आत्म बुद्धि

April 1941

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( श्री जिज्ञासु )

“वह पापी है दुष्ट नराधम, उसके पास न जाना ।

उसे देखना छूना मानो, शिर पर पाप चढ़ाना ॥”

“भाई सच कहते हो, लेकिन, पावन किसका तन है?

रक्त माँस मल मूत्र आदि से, रहित कौन सा जन है?

आत्मा तो सब की समान है, सुन्दर शुचि अविनाशी ।

सब में सदा समान बिराजें, शम् कर घंट घटवासी।”

“कर्म बुरे करता है” लेकिन, ‘गहन कर्म गति’ भाई ।

क्या अच्छा क्या बुरा न परिभाषा इसकी हो पाई ॥”

मानव की अपूर्ण प्रज्ञा-क्या, बेचारी ने जाना ।

कुछ आसान नहीं है जग में, ‘बुरा भला’ बतलाना ॥

प्रभु के इस पावन प्राँगण में, किसको दोष लगाऊं

उसकी पुण्य पूत कृतियों को, कैसे बुरा बताऊ॥

किससे द्वेष करूं? किससे बदला लूँ? किसकों मारूं?

किसे विपक्षी समझूँ किसकी सेना को संहारूं?


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