जप-योग

April 1941

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( ले. पं. भोजराज शुक्ल, ऐत्मादपुर, आगरा)

ईश्वर के नाम का जप करने से उसके दिव्य गुणों का प्रभाव मनुष्य के हृदय पर पड़ता है, अधिक मात्रा में जप करने से वह गुण मनुष्य में भी आने लगते हैं। यदि मनुष्य प्राणायाम के साथ दृढ़ आसन हो कर एकाग्र चित से नित्य प्रति 3 घंटे जप करे, तो उसका चित्त ठहरने लगता है। इसी का स्थूल रूप हरि-कीर्तन है, इससे भी मन एकाग्र हो कर ईश्वर में प्रेम तथा भक्ति उत्पन्न होने लगती है, जप करने के लिये ईश्वर का सर्वोत्तम नाम ‘ओम्’ है। यदि अर्थ सहित जप किया जावे, तो विशेष लाभ होता है, जप करने से पहिले एकाँत निर्जन स्थान में बैठ कर जापक को प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि “आज इतनी संख्या में जप करूंगा, पूर्ण किये बिना किसी दशा में भी उसे न छोड़ूंगा”। इस प्रतिज्ञा को प्रातः सायं दोनों समय करना चाहिये, अन्य समय में भी अपनी प्रतिज्ञा का ध्यान रखना चाहिये। यदि इतना प्रयत्न करते हुए भी विघ्न उपस्थित हों, तो यह विचार करते हुए कि “मैं अपनी प्रतिज्ञा तोड़ कर पातकी बनना चाहता हूँ” अपने को धिक्कार दे। ऐसा निरन्तर करते रहने से मन में ग्लानि उत्पन्न हो कर अपनी की हुई प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने की मन में भावना उत्पन्न हो जाती है, जप करने में मन लगने लगता है।

जप करने में निम्नलिखित विघ्न उत्पन्न होते हैं, इनका ध्यान रखना चाहिये।

(1) व्याधि (2) स्त्यान (3) संशय (4) प्रमोद (5) आलस्य (6) अविरति (7) भ्राँतिदर्शन (8) अलब्ध भुमिकत्व (9) अनवस्थितपन। ये चित्त के विक्षेप करने वाले विघ्न हैं। उपरोक्त विक्षेप चित्त की वृत्तियाँ रोक दी जाती हैं, तो ये विघ्न बाधक नहीं होते।

“ विक्षेपों की व्याख्या”

(1) व्याधि-रोगों से शरीर का वीर्य तथा रस बिगड़ने से कष्ट होना।

(2) स्त्यान-चित्त में कुकर्म करने का विचार आना अथवा कर्म छोड़ बैठना।

(3) संशय-अच्छे कर्मों के लिये चित्त में सन्देह उठना, कि कर्म करूं या न करूं।

(4) प्रमाद-ईश्वर भजन का कभी चिन्तन भी न करना।

(5) आलस्य-शरीर अथवा चित्त की स्थूलता से शुभ कर्म न करना।

(6) अविरति-विषयों के संसर्ग से चित्त का आत्मा को मोहित कर देना।

(7) भ्राँति-दर्शन-कुछ का कुछ समझना, सत्य को असत्य, असत्य को सत्य जानना।

(8) अलब्ध भूमिकत्व-भजन के लिये स्वच्छ एकाँत स्थान प्राप्त न होना।

(9) अनवस्थितपन-स्वच्छ एकान्त स्थान मिलने पर भी भजन में मन न लगना।

दृढ़प्रतिज्ञ हो कर नित्यप्रति जप करने से कुछ दिनों में यह विघ्न अपने आप शान्त हो जाते हैं। इस कलिकाल में हठ-योग से समाधिस्थ हर एक मनुष्य नहीं हो सकता। प्रथम तो योगी गुरु ही नहीं मिलते, यदि खोजने पर मिल भी जावें तो मनुष्यों में श्रद्धा नहीं है,यदि किसी प्रकार श्रद्धा भी हो जावे तो अशुद्ध खाद्य पदार्थों के खाने से शरीर और मन अशुद्ध हो गये हैं, इसलिये इस समय हठ-योग की सिद्धि एक प्रकार से असम्भव ही है, बस ईश्वर प्राप्ति का सुगम मार्ग प्रतीत होता है, तो ईश्वर नाम का कीर्तन और जप जैसे कि परमहंस स्वामी रामकृष्ण महाराज की समाधि हरिनाम कीर्तन ही से हो जाती थी। कीर्तन का सूक्ष्म तथा उत्तम जिह्वा को स्थिर रख कर केवल मन से जप करना, स्थूल दृष्टि से जप करने से जापक को सिद्धि प्राप्त हो जाती है, जिससे कि मनुष्य लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ उठा सकता है, यह उस की इच्छा पर निर्भर है, प्रेय या श्रेय किसी मार्ग को ग्रहण कर ले।


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