कर्त्तव्य-पालन

April 1941

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(ले. श्री आनन्दकुमार चतुर्वेदी कुमार, छिवरमऊ)

शिशिर का अन्त तथा बसंत का आगमन था। वृक्षों की पत्रावली पीली पड़कर वृक्षों से बिछुड़ रही थी । इसे देखकर मन में यह भावना उत्पन्न हो रही थी कि जो पत्ते साल भर से एक साथ रहकर परस्पर आमोद प्रमोद कर रहे थे, तथा उनका पालन-पोषण एक साथ ही हुआ था, काल की गति से अब बिछुड़ रहे हैं। यह दृश्य देखकर मेरे हृदय को अत्यंत दुःख हुआ, मुझसे न रहा गया। मैं उन पृथ्वी पर पड़े हुए पत्तों के समीप गया कि ऐ पत्तों! तुम्हें अपने भाइयों से बिछुड़ते हुए दुःख नहीं होता, “उन्होंने उत्तर दिया कि संसार में अपने कर्तव्य का पालन करने में कहीं दुःख होता है? चाहे मृत्यु को भी हँसते हँसते क्यों न आलिंगन करना पड़े।”

क्या यह सत्य है? मुझे उन पत्तों का उत्तर सुन कर संतोष नहीं हुआ, मैं अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिये आगे बढ़ गया, मार्ग में सहस्रों चींटियां इधर से उधर दौड़ती हुई दिखाई दीं जो बेधड़क अपने कार्य में व्यस्त थीं अनेकों मनुष्य तथा पशु उनके ऊपर पाँव रखकर निकल रहे थे। बहुत सी चींटियां अपने प्राण गँवा चुकी थीं। इस दृश्य को भी देखकर मेरे हृदय में अत्यंत वेदना हुई। मैंने एक चींटी को रोक कर पूछा कि चींटी रानी, तुम इस प्रकार निर्भय होकर दौड़ रही हो। तुम्हारे ऊपर सैकड़ों मनुष्य तथा पशु अपने पाँव रखकर कुचलते हुये निकल रहे हैं, तुम्हारे साथ की बहुत सी चींटियां मर चुकी है, सम्भव है कि इसी प्रकार किसी समय तुम्हारी भी मृत्यु हो जावे परन्तु तुम्हारे मन में इसका भय तनिक भी नहीं मालूम होता।

मैंने उस चींटी से भी यही उत्तर पाया कि संसार में जन्म लेकर अपने कर्तव्य पालन में मृत्यु से नहीं डरना चाहिये।

इन दोनों दृष्टाँतों से मेरे हृदय को सन्तोष हुआ, संसार में जो प्राणी कर्त्तव्यपालन में परायण हैं, सचमुच संसार-संग्राम में वही विजय पाते हैं, जो करना चाहते हैं, कर दिखाते हैं।

अद्यैव मरणामस्तु वा युगान्तरेवा।

कर्त्तव्य पथ विचलन्ति पदं न धीराः॥

चाहे आज ही मृत्यु हो जाए, चाहे युगों तक जीयें परन्तु धीर पुरुष कर्त्तव्य से विचलित नहीं होते।


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