आत्म-तिरस्कार का फल

April 1941

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(श्री स्वेट मार्डेन)

आत्मा के अन्दर कितनी अद्भुत शक्तियाँ भरी हुई हैं, इसका बुद्धि द्वारा विवेचन नहीं किया जा सकता, परन्तु हमें जो थोड़ा बहुत अनुभव होता है वह बहुत ही विचारणीय है। अपने भीतर एक ऐसी शक्ति है जो हमारी आज्ञाओं को मानती है और हमारे विचारों को प्रोत्साहित करके उन्हें मजबूत बनाती है। यदि इस प्रकार के विचार किये जाएं कि ‘हम क्षुद्र हैं, हमारी योग्यता बहुत ही नगण्य है, भला हम क्या कर सकते हैं।’ तो इन विचारों को आत्मा अपने स्मृति-पटल पर अंकित कर लेगी और उसकी प्रतिध्वनि शरीर के समस्त परमाणुओं में गुँजित करती रहेगी, तदनुसार सचमुच ही हम उसी तरह के बन जायेंगे जैसा कि अपने बारे में सोचते थे। कंगाली, बीमारी, लाचारी और बेबसी के विचारों को यदि रोज रोज अपनाया जाए, अपने को इनसे ग्रस्त समझा जाए तो निश्चय ही यह हमारी उपासना से प्रसन्न होकर अपना डेरा हमारे शिर के ऊपर डाल लेंगी और हर वक्त अपना प्रतिबन्ध डालती रहेंगी। हम अपने मानस क्षेत्र में जैसा बीज बोते हैं, ठीक वैसे ही पौधे उगा लेते हैं। दुख, द्रोह, कलह और निराशा के बीज बोएंगे तो अवश्य ही इनकी कँटीली बेलें उग कर चारों और फैल जावेंगी।

हम व्यापार में प्रवेश करते हैं और मन में तरह तरह की आशंकाएं पैदा करते हैं ‘कहीं घाटा तो न हो जाएगा, कही पूँजी तो न चली जाएगी’। विद्या पढ़ते हैं और पुस्तक उठाते ही झींकते है कि ‘ क्या करूं मुझे पढ़ने की सुविधाएं ही प्राप्त नहीं होतीं। किसी कार्य में लगते हैं और मन ही मन दुखी होते जाते हैं । ‘हाय ! हमारे भाग्य में ही सफलता नहीं है।’ इस प्रकार के विचार करने वाला कोई व्यक्ति किसी काम में सफल नहीं हो सकता। उसकी बोई हुई निराश पर जब फल आते हैं, तो उन्हें असफलता कहा जाता है।

यदि हम अपने को पतित, सामर्थ्यहीन और महत्व रहित समझेंगे तो दुनिया भी वैसा ही समझेगी जो आदमी अपनी बेकदरी करता है, दुनिया उसकी जरूर बेकदरी करेगी। संसार में ऐसा एक भी मनुष्य नहीं देखा गया जो अपने आपको, नाचीज, अयोग्य एवं निकम्मा समझते हुए भी कोई महान कार्य कर सका हो।

उपनिषद्-प्रसंग


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