माँ और बेटा

April 1941

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(ले. स्व. गिजू भाई)

माताएं बच्चों को गलती दिखलाते समय उसके मूल में रही हुई अपनी गलती नहीं देखतीं।

माँ - ‘लेकिन तू सीधी तरह खड़ा रह । यों उछल कूद क्यों करता है?’

बेटा -’मुझे सर्दी लगती है मुझसे खड़ा नहीं रहा जाता।’

माँ- ‘कुर्ता पहनते देर न हुई और निकाल डाला? तू कैसा है रे?’

बेटा- ‘माँ कुर्ते में तो चींटी थी। देखो चींटी ने मुझे काट लिया !’

माँ- ‘देखा, तैने रकाबी को गिरा दिया और फोड़ डाली न?’

बेटा - ‘मैंने नहीं गिराई। रकाबी ही चिकनी थी, फिसल कर गिर पड़ी

माँ- ‘अरे दैया! अब क्या करूं? इसने तो कपड़े के टुकड़े-टुकड़े कर डाले?’

बेटा - ‘बहुत टुकड़े तो नहीं किये सिर्फ दो ही टुकड़े हैं । मुझे पैरों में पट्टी बाँधनी है।’

माँ - ‘यूँ लोट पोट क्या करता है? तुझे सोने भी नहीं आता है।’

बेटा - ‘माँ, ये कान के पास आकर जो गुन गुन करते हैं तू आकर सुनती नहीं?’

माँ- ‘अरे तू कब तक खेलता रहेगा? तुझे कुछ नहाने की भी सुध है?’

बेटा- ‘तुम्हीं ने तो कहा था कि जब बुलाऊँ तब आना, तुमने मुझे कभी पुकारा भी था? या ही झुल्लाने बैठ गई। ‘

माँ- ‘कैसी वाहियात आदत है रे? दो कौर नहीं खाये और पानी ढाँसने बैठ गया।’

बेटा - ‘लेकिन माँ साग में इतनी मिर्च है, कि मुँह जला जाता है। जरा तुम चखो तो?’

-’शिक्षण पत्रिका’


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