ईमानदारी का फल

May 1942

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री सोमनाथ जी नागर, मथुरा)

मनुष्य जीवन को ऊँचा और प्रभावशाली बनाने के लिए ईमानदारी का दृढ़ता से पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। नेकनीयत मनुष्य में ईश्वरीय गुणों का समावेश होता है, उसका संतोष उसका सदा सहायक रहता है। नरपतराम जाति का वैश्य था, वह कुसंग से कोसों दूर रहना ही पसन्द करता था। खेती करके अपना निर्वाह करता था। एक बार उस प्रान्त में सूखा पड़ जाने से अन्न पैदा नहीं हुआ, अतः उसने परदेश जाकर नौकरी करने का निश्चय किया। बाल-बच्चों के निर्वाह का उचित प्रबन्ध करके वह चल दिया। अनेक नगरों में नौकरी ढूँढ़ी, परन्तु उसको उसकी इच्छानुसार ईमानदार मालिक नहीं मिला। उसने निश्चय किया कि नौकरी उसी के यहाँ करूंगा, जिसने कभी दूसरे की आँख में धूल न झोंकी हो।

जब उसे कोई अपने यहाँ नौकरी की जगह बतलाता तो वह उससे सवाल करता- क्या आपका ईमान अभी तक साबित है? लोग हँसते, पागल बतलाते और कहते-वाह! नौकरी करने चला है और ईमानदारी ढूंढ़ता है, थोड़ा बहुत तो सभी झूठ बोल जाते हैं या चोरी करते हैं। अन्त में पिछले तीन व्यक्तियों में से एक ने कहा भाई! वैसे तो मैं सदा सत्य बोलता रहा और पूरा तोलता रहा, किन्तु एक बार एक ग्राहक से भूल में चार पैसे अधिक वसूल किये और वह सारे उपयोग में आ गये, वहीं हमारा ईमान समाप्त हो गया। दूसरे ने कहा कि भाई! मैंने तो ईमानदारी पर ध्यान रक्खा, परन्तु कुछ समय तक अपने पड़ौसी की रक्खी हुई बुहारी में से नित्य ही भोजन के बाद दाँत कुरेदने को उस से बिना पूछे सींक ले लेता था, तभी मेरे ईमान में दाग लग गया। ‘सींक चोर सो पहाड़ चोर’ कहावत के अनुसार मैं ईमानदार नहीं हूँ। तीसरे साहूकार ने कहा-भाई! तुम मेरे यहाँ नौकरी करो, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मेरा ईमान अखण्ड है। अभी तक ईश्वर की कृपा से सत्य का पालन करता रहा हूँ। नरपतराम राजी हो गया। खुराक और एक रुपया महीना पर उसकी दुकान पर रहने लगा। कुछ दिन पीछे एक साहूकार उसके देश का वहाँ व्यापार करता हुआ आया, उससे घर के कुशल समाचार लेकर अपने कुशल पत्र के साथ वेतन में मिला हुआ एक रुपया अपनी स्त्री को देने के लिए दे दिया। साहूकार वहाँ से रवाना होकर एक राजधानी में गया, वहाँ मालूम हुआ कि राजा की कन्या बीमार है और औषधि के लिये पेठे के फल की जरूरत है, इस देश में पेठा मिलता नहीं। साहूकार ने नरपतराम के रुपये से मार्ग में ही एक पेठा खरीद कर रख लिया था। वह पेठा उसने राजा के पास भेज दिया। उसके बदले पुरस्कार में राजा ने दो हजार रुपये साहूकार के पास भिजवा दिये। वे रुपये साहूकार ने नरपत के पास भिजवा दिये। वे रुपये साहूकार ने नरपत के नाम जमा कर लिये, घर आकर वह रकम नरपत की स्त्री को सौंपने लगा, किन्तु वह डरी कि साहूकार कहीं कोई जाल तो नहीं फैलाता है, किन्तु साहूकार ने सब वृत्तान्त कह कर उसे विश्वास दिलाया और उस रुपये से उसका मकान बनवाया और उसके बच्चों के पढ़ने और निर्वाह का प्रबंध कर दिया। आनन्द के साथ एक वर्ष व्यतीत हुआ। नरपत भी नौकरी से छुट्टी लेकर घर को आया तो अपनी झोंपड़ी के स्थान में पक्का मकान खड़ा हुआ देख सुदामा की भाँति चकित रह गया और अपनी स्त्री को सुन्दर वेश-भूषा में देखकर भी संदेह में पड़ा, जब उसे सब कथा सुनाई गई, तब उसे भगवान सत्यनारायण के चमत्कार पर अटल विश्वास हुआ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118