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कहने को तो हम लोग रोज ईश्वर-ईश्वर रटते हैं, पर असल में शरीर को ही ईश्वर मानते हैं। दिन-रात जो काम करते हैं, उन पर बारीक दृष्टि डालें तो पता चलता है कि चौबीस के चौबीसों घंटे शरीर की पूजा में जाते हैं। शाम को अपनी कमाई पर गौर कीजिये, यह सब शरीर सुख के लिये प्राप्त किया गया है। धन-दौलत इकट्ठा करना हमारा आराध्य विषय है। षट्रस व्यंजन, बढ़िया कपड़े, ऊँचा मकान, कीमती सवारी, सुन्दरी, सेविका, सब तो हमें प्रिय है। इन्हीं के लिये सारा प्रयत्न होता है। सारा का सारा समय शरीर की पूजा में लगता है। गिद्ध जैसे कितना ही ऊँचा उड़ जाए पर दृष्टि मुर्दा माँस पर ही रखता है। इसी प्रकार हम चाहे जितनी बढ़-चढ़ कर बातें करें, पर दृष्टि शरीर पर ही रहती है।
अभागे मनुष्य! यह शरीर अमर नहीं है। इसके सुख भी सदा नहीं भोगे जा सकते। विश्व में कोई सदा नहीं जिया। मौत के दांतों में लटके हुए आदमी! यह शरीर कल ही नष्ट होने वाला है। यह ईश्वर नहीं है, इसकी ईश्वर जैसे पूजा मत कर। हाड़ माँस की उपासना करने वाले मूर्ख! अपने अन्त को देख! संसार में मृत्यु ही यही सत्य है। यह शरीर नाशवान है। मनुष्यों! भूलो मत- यह शरीर नाशवान है। इस मल मूत्र की गठरी को ईश्वर मत मानो। स्वार्थ से कुछ ऊँची दृष्टि उठा कर परमार्थ की ओर भी देखो। अपने अन्धकारमय भविष्य का भी चिन्तन करो।