अकबर के प्रधान सेनापति बैराम खाँ एक लड़ाई में बुरी तरह हार गये, उनकी सारी फौज तितर-बितर हो गई। बैराम खाँ भी जान बचाकर अपने साथी अब्दुल कासिम के साथ भागे।
दुश्मन के सिपाही इन दोनों को पकड़ने के लिए जी तोड़ कर कोशिश कर रहे थे। आखिर उन्होंने एक स्थान पर घेरकर इन दोनों को पकड़ लिया। सिपाही बैराम खाँ को मारना चाहते थे। परन्तु दोनों की शक्लें मिलती-जुलती होने के कारण वे ठीक-ठीक पहचान न कर सके। उन्होंने पूछा तुम में से बैराम खाँ कौन है। बैराम खाँ ने तुरन्त उत्तर दिया—मैं बैराम खाँ हूँ मुझे मार डालो।
अब्दुल कासिम ने सोचा सच्ची मित्रता प्रकट करने का यही अवसर है, उसने कड़ककर बैराम खाँ से कहा—क्यों रे गुलाम! तेरी इतनी हिम्मत, खबरदार अब अपने को बैराम खाँ कहा तो तेरी खैर नहीं। तू मेरी जान बचाने के लिये अपने को बैराम खाँ बता रहा है, पर मैं अकबर का प्रधान सेनापति होकर ऐसा अपमान नहीं सह सकता कि एक नाचीज सिपाही अपने को बैराम खाँ बतावे। तू मेरी जान बचाने के लिये झूठ बोल रहा है, पर मैं यह नहीं सुन सकता कि तू सेनापति है और मैं मामूली सिपाही हूँ।
बैराम खाँ कुछ कहने ही वाला था कि दुश्मन के सिपाहियों ने उसे एक तरफ धकेल दिया, उन्हें विश्वास हो गया कि यह कड़क कर बोलने वाला ही सेनापति है, उन्होंने तलवार से अब्दुल कासिम का सिर काट डाला और बैराम खाँ को छोड़ दिया।
सच्चे मित्र अपने मित्र को विपत्ति में से छुड़ाने के लिए ऐसे ही आत्मत्याग का परिचय देते हैं।