पुरुषों ! पुरुषार्थ करो !

April 1941

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(ले. श्री योगीराज श्रीउमेशचन्द्रजी, बम्बई 4)

उद्योगिनं पुरुषसिंह मुपैति लक्ष्मीः।

दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति॥

दैवं निहत्य कुरु पौरुष मात्म शक्त्या।

यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्रदोषः॥

जगत में अनेक स्त्री-पुरुष पुरुषार्थ को प्रधान स्थान देते हैं और बहुत से स्त्री, पुरुष ऐसे हैं, जो दैव गति (प्रारब्ध ) को प्रधान पद देते हैं। अब यह शंका उपस्थित होती है कि प्रथम प्रारब्ध को मानना चाहिये अथवा पुरुषार्थ (कर्म ) को? विचार करने पर पता लगता है कि प्रथम पुरुषार्थ, पश्चात प्रारब्ध मानना ठीक है। भूत काल में किये हुये कर्म का फल ही प्रारब्ध है। आधुनिक काल के अनेक स्त्री, पुरुषों के ऊपर दृष्टिपात करने पर पता लगता है कि पुरुषार्थहीन बनकर प्रारब्ध के ऊपर भार रक्खे हुए वे जीवन निर्वाह कर रहे हैं।

श्रुति माता क्या कहती है- “मनुष्य सौ वर्ष तक कर्म करके जीने की इच्छा करे। मुख्य दो प्रकार का है कर्म है। एक सकाम और दूसरा निष्काम, सकाम कर्म का फल से स्वर्ग सुख है और निष्काम कर्म का फल आत्म ज्ञान प्राप्त होता है। सकाम कर्म में भी दो प्रकार हैं। काम्य और निषिद्ध । निषिद्ध कर्म अत्यन्त निन्दनीय हैं। चोरी, परायी स्त्री से कुकर्म की इच्छा, मदिरा, पान, चाट, बीड़ी, तम्बाकू, गाँजा, भाँग, अफीम सेवन आदि अत्यन्त निन्दनीय तथा शरीर एवं मन को दुःख देने वाले कर्मों को निषिद्ध कर्म कहा जाता है। पुत्रेषणा, वित्तेषणा और कीर्ति वृद्धि करने के लिये जो कर्म करते हैं उसे काम्य कर्म कहते हैं। निषिद्ध कर्म वालों से काम्य कर्म करने वाले अच्छे हैं। काम्य कर्म करने वालों से निष्काम कर्म करने वाले अच्छे हैं। नैमित्तिक कर्म करना गृहस्थाश्रमियों का धर्म है। उद्योग करते रहने से शरीर निरोग और मन पवित्र रहता है। वह उद्योग निन्दनीय नहीं होना चाहिये ।

कर्म निरत को कष्ट साध्य कार्य भी सुगम हो जाता है। शास्त्र की आज्ञा से पढ़िये :-

वीरः सुधीः सुविद्याश्च पुरुषः पुरुषार्थं वान्।

तदन्ये पुरुषाकारः पशवः पुच्छ वर्जितः॥

अर्थात्- विद्या (लौकिक और पारलौकिक) बुद्धिमान्, वीर, (व्यावहारिक और परमार्थिक कार्य करने के लिये स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर से निरोगी, बलवान्) और सदा उत्तम प्रकार के पुरुषार्थ में संलग्न रहने वाला ही “पुरुष” इस नाम से शोभायमान हो सकता है और जो चिन्ताग्रस्त, आलस्य वान, भीरु, काम, क्रोध, लोभ, मोह, असंतोष आदि दुर्गुणों से भरे हुये हैं उनके शरीर का आकार केवल मनुष्य सरीखा है, किन्तु वह पूछ रहित पशु समान हैं।

मनुष्य व्यर्थ विलाप करता है। ‘कि मैं दुखी हूं, मैं शक्ति हीन हूँ, मैं परवश हूँ, यह सर्व विलाप अज्ञान दशा का चिन्ह है। श्रेष्ठ मनुष्य जन्म धारण करके भी ऐसा निरर्थक विलाप करना महान लज्जा की बात है। मनुष्य चाहे सो प्राप्त कर सकता है। परमात्मा ने माता के उदर से बाहर निकलने के समय में ही उसे स्वतन्त्र होने के लिये एकादश इन्द्रियाँ दी हैं । उन साधनों का उपयोग मनुष्य आहार, निद्रा, भय, और मैथुन के लिये करके दुख भोगता है। फिर कहता है कि मैं ‘दीन हीन हूँ।’

हृदयस्थ भगवान का सहारा लेकर जो मनुष्य योग्य पुरुषार्थ करे तो स्थूल सम्पत्ति को भोक्ता ही नहीं, किन्तु चौरासी के चक्र से परे हो सकता है। अर्थात् स्वयं सच्चिदानन्द स्वरूप हो सकता है। मानव जन्म सार्थक करने के लिये प्रारब्ध के ऊपर आधार नहीं रखना चाहिये । पुरुषार्थ- अर्थात् निष्काम कर्म, योगाभ्यास, भगवान का ध्यान, सत शास्त्र का पठन सत्संग और स्वधर्म के अनुसार उद्योग, धन्धा अथवा अन्य कोई व्यवहार।


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