प्रेम की पाठशाला

May 1942

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आप प्रेमी बनना चाहते हैं, तो पवित्र प्रेम का अभ्यास पहले अपने घर से आरम्भ कीजिए। प्रेम की प्रारम्भिक पाठशाला अपना घर ही हो सकता है। घर से समस्त स्त्री-पुरुषों, बालक-बालिकाओं से निःस्वार्थ प्रेम करिए। फिर देखिये कि बदले में कितना अधिक प्रेम आपको प्राप्त होता है।

जानना चाहिए कि प्रेम का अर्थ है त्याग और सेवा। आप घर के हर व्यक्ति के पक्ष में अपने स्वार्थों को छोड़िए और जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता है, उसे वह प्रदान कीजिए। वृद्ध जन आप से शारीरिक सेवा चाहते हैं, बालक आप के साथ हँसना-खेलना चाहते हैं, भाइयों को आपका आर्थिक सहयोग चाहिए, स्त्री को आपके स्नेहपूर्ण वार्तालाप की आवश्यकता है। जो जिस वस्तु को चाहता है, उसे वह प्रदान कीजिए, परन्तु ध्यान रखिए प्रेम कोई व्यापार नहीं है। एक हाथ से देकर दूसरे हाथ से माँगने की नीति प्रेमी को शोभा नहीं दे सकती। वृद्धजनों से आप आशा मत करिए कि वे आप की प्रशंसा करें ही। न भाइयों से यह चाहिए कि कमाऊ होने के नाते आप को कुछ अधिक महत्व दें। स्त्री यदि आप की इच्छानुकूल शुश्रूषा करने में असमर्थ है, तो उस पर झुँझलाइए मत, क्योंकि आप प्रेमी बनने जा रहे हैं। प्रेमी देकर माँग नहीं सकता।

दुनिया में सारे झगड़ों की जड़ यह है कि लोग देते कम हैं और माँगते ज्यादा हैं। हमें चाहिए यह कि दें बहुत और बदला बिलकुल न लेंगे या बहुत कम पाने की आशा रखें। यह नीति ग्रहण करते ही हमारे आस-पास के सारे झगड़े मिट जाते हैं। प्रेमी त्याग करता है—उस का त्याग बेकार नहीं जाता, वरन् हजार गुना होकर लौट आता है। झगड़ा करने पर जितना बदला मिलता है, उससे अनेक गुना उसे बिना माँगे मिल जाता है। कदाचित् कुछ कम भी मिले,तो प्रेम से उत्पन्न होने वाले आन्तरिक आनन्द के मुकाबले में वह कमी नगण्य है। निरन्तर देते रहने का स्वभाव जिन के हृदयों में स्थान कर लेता है, वह जानते हैं कि स्वर्गीय निर्धन आत्मायें हर्षान्दोलित करने में कितनी समर्थ हैं। त्याग की दैवी वृत्तियाँ हमारे आस-पास के वातावरण को स्वर्गीय सम्पदाओं से भर देती हैं।

त्याग के साथ-साथ सेवा भी होनी चाहिए। जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उसे वही दी जाय। कौन क्या चाहता है, इसके आधार पर यह निर्णय नहीं हो सकता कि उसे वही वस्तु मिलनी चाहिए। सन्निपात का रोगी मिठाई माँगता है, पर मिठाई देना तो उससे दुश्मनी करना है। आप का कोई प्रिय-जन कुमार्ग पर चलता है और उस दुष्कर्म की पूर्ति में आप को सहायक बनाना चाहता है। यदि आप उसकी सहायता करने लगे, तो यह उसके साथ एक भयंकर अपकार होगा। आप को सुयोग्य सिविल सर्जन की तरह यह जाँच करनी होगी कि उसे वास्तव में क्या कष्ट है और उसका उपचार किस प्रकार करना चाहिए। हैजे की बीमारी में बड़ी भारी प्यास लगती है, पर सुयोग्य डॉक्टर बीमार को मनमानी मात्रा में पानी नहीं पीने देता। हो सकता है कि रोगी उस समय डॉक्टर से नाराज हो और उसके साथ अभद्र व्यवहार करे पर डॉक्टर प्रेमी है, इसलिए वह तात्कालिक प्रतिक्रिया की ओर खयाल नहीं करता और रोगी के दीर्घकालीन हित को अपने मन में रखता हुआ अपना कार्य आरम्भ करता है।

घर के जिन लोगों की मनोभूमि में जो त्रुटि देखें वह दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहें। त्याग वृत्ति से उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयत्न करें, पर कैंची से काट छाँट कर इन पेड़ों को सुरम्य बनाने का प्रयत्न करने में भी न चूकें, अन्यथा यदि उनकी कुभावनाओं को सिंचन मिलता रहा; तो वे एक दिन बड़े विकृत और कटीले झाड़ बन सकते हैं। प्रेम के दो अंगों को पूरी तरह हृदयंगम कीजिए—त्याग और सेवा, दान और सुधार। खेती को पानी की जरूरत है, पर नराई की भी कम आवश्यकता नहीं है। दोनों काम एक दूसरे से कुछ विपरीत जान पड़ते हैं, सहायता और सुधार का एक साथ मेल मिलता नहीं दीखता, यह कार्य बड़ा कठिन प्रतीत होता है, इसलिए प्रेम करना तलवार की धार पर चलना कहा गया है। प्रेमी का तलवार की धार पर चलना पड़ता है।

बच्चा अपने घर के आँगन में कला खेलना सीखता है। आप अपने परिवार में प्रेम की साधना आरम्भ कीजिए। शिक्षा और दीक्षा से अपने प्रियजनों के अन्तःकरणों में ज्ञान की ज्योति जलाइये, उन्हें सत् असत् का विवेक प्राप्त करने में सहायता दीजिए, परन्तु सावधान, यह कार्य गुरु की तरह आरम्भ न किया जाय, अहंकार का इसमें एक कण भी न हो, वरन् सेवा का दूध अहंकार की खटाई से फट जायगा। अहंकार पूर्वक उपदेश करेंगे, तो तिरस्कार और उपहास ही हाथ लगेगा। इसलिए जिसमें जो सुधार करना हो वह विनयपूर्वक उसे सलाह देते हुए कहिए या करिए। “धीरे धीरे, बार बार और सद्भावना से” ढाक को चन्दन और कौए को हंस बनाया जा सकता है। “अपने लिए कम और दूसरे को ज्यादा” इस नीति से भेड़ियों को कुत्ता और गधों को गाय बनाया जा सकता है।

आप प्रेम की महान साधना में प्रवृत्त हो जाइए! त्याग और सेवा को अपना साधन बनाइये, आरम्भ अपने घर से कीजिए। आज से ही अपनी पुरानी दुर्भावनाएं मन के कोने 2 में ढूंढ़ कर निकालिए और उन्हें झाड़ बुहार कर दूर फेंक दीजिए। प्रेम की उदार भावनाओं से अन्तःकरण को परिपूर्ण कर लीजिए और सगे सम्बन्धियों के साथ त्याग एवं सेवा का व्यवहार करना आरम्भ कर दीजिए। कुछ ही क्षणों के उपरान्त आप एक चमत्कार हुआ देखने लगेंगे। आप का यही छोटा सा परिवार जो आज शायद कलह-क्लेशों का घर बना हुआ है, आप को सुख शान्ति का स्वर्ग दीखने लगेगा। आपकी प्रेम भावनाएं आस-पास के लोगों से टकराकर आपके पास ही लौट आवेंगी और वे आनन्द के भीने-भीने सुगन्धित फुहार से छिड़क कर प्रेम के रंग में सराबोर कर देंगी। प्रेम की पाठशाला का आनन्द अनुभव कर के ही जाना जा सकता है। विलम्ब मत कीजिए, आज ही आप इसमें भर्ती हो जाइये।


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