीं उठता, जो व्यक्ति गाँव में लगी हुई आग को बुझाने की कोशिश नहीं करता, जो व्यक्ति असहायों की सहायता नहीं करता, वह केवल अनर्थ करता है। क्योंकि मुहल्ले का हैजा उसके घर में घुस कर बेटे की जान ले लेगा, फैली हुई दुष्टता उसकी खुद की छाती पर चढ़ कर एक दिन खून पीने के लिए तैयार हो जायगी, गाँव में लगी हुई आग कुछ घंटों बाद अपने छप्पर में आ पहुँचेगी, असहायों का शेष एक दिन राक्षस रूप धर कर अपनी डाढ़ों से हमारी शाँति को पीसने लगेगा। इस प्रकार “अपने मतलब से मतलब” रखने की लाला शाही नीति यथार्थ में धैर्य की नहीं, अनर्थ की नीति है। यह अनर्थ एक दिन उन्हें ले बैठता है। सिर्फ आटे की गोली को ही देखने वाली मछली अपनी जान से भी हाथ धो बैठती है।

पाप, दुष्कर्म, लालच, भोग आदि में तुरन्त ही कुछ आकर्षण और लाभ दिखाई पड़ता है, इसलिए लोग कबूतर की तरह दाने प्राप्त करने के लिए उनकी ओर दौड़ पड़ते हैं और जाल में फँस कर दुःसह दुख सहते और रोते चिल्लाते रहते हैं, किन्तु धैर्यवान पुरुष शुभ कर्मों में प्रवृत्त होता है और किसान की तरह आज कष्ट सहकर कल के लिये फसल तैयार करता है। वास्तव में पूरा पक्का स्वार्थी वह व्यक्ति है, जो हर काम को भविष्य के परिणाम के अनुसार तोलता है और धैर्य एवं गंभीरता के साथ उत्तमोत्तम कर्म करता हुआ अपने लोक और परलोक को उज्ज्वल बनाता है, इसे परमार्थी कहा जाता है। अविवेकी और मूर्ख वह है जो क्षणिक सुख की मृग-तृष्णा में भटकता हुआ इस लोक में निन्दा और परलोक में यातना प्राप्त करता है। यह स्वार्थ नहीं अनर्थ है। हम में से हर एक को यह बात भली-भाँति हृदयंगम कर लेनी चाहिए कि सच्चाई स्वार्थ में है। अनर्थ का तात्पर्य तो आत्महत्या ही हो सकता है। कुत्ता सूखी हड्डी को चबाता है, उसकी रगड़ से अपने मसूड़े में से जो खून निकलता है उसको पीकर समझता है कि मुझे इस हड्डी में से रक्त प्राप्त हो रहा है। अनर्थ की नीति को अपनाने वाले अपने मुँह में से खुद खून निकाल कर पीते हैं और उसमें प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। अपने रक्त पान का यह अनर्थ भी भला कोई स्वार्थ है? हमारा कर्तव्य है कि अनर्थ और परमार्थ का भेद पहचानते हुए सच्चे स्वार्थ को अपनावें।


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