‘प्रेम-दर्द’

April 1941

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले. रानी श्रीमती चन्द्रकुमारी देवी, कटनी )

प्रेम क्या है? जीवन का इससे बड़ा गूढ़ सम्बन्ध क्यों है? किस अशान्त शक्ति के अंतर्गत मनुष्य जाने अनजाने ही इसे तलाश करता है। वह सदा प्रेम की एक गुदगुदी की प्रतीक्षा करता है व मिल जाने पर कभी न बिछुड़ने की आशंका की व्याकुलता सी अनुभव आती है। प्रेम एक मीठा सा दर्द है जो जीवन का सुरीला तार है, दुखियों की आशा और वियोगियों का आकर्षण तथा थकावट की मदिरा व्यथितों की दवा है जो हृदय में कोमलता भर कर आत्मा पर एक आनन्द का बोझ डाल देता है। तभी तो प्रेमी प्रेम से मतवाला बन कर कहता है -

“दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।

तुमको भी मुहब्ब्त कहीं ऐसा न बना दे॥”

इस प्रेम दर्द ने ही शायद दुनिया को प्रकृति के कष्ट प्रिय होने का आभास कराया है। उन्होंने कहा है कि प्रकृति ने हर सुन्दर वस्तु के साथ इसकी कठिन वस्तु को अवश्य पैदा करके उसका लालित्य नष्ट करना चाहा है। उसने हमें वह प्रेम दिया जो संसार की परम विमोहक वस्तु है, साथ ही उसने मनुष्य को निर्दयता भी दी है, फिर भी प्रेम निर्दयी को करुण बनाने की ताक़त रखता है, यहाँ तक कि मनुष्य क्या प्रभु को भी गज और ग्राह की लड़ाई में गज की प्रेम पुकार में नंगे पाँव दौड़ना पड़ा था-

“हाथी बूड़ो सूँड लौं, जब ही करी पुकार ।

आह ते आन छुड़ाइया, लगी न रञ्चक बार ॥”

भक्ति भी दिल में तब तक नहीं होती जब दिल में प्रेम न हो, सच्चा प्रेम ही भक्ति व भगवान हैं, स्वर्ग है, प्रेम में बड़ा विचित्र नशा है, उसमें थकावट नहीं है, बड़ी मस्त तबियत रहती है-

“प्रेम दिवाने जो भये, मन भयो, चकनाचूर।

छके रहे, झूमत रहे, सहजो देख हजूर॥

किस तरह प्रेम में दीवानापन आता है कि आदमी छक जाता है, नशे में चूर हो जाता है, सुधि बुद्धि खो देता है, प्रेम के रंग में रंग जाता है, अमीरी-गरीबी भूल जाता है, भूख, प्यास, और निद्रा खो देता है, अपना पराया भूल जाता है। वहाँ केवल प्रेमी और प्रेम रहता है, कैसा मीठा दर्द है।

“कबहूँ हक धक हो रहे, उठे प्रेम हित गाय।

‘सहजो’ आँख मूँदी रहे, कबहूँ सुधि हो जाए॥”

जीवन में सभी प्राणी किसी न किसी को प्रेम करते ही हैं और उस प्रेम को अपनी-अपनी कसौटी में कसते हैं। बगैर प्रेम के कोई जीवित नहीं रह सकता, किसी को भी प्यार करना ही पड़ेगा, नीरस जीवन किसी ने नहीं काटा है। यहाँ उस प्रेम का वर्णन है जिसे हमारे कवि प्रेम-दर्द कह कर अमर करते हुए हमारे हृदय पट खोल गये हैं। प्रेम तो सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है-

“प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देय ले जाए॥”

प्रेम में बड़ा दर्द है, प्रेम के नशे में प्रेमी बड़ी जिद करता है, प्रेम के बाण लगने का कोई इलाज नहीं है, जिसका बाण है वही इलाज कर सकता है। तभी तो देवी मीरा कहती है-

“मैं तो प्रेम की दीवानी, मेरो प्रेम न जाये कोय।

सूली ऊपर सेज हमारी, सोना किस विधि होय॥

गगन मंडल पर सेज पिया की मिलना किस विधि होय।

घायल की गति घायल जाने जो कोई घायल होय॥

दरद की मारी बन बन डोलूँ वैद मिला नहिं कोय।

मीरा की प्रभु पीर मिटेगी वैद संवलिया होय॥”

कितना ऊँचा अकथनीय प्यार था, वह भी किस से, जिसे कभी न देखा था, केवल सुना था, धन्य है।

ऊधो जब योग का संदेशा लेकर विरहणी गोपियों को समझाने जाते हैं तो गोपी कहती हैं-

“ऊधो ब्रह्म ज्ञान का संदेशा नहीं देते नेकु

देख लेते कान्ह जो हमारी अंखियान ते।”

गोपी कृष्ण भगवान के प्रेम में छकी थीं, प्रेम में पीड़ित गोपियों ने एक न सुनी और कैसे अपनी पीड़ा, अपनी दुनिया, अपना सर्वस्व इन शब्दों में प्रकट कर संदेश दूत का मुख बन्द कर दिया वह थोड़े शब्दों में सुनिये-

“श्याम तन श्याम मन, श्याम ही हमारो धन,

आठों याम ऊधो हमें श्याम ही से काम है।

श्याम हिये, श्याम जिये,श्याम बिन नाहीं तिये,

अन्धे को सी लाकड़ी आधार श्याम नाम है॥

श्याम गति श्याम मति श्याम ही हैं प्राणपति,

श्याम सुखदाई सो भलाई शोभा धाम है।

ऊधो तुम भये बौरे पाती लेके आये दौरे,

और योग कहाँ यहाँ रोम रोम श्याम है॥

यदि प्रेम की इतनी जंची दिव्य विभूतियाँ पैदा न हुई होतीं तो आज प्रेम की कीमत शायद कुछ भी न होती, जब हृदय प्रेम से विभोर हो उठता है तब उसे कुछ नहीं सूझता, तभी तो कहते हैं कि प्रेम अन्धा है।

भक्त सूरदास तो इतने से ही नहीं मानते। वे तो अपनी सगाई अपने प्रेमी के साथ नहीं बल्कि प्रेम की सगाई प्रेमी के करके ही चैन पाते हैं -

“सब से ऊँची प्रेम सगाई।”

दुर्योधन के मेवा त्यागे, साग विदुर घर खाई,

जूठे फल शबरी के खाये, बहु विधि स्वाद बताई॥

प्रेम के वश नृप सेवा कीन्हीं आप बने हरि नाई।

राजसु यज्ञ युधिष्ठिर कीन्हों तामें जूठ उठाई॥

प्रेम के वश अर्जुन रथ हाँक्यों भूल गये ठकुराई।

ऐसी प्रीति बढ़ी वृन्दावन गोपिय नाच नचाई॥

सूर कूर इस लायक नाहीं कहँ लगि करों बढ़ाई॥

प्रेम की सगाई ही सब से बढ़ कर निकली जो सब अमीर गरीब दीन दुखी का साथ देकर लज्जा रखते हैं। ऐसे जगतपति से किसकी सगाई करने की इच्छा होगी, कौन पति रूप में इन्हें न वरण करेगा, कौन न अपने जीवन नाथ को रिझाना चाहेगा। अपने पति के प्रेम दर्द से केवल पत्नी ही सती होगी व जगतपति पर संसार निछावर हो जायेगा।-

किस विधि रीझन हो प्रभु, का कहि टेरुं नाथ ।

लहर महर जब ही करो, तब ही होउँ सनाथ॥

कवियों की सूझ अनोखी ही हुआ करती है। मानव जाति का पता लिया ही करते है सो नहीं वे पता लगाते-लगाते जंगल में उड़ गये और वहाँ अपने चंचल नेत्र दौड़ाने लगे व पक्षियों के प्रेम दर्द की भाषा समझ कर सुनाते हैं -

मोर को धन श्याम से प्रेम है। जैसे ही वह श्याम घटा देखता है, वह गाने लगता है, व हरि का चिंतन करता है, तभी तो घनश्याम ने मोर के पंख, मोर का प्रेम दर्द चिन्ह समझ कर शीश पर धारण किया, सच जूठ क्या है पर बात जँचती भी है -

मोर सदा पिऊ पिऊ करत, नाचत लखि घनश्याम।

यासों ताकी पाँखड़ी सिर धारी धनश्याम ॥

कवि ने प्रेम की खोज कर जंगल में डेरा जमा लिया, छानबीन कर चकोर को पकड़ लिया और उसकी प्रेम-भाषा को भी प्रगट कर दिया।

“तुलसी ऐसी प्रीति कर, जैसे चन्द्र चकोर।

चोंच झुकी गरदन लगी, चितवत वाही ओर॥

कवि तो जाँच पर उतारू होकर जंगल की खाक छान रहे थे कि प्रेम का अधिकार मानव को ही है या पशु, पक्षियों, लकड़ी, पानी, दूध, को भी है, आखिर तलाश करने वाला सफल हो जाता है, उन्हें पता चल ही गया है कि पपीहा पिऊ की तलाश में बेकरार प्रेम दर्द से चिल्लाया करता है -

“पपीहा प्रन को ना तजै, तजै तो तन बेकाज।

तन छूटे तो कछु नहीं, प्रन छूटे अति लाज॥”

इसके बाद प्रेम के गुप्तचर भटकने थकते रात्रि को दीपक के उजाले में विश्राम लेना चाहते थे, किन्तु वहाँ भी उन्हें प्रेम रोग दिखाई दिया, वे दिल पकड़ कर बहने लगे -

चाहत वह किस काम की अनचाहत के संग ।

दीपक मन भावे नहीं जल जल मरत पतंग ॥

यहाँ से भी जलते भुनते कुढ़ते नदी के तट पर ठंडी हवा के झोंकों में शाँति लेना चाहते थे, पर वहाँ भी उन्हें प्रेम मंत्र का जादू दीखा वे सच झूठ के पानी में गोता लगातार चिल्लाते निकल पड़े।

अधिक स्नेही माछरी-दजा अल्प सनेह ।

जब ही जलते बिछूरे तब ही त्यागे देह ॥

प्रेम के सी. आई. डी. हर जगह अपनी तेज निगाह रखते हैं और पकड़ने में चतुर होते हैं। प्रेम का दर्द अनोखा होता है जो नहीं छुपता। मतलब यही कि जन्म-जन्मांतरों से भक्त, कुभक्त, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, पतंगें सभी संसार में भिन्न-भिन्न प्रेम रोग के दर्द से पीड़ित है यही प्रेम का मीठा दर्द है कि प्रत्येक जीव को जीवन चलाने का सुरीला तार है। इसमें आशा, सुख, स्मृति, उमंग, पीड़ा, तेजी के साथ आकर्षण है। तभी तो प्रेम दर्द से डराकर कहते हैं।

ये प्रेम वह है कि पत्थर को दम में आब करे।

लगाये दिल वही जिसे खुदा खराब करे॥


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118