(लेखक -सी ई. एम. जोड)
प्रत्येक युग में मानव- प्राणी ने नाश और नृशंसता में सुख का अनुभव किया है। विश्वमंच पर मानव प्राणी के प्रादुर्भाव के पहिले भी पशु जगत में उसी तरह का व्यवहार पाया जाता था, जैसा आज पाया जाता है। मत्स्य न्याय का बोलबाला था- बड़े पशु छोटों को ग्रास बनाते थे। एक देहधारी दूसरे पर प्रहार करता था । पशु विज्ञान से परिचय रखने वाले महानुभाव जानते हैं, कि बर्र जैसी एक प्रकार की मक्खियाँ भी होती हैं, जो अपने अण्डों को कुछ कीड़ों की पीठ पर छोड़ जाती हैं, जिससे कीड़े मरते तो नहीं हैं, लेकिन उनकी गतिविधि को लकवा सा मार जाता है। इन कीड़ों की गरमी से उनके अण्डों में जीव पड़ जाता है और बाहर होते ही इन मक्खियों के बच्चे अपने चारों ओर जो कुछ पाते हैं उसको खाने लगते हैं। सबसे पहले इनका भोजन बनता है, वह कीड़ा ही जिसकी पीठ पर जन्म लिया और दुनिया की हवा में पहली साँस ली।
प्रकृति में दुःख जनक बातें देखने में आती हैं। और दुःख बुरी बात है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि बुराई केवल मानव प्राणी के पाप का ही परिणाम है। जब मैं किशोर अवस्था और पूर्ण वय प्राप्त करने के बीच में था, तब सोशलिज्म की बड़ी धूम थी, उसी का चारों ओर शोर था। सोशलिज्म से मैंने यह सीखा था कि मानव दुर्गति का कारण उसके जीवन की बुरी अवस्था है। “गरीबी संसार में सब से बड़ा पाप है” अपनी असाधारण वक्तृता शक्ति और अद्वितीय प्रतिभा से जार्ज बरनार्ड शा यही घोषणा कर रहे थे। हाँ, गरीबी सब से बड़ा पाप है, क्योंकि यही तो अन्य सब पापों को जनती है।
श्री बरनार्ड शा इस नतीजे पर पहुँचे हैं, कि प्रत्येक मानव प्राणी का यह धर्म है कि उसके पास पैसा हो। पैसा पास होना बुद्धिमानी और पुण्य का लक्षण है।
इससे क्या सीख मिलती है हमको? यही कि पाप को जननी दोष पूर्ण सामाजिक अवस्थायें हैं। अब आज चाहें तो पार्लियामेंट में एक कानून पास करा कर बुरी सामाजिक अवस्थाओं को सुधार सकते हैं, दुःख की जगह सुख, गन्दगी की जगह सफाई, रोग की जगह स्वास्थ्य, की स्थापना कर सकते हैं। इसलिये प्रगटतः आप चाहें तो जनता को पुण्यवान और धर्मनिष्ठायुक्त बना सकते हैं। किन्तु विचारना चाहिए कि यह बात कहाँ तक ठीक है? क्या मनुष्य पैसे के अभाव में ही पाप करता है?
कुछ दिन पहले की बात है कि मुझे वियन्ना के एक ऐसे व्यक्ति से मिलने का अवसर मिला जो हिटलर के डर से वहाँ से भाग आया था और भूतों जैसी सूरत लिये आज लन्दन के रेस्टोरेन्ट और बैठकों में मारा मारा फिरता है। वह नाजियों के आस्ट्रिया में पाँव रखने के पहले एक प्रसिद्ध डॉक्टर था। उसने मुझको दो घटनायें बताईं, जिनको मैं यहाँ दे रहा हूँ। उनको सुन कर एक बार फिर मेरे हृदय से यह भाव जगा कि धर्म गुरुओं की क्या यह बात सच ही थी कि इंसान पर शैतान की छाया है।
(1) वियन्ना में रिगस्ट्रा से के बराबर एक बूढ़ा यहूदी दौड़ा जा रहा था, चार युवा नाजी उसका पीछा कर रहे थे।
यहूदी सज्जन के लम्बी दाढ़ी थी, जो दो हिस्सों में बीच की एक पट्टी द्वारा बंटी हुई थी। उसकी दाढ़ी के दोनों हिस्सों में रस्सियाँ बँधी हुई थीं, और उन रस्सियों को कन्धे के ऊपर से उक्त युवा नाजी पकड़े हुये थे। जैसे ही बूढ़ा यहूदी अपनी गति को धीमा कर देता था। तैसे ही अपने ‘घोड़े’ की रफ्तार तेज करने के लिये पीछे से नाजी उस पर हंटर या लात से चोट लगा देते थे।
(2) वियन्ना के “प्रेटर” में युवा स्त्रियाँ टहलने निकला करती हैं, अपने अपने बच्चों को अपनी पिरम्बुलेटर गाड़ियों में लिटाये हुये । एक दिन की बात है दो नाजी युवक हाथ में भीगे हुए तौलिये लिये हुये जिनको ऐंठ कर रस्सी की तरह बना लिया गया था, उन स्त्रियों की तलाश में घूम रहे थे जो यहूदी थीं। जैसे ही कोई यहूदी स्त्री मिलती ये इन कोड़ों से उसको पीटने लगते। ये स्त्रियाँ जान बचाने को भागती, पीछे से कोड़ों की बौछार पड़ती जाती, वे और तेज भागती और, भी अधिक कौड़ों की बौछार उन पर होती , यहाँ तक कि उनके बच्चों की गाड़ियाँ उलट जातीं। उनके बच्चे सड़क पर लुढ़कते हुए इधर उधर ऊपर जा पड़ते !
ये दो घटनायें आपने पढ़ीं। मैं तो एक क्षण भर के लिए भी यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि आर्थिक संकट के कारण ही कोई ऐसा कर सकता है।
मानव जाति का इतिहास संकटपूर्ण रहा है। अपने जीवन में मानव प्राणी को अकाल, बाढ़, महामारी और भूकम्प आदि ऐसी शक्तियों का सामना करना पड़ा है, जो उसके बस से बाहर थीं। इन संकटों में उसके परिवार उसकी जाति नष्ट हो गई है। खून-पसीना एक करके उसने पेट भरने को अन्न और तन ढकने को कपड़ा पाया है। भेड़ियों, बाघों और साँपों से उसको लड़ाई लड़नी पड़ी हैं, कभी वह खुद मारा गया है और अक्सर उसने उनको मारा है, इतना प्रयत्न करने पर भी अनेक बार उसको रोटी नहीं मिली, कपड़ा नहीं मिला।
अधिकाँश मानव प्राणी यह नहीं जानते कि कब और कहाँ से उनको रोटी मिल सकती है और जब कभी उनको रोटी मिलती है तो इतनी नहीं कि उनकी क्षुधा सन्तुष्ट हो जाए! अधिकाँश मानव प्राणी अन्य मानव प्राणियों की दासता के जाल में जकड़े हुए हैं। अधिकाँश मानव प्राणी कभी दास रहे हैं तो कभी मालिक के खेत पर काम करने वाले, अधिकार विहीन कुली, कभी नौकर रहे हैं तो कभी भूख की माँग पूरी करने के लिये अपनी मजदूरी बेचने वाले मजदूर! अतृप्त भूख और भूख के बीच उन्होंने कलामुँड़ियाँ खाई हैं, अभाव और अपमान के गर्त किनारे पर पड़े रह कर दिन बिताये हैं- हमेशा किसी दूसरे के इशारे पर वह नाचे हैं कभी वे अपने स्वयं स्वामी नहीं बन सके।
खयाल कीजिये उन मानव कह जाने वाले प्राणियों का जिन्होंने गगनचुम्बी पिरामिड खड़े किये। खयाल कीजिए उन हतभाग्य प्रभु संतानों का, जिन्होंने किसी राजा या रानी की इच्छा पूरी करने के लिये कंधे पर ढो-ढो कर ऊँची पहाड़ियों की चोटियों पर शिलायें पहुंचाई और गढ़ और गढ़िया तैयार कीं। खयाल कीजिये उन देहधारियों का, जो किसी एक मध्य युगी डकैत के लिये जहाजों की पतवार खेंचते रहे, और इसी प्रयत्न में कुत्तों की तरह मर गये, आप कल्पना नहीं कर सकते, आप सिहर उठेंगे।
मानव इतिहास के पन्ने बदलते चलिये, आपको अनिवार्यतः इस परिणाम पर पहुँचना होगा, कि अतीत में मानव जीवन की विशेषता ही , भय, इंद्रिय लोलुपता, नृशंसता और पीड़ा रही है और यदि मानव जाति उसी रास्ते पर चली जिस पर उसको इस समय ले जाया जा रहा है तो भविष्य में भी उसके भाग्य में यही बदा है क्योंकि वही पुराना पाप आज भी अनियंत्रित रूप से क्रीड़ा कर रहा है-युद्ध का तो कहना ही क्या, शान्ति के समय में भी सन् 1928-30 में उत्तरी चीन में लगभग 60 लाख व्यक्ति भूख के कारण इहलोक की लीला समाप्त करके प्रभु के दरबार में चले गये। जिन नगरों और गाँवों में हमारे ये लाखों बन्धु मर रहे थे, वे व्यापारी भी थे, जिनके कोठों में गेहूँ और चावल भरा था और जिनकी रक्षा के लिए सरकार की तरफ से पुलिस पहरा देती थी। किनकी रक्षा के लिये? उनकी रक्षा के लिये जो भूखे मरने वाले प्राणियों में से, उनको जो अपने आपको या अपनी बेटियों को या बहुओं को बेच कर पैसा दे सकते थे, गेहूँ चावल बेच कर पैसा कमा रहे थे। टीन सिन आदि स्थानों में चंदा करके उन अभागे प्राणियों के लिए अनाज आदि इकट्ठा किया गया था। वह उन तक इसलिये न पहुँच सका था कि सैनिक अधिकारी एक भी रेल गाड़ी इस काम के लिये देने को तैयार न थे, क्योंकि रेलवे गाड़ियाँ उनको अपने लिये चाहिए थीं।
क्या बीसवीं सदी में भी ऐसी बातें हो सकती हैं? यह प्रश्न किया जा सकता है। लेकिन प्रश्न व्यर्थ है, क्योंकि ये होती हैं।.....पर क्या मानव प्राणी सदा अपने सहयोगियों के प्रति पशु जैसा ही व्यवहार करता रहा है? यह कहना, अधूरी बात है। वह साहित्य रचता है, संगीत का निर्माण करता है, दर्शन की रचना करता है और सभ्यता का सृजन भी करता है।