प्रेम से मुक्ति

May 1942

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

क्या आपने कभी सोचा है कि मल-मूत्र की इस गठरी में बँधने के लिए यह सत्य, शिव, सुन्दर आत्मा क्यों रजामन्द हुआ? जन्म-मरण की इस दुखदायी ग्रन्थियों में उलझकर नाना प्रकार की यातनाएं सहने के लिये वह क्यों तत्पर हो गया? सुनिए, हड्डियों की इस अपवित्र ठठरी में बँधने के लिए वह इसलिये तैयार हुआ कि परमात्मा की पुण्य सृष्टि में प्रेम जो अमृत हिलोरें ले रहा है, उसका रसास्वादन करूं। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को दौड़ती हैं, कान मधुर संगीत सुनना चाहते हैं, आँखें सुन्दर दृश्य देखना चाहती हैं, जिह्वा सुस्वादु भोजन चाहती है, स्पर्शेंद्रिय स्पर्श सुख चाहती है। इसी प्रकार आत्मा का भी एक विषय है, वह प्रेम के अमृत में गोते लगाकर अविरल आनन्द लूटना चाहती है। इसीलिये तो यह स्वर्ग अपवर्गों के सुख को छोड़कर इस भूलोक में अवतार लेती है। रीछ अपनी झाड़ी में से बाहर तब निकलता है, जब उसे शीतल वायु का आनन्द लाभ करने की इच्छा होती है, सर्प अपने बिल से बाहर ओस चाटने के लिए आता है, कोयल बसंत सुख लूटने आती है, खञ्जन पक्षी शरद ऋतु में देखे जाते हैं। उद्भिज जीव वर्षा ऋतु में प्रकट होते हैं, अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए ही हर कोई प्रेमी प्रकट होता है। आत्मा का भोजन प्रेम है। मछली जल में प्रसन्न रहती है, आत्मा का आनंद प्रेम में है। ईश्वर के राजकुमार अपने पिता के राज्य का सौंदर्य देखने के लिये भ्रमण करते हैं, प्राणधारी आत्मायें, परमात्मा की सृष्टि का प्रेम सौंदर्य निहारने आती हैं और इच्छित वस्तु को प्राप्त कर लेने पर अपने स्वस्थान को लौट जाती हैं।

हमारा जीवन बड़ा ही ऊबड़-खाबड़ अनिश्चित बेढंगा संघर्षमय, विपत्ति और असुविधाओं से घिरा हुआ, कष्टपूर्ण, श्रमसाध्य एवं अस्थिर है। यदि इसके अन्तरंग में कोई सुदृढ़ पृष्ठभूमि न होती तो सचमुच हमारा जीवन घृणित, व्यर्थ एवं त्याज्यनीय बन जाता है। कितने ही प्राणी ऐसा जीवन जीते हैं जिसकी अपेक्षा आत्महत्या सुखद है, किन्तु जीवन की समस्त बाधाएं विपत्तियों के बीच एक स्थिर आकर्षण है, जो जीव और जीवन को चुम्बक जैसे खिचाव से जकड़े रहता है। यह स्थिर सत्य है-’प्रेम’। प्रेम हमारे जीवन का मेरु-दण्ड है जिसके आधार पर संसार में ठहरना और समस्त कार्य-कला का वहन करना संभव हो सका है। प्राणी की मनोभूमि की जरा कल्पना तो कीजिए, जिसका अन्तःकरण प्रेम से सर्वथा शून्य है। ऐसी कल्पना यदि किसी प्राणी की मनोभूमि के बारे में की जा सके तो वह ग्रीष्म ऋतु की दोपहरी में धधकती हुई दावानल जैसी अनुभव होगी, जिसमें अपने को और दूसरों को भस्म कर देने का ही एकमात्र गुण होगा।

खूँखार हिंसक पशु भी प्रेम से रहित नहीं हैं, वे अपने बच्चों से कितना प्यार करते हैं, दम्पत्ति में कितना प्रेम होता है। डाकू , हत्यारे, चोर, व्यभिचारी भी किन्हीं अंशों में प्रेम के बिन्दु चाटते रहते हैं। अन्यथा वे विस्फोटक बम और तोप के गोले जैसे ही सर्वभक्षी बन जाते। किसी प्राणी में किन्हीं अन्य गुणों का अभाव होना संभव है पर यह हो नहीं सकता कि उसके अन्तःकरण में किसी के लिए कुछ भी प्रेम न हो। जैसे आग का गुण उष्णता है उसी प्रकार आत्मा का गुण प्रेम है। अविद्या की अँधेरी रात्रि में भी प्रेम के प्रकाश की कुछ किरणें विद्यमान रहती हैं, चाहे वे कितनी ही धुँधली और न्यून क्यों न हों।

निस्संदेह आत्मा प्रेममय है। उसे सुख अपने विषय में ही प्राप्त होता है। मछली को पानी में आनन्द है, इसके अतिरिक्त अन्य कहीं चैन नहीं। प्राणी का मन तब तक शान्ति लाभ नहीं कर सकता जब तक कि वह प्रेम में निमग्न न हो जाय। जब तक प्यास नहीं बुझती तब तक हम इधर-उधर भटकते हैं और जब ठंडा शीतल जल भर पेट पीने को मिल जाता है तो चित्त ठिकाने आ जाता है संतोष लाभ करके एक स्थान पर बैठ जाते हैं। सर्प का जब पेट भर जाता है तो वह अपने बिल में प्रवेश कर जाता है, बाहर घूमने की उसे कुछ जरूरत नहीं रहती, सीप समुद्र के ऊपर उतराती फिरती है, पर जब स्वाति की बूँद उसमें पड़ जाती है तो मोती को प्राप्त करके समुद्र की तली में बैठ जाती है। आत्मा प्रेम का आनन्द लूटने इस भूमण्डल पर आई है, अपनी प्रिय वस्तु को ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर भटकती फिरती है। जिस दिन इसे इच्छित वस्तुएं प्राप्त हो जायेंगी, उसी दिन तृप्ति लाभ करके अपने परम धाम को लौट जायगी। भव-भ्रमण और मुक्ति का मर्म यही तो है।

हमें बार-बार जन्म इसलिए धारण करना पड़ता है कि प्रेम की प्यास बुझा नहीं पाते। मोह-ममता की मृग तृष्णा में मारे-मारे फिरते हैं। जिस दिन हमें सद्गुरु की कृपा से यह समझ आ जायगी कि जीवन का सार प्रेम है, उस दिन हम शाश्वत प्रेम को अपने अन्तःकरण में से ढूँढ़ निकालेंगे। हमारे अन्तःकरण में जिस दिन प्रेम भक्ति का अविरल स्रोत फूट निकलेगा, जिस दिन प्रेम नद में आत्मा स्नान कर लेगी, जिस दिन प्रेम का सागर हमारे चारों ओर लहराएगा, उसी दिन आत्मा को तृप्ति मिल जायगी और वह अपने भक्ति धाम को लौट जायगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles