धर्म की रक्षा करो

April 1941

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नवीन सभ्यता की यह आवाज है कि हमें अपनी उन्नति करने के लिये आर्थिक और बौद्धिक उन्नति करनी चाहिए, संगठन करना चाहिए। धर्म मार्ग की कड़ी आलोचना करते हुए कहा जाता है कि यह तो अफीम की गोली है, जिसे खाकर मनुष्य अपनी बुद्धि खो बैठता है। यह तो पंडे पुजारियों का पेशा है, जो लोगों को बहका कर अपना उल्लू सीधा करते है।

उपरोक्त विचार किसी एक मनुष्य के नहीं है, वरन् एक तीव्र विचारधारा है, जो दिन-दिन प्रबल होती जाती है। युग का प्रवाह या नास्तिकों का प्रलाप कह कर इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। हमें विचार करना है कि इन बातों में कितना तथ्य है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जब हम बारीकी के साथ इस सम्बन्ध में विचार करने बैठते हैं, तो प्रतीत होता है कि इस युग की धार्मिक बगावत वस्तुतः धर्म-तत्व के विरुद्ध नहीं वरन् उसके साथ मिल जुल गये, पाखंड के विरुद्ध है। हिन्दू जाति धर्म प्राण रही है और उसमें उदारता की मात्रा का समावेश अत्यधिक रहा है, इसलिये हिन्दू धर्म के अन्दर अनेक पंथ,उप पंथ बढ़ते रहे और सब प्रकार हितकर अहितकर रीति-रिवाजें पनपती रहीं। देवदासी प्रथा (लड़कियों को नाचने के लिए मन्दिरों को दान करना), सखी सम्प्रदाय (भक्ति के नाम पर पुरुषों का स्त्री रूप बनाना), जीव वलि प्रथा (पशु पक्षी तथा मनुष्यों तक की बलि देना ), तान्त्रिकों के विकृत भैरवी चक्र (मद्य, माँस, मैथुन, धन संग्रह आदि में ही लिप्त रहना), जैसे कार्य जब धर्म का आवरण ओढ़ कर फले फूले तो स्वाभाविक है कि उनकी गंदगी उस तालाब को ही गन्दा कर दे, जिनमें से उनका उद्भव होता है। शताब्दियों का यह घपला अब धर्म के शुद्ध स्वरूप में मिल कर कुछ ऐसी विकृत दशा में सर्वसाधारण के सामने आता है कि स्थूल दृष्टि डालते ही उससे घृणा होने लगती है। मन्दिरों मठों में होने वाले दुराचार, साधुओं का वेश धारण किये हुए असंख्य हरामखोर बदमाश, धर्म पुण्य के नाम पर स्वार्थ साधन के लिए अज्ञानी जनता से हड़पी जाने वाली धनराशि , ज्योतिष भविष्य कथन आदि के नाम पर होने वाला भ्रम, प्रचार साम्प्रदायिक कलह, दंभियों के संगठित षडयन्त्र, जब नग्न रूप से जनता के सामने आते हैं, तो उनके अप्रबुद्ध मस्तिष्कों में धर्म के यही चित्र अंकित हो जाते है और यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि हर विचारशील एवं सहृदय व्यक्ति उनसे घोर घृणा करे। धर्म के विरुद्ध उठी हुई इस युग की प्रचण्ड बगावत की आदि कारण वे पाखण्ड हैं, जिन्होंने धर्म के पवित्र गंगाजल को गंदली कीचड़ का रूप दे दिया है। पेट में जब बगावत खड़ी होती हैं, दस्त लगते है, तो दूषित भाग के साथ श्रेष्ठ तत्व भी बाहर फेंक दिये जाते हैं, सूखे के साथ गीला भी जल जाता है, गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है। दुनिया के तीन चौथाई से अधिक मनुष्यों के मस्तिष्क पर अधिकार जमाये हुए धर्म विरोधी भावनाओं का यथार्थ कारण यही है।

धर्म के शुद्ध स्वरूप में बगावत के लिए रत्ती भर भी स्थान नहीं हैं। विरोध उसमें हो नहीं सकता। मनुष्य जाति की सामाजिक व्यवस्था को ठीक बनाये रहने वाली शृंखला केवल धर्म ही हो सकता है। धार्मिक भावनायें मनुष्य के हृदय में स्वार्थ का त्याग और परोपकार वृत्ति का बीजारोपण करती हैं। संसार के समस्त कलह और दुख-दरिंदों का कारण स्वार्थ की अनुचित साधना है। धर्म से विमुख हो कर मनुष्य स्वार्थ सिद्धि को ही अपना इष्ट बना रहे हैं। संसार में वस्तुएं एक नियत मात्रा में हैं, वे उतनी रहती हैं, जितनी से प्राणियों का उचित पालन पोषण हो सके ! यदि सभी अपने-अपने भाग का उपभोग करें, तो विश्व की शान्ति स्थापित रहेगी, समाज की सारी व्यवस्था बड़ी सुविधापूर्वक चलती रहेगी। किन्तु मनुष्य स्वभाव में अक्सर पशुता का उदय होता है, वह अपने लिये बहुत चाहता है और दूसरों को कुछ नहीं देना चाहता दूसरों को नहीं देना चाहता। दूसरों को कष्टकारक स्थिति में धकेल कर अपने लिये अधिक सुख-सुविधायें एकत्रित करता है, फलस्वरूप दूसरे लोग अभाव से दुखी रहते हैं और जब उनमें प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, तो प्रतिशोध लेने के लिए तत्पर हो जाते है, तदनुसार कलह का सूत्रपात होता है। हम समाज के अधिकाँश भाग को दुखी पाते हैं और उसमें कलह के बड़े नृशंस दृश्य देखते हैं। सारा संसार इन हाहाकारों से पीड़ित हो रहा है। सच्चे धर्म से विमुख होने का यही तो निश्चित परिणाम है।

धर्म की विषद विवेचना का तत्व ज्ञान यह है कि “मनुष्य अपनी सुविधाओं का दूसरों के सुख के लिये खुशी खुशी परित्याग करे”। यह भावनाएं जितनी-जितनी अधिक दृढ़ होती जाती हैं, उतना ही मनुष्य उदार होता जाता है, अपने सुख की अपेक्षा दूसरों की सुविधा का उसे विशेष ध्यान रहता है। आनन्द एक कल्पित चीज है, उसका आरोपण जिस वस्तु में कर लिया जाए, उसी में वह प्राप्त होने लगता है। स्वार्थ साधन में आनन्द आता है, पर जब उसका आरोपण परमार्थ में कर लिया, तो परमार्थ में ही स्वार्थ के समान भी आनन्द आने लगता है। वह आनन्द नामक पदार्थ जिसकी प्राप्ति के लिये स्वार्थ साधन किया गया था, जब धार्मिक भावनाओं के कारण परमार्थ में भी प्राप्त होने लगता है, तो वह समस्या हल होने लगती है, जिसके कारण संसार नरक बना हुआ है। इतिहास में ऐसे उदाहरण है कि कुछ शासकों की स्वार्थ भावनाएं राज्य के लिये अपने सगे भाइयों तक हत्याएँ कराती हैं। इसके विपरीत जब राम और भरत दोनों ही त्याग की भावनाओं से परिपूर्ण होते हैं, तो वह राज्य तुच्छ वस्तु बन जाता है, दोनों के जीवन में आनन्द का अविरल श्रोत फूट निकलता है। एक भाई राज्य को दूसरे भाई को खुशी खुशी देना चाहता है, दूसरा उसे उसी के लिये अर्पण करता है। कैसा स्वर्गीय दृश्य है। जिन पति पत्नियों में , मित्र मित्रों में, इस प्रकार की भावनाओं के कुछ अंश देख पड़ते हैं, वहाँ कितनी पवित्र प्रेम की धारा बह निकलती है। शाँति और सुव्यवस्था का मेरुदण्ड यही विचारधारा है, जिसे धार्मिक भावना के नाम से पुकारा जाता है।

नवीन सभ्यता धार्मिक आडम्बरों की बगावत करते हुए उसके सत्य तत्व का भी बहिष्कार कर देती है, उसका मुँह त्याग की अपेक्षा स्वार्थ की ओर मुड़ जाता है। तदनुसार कलह की दारुण विभीषिकाएं सामने आ खड़ी होती हैं। जहाँ स्वार्थ की प्रधानता है, वहाँ आर्थिक उन्नति, बौद्धिक विकास और संगठन कुछ भी काम नहीं दे सकते। जरा आज की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति पर दृष्टिपात कीजिये। राष्ट्र संघ जैसा महान संगठन बेचारा एक झोंके में उड़ गया। धन-धान्य से सम्पन्न, राजाओं जैसा जीवन बिताने वाले व्यक्ति आज भूखे मर रहे है और गुफाओं में छिप कर अपनी प्राण रक्षा कर रहे हैं, विज्ञान के आश्चर्यजनक आविष्कार करने वाली बुद्धि आज मृत्यु किरणों और जहरीली गैसों का आविष्कार कर रही है। स्वार्थ की जितनी अधिकता होती जाएगी, संसार में उतने ही नारकीय दृश्य उपस्थित होते जाएंगे। जिस दिन धर्म की भावनाओं का बिलकुल लोप हो जाएगा, स्वार्थ का पूर्णतः साम्राज्य हो जायगा, उस दिन सर्पिणी की तरह माताएँ अपने बच्चों का माँस पका कर खाने लगेंगी, बहनें पशुओं की तरह लज्जा और रिश्ता छोड़कर इन्द्रिय परायण हो जायेंगी, मनुष्य शूकरों की तरह अखाद्य खाने लगेंगे और कुत्तों की तरह एक दूसरे की बोटी नोंच नोंच डालेंगे।

हे नवीन सभ्यता के अभिमानियों ! अपने तर्कों पर पुनः विचार करो, वस्तु स्थिति को पुनः सोचो, अपने कार्यक्रम का पुनः संशोधन करो। यह मार्ग कल्याण का नहीं है, जिस पर तुम प्रवृत्त हो रहे हो। आर्थिक उन्नति, बौद्धिक विकास,संघटन तीनों ही बड़ी सुन्दर वस्तुएं हैं परन्तु इनके मूल में धर्म होना चाहिए अन्यथा यह उन्नति विनाश की तीक्ष्ण तलवारें ही सिद्ध होंगी। धार्मिक रीति-रिवाजें वास्तविक धर्म नहीं हैं। यह तो इसके बाह्य चिन्ह हैं, जो समय- समय पर बदलते रहे हैं और बदलते रहेंगे। इनमें जो विकृतियाँ आ गई हों, जो अंग सड़ गये हों, उन में परिवर्तन कर लो। क्योंकि परिवर्तन ही जीवन है। परन्तु थोड़े से विकार के कारण सत्य तत्व की ही अवहेलना मत करो। खटमलों के डर से चारपाई का ही परित्याग कर देना बुद्धिमानी नहीं है।

कई बार यह भी सुनने में आता है कि सामाजिक व्यवस्था अच्छे राज-प्रबन्ध से रोकी जा सकती। उन्हें जानना चाहिये कि व्यवस्था केवल दण्ड से कायम नहीं रह सकती है। हर आदमी के पीछे एक-दो दरोगा लगा दिया जाए तो भी उससे पूरी तरह कानून का पालन नहीं कराया जा सकता। वह कुछ न कुछ तरकीब निकाल ही लेगा, फिर वे दरोगा भी उसी समाज में से होंगे। इसलिये धर्म का परिपालन ही एक ऐसी वस्तु हो सकती है, जिसके द्वारा समाज की शान्ति और व्यवस्था कायम रहे एवं सब लोग प्रेमभाव और सुख शान्ति के साथ रहें। बुद्धिमान विचारकों ! दुखों में सुख का आविर्भाव करने वाले इस महान तत्व को नष्ट मत करो, इस से बगावत मत करो। शास्त्र कहता है- “धर्म एव हतो हन्ति रक्षे रक्षित रक्षतः।” धर्म की रक्षा करने से तुम्हारी रक्षा होगी और धर्म के नष्ट होने पर तुम भी नष्ट हो जाओगे।


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