पवित्रता

April 1941

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(ले. श्री तुलसीराम शास्त्री, सितारी)

परापवादा श्रवणं परस्त्रीणामदर्शनम्।

एतच्छौचंश्रोत्र दृशोर्जिव्हा शुद्धिरपैशुनम्॥

दूसरे की निन्दा सुनने में चित्त न देना, पर स्त्रियों को अनुचित दृष्टि से न देखना, यह श्रवण और नेत्रों की शुद्धि है और चुगलखोरी, असत्य, रूखे वचन और व्यर्थ के वार्तालाप से बचना यह जिव्हा की शुद्धि है।

अप्राणी वधम मस्तेयं शुचित्वं पाद हस्तयोः।

अश्लेष परस्त्रीणाँ शारीरं शौच मिष्यते॥

हिंसा से बचना, पैर की पवित्रता, चोरी न करना हाथ की पवित्रता है, पर स्त्री गमन से बचना शरीर की पवित्रता है।

स बाह्याभ्यन्तरं शौच मेतदुक्त मशेषतः।

सर्वस्मादधिकं प्रोक्तमर्थ शौचं स्वयंभुवा॥

यह बाहरी भीतरी सम्पूर्ण पवित्रता कही, परंतु सब प्रकार की पवित्रताओं से अधिक पवित्रता ईमानदारी के साथ पैसा-पैदा करना है।

अन्यत्र भी लिखा है-

सर्वेषामेवशौचाना मर्थ शौचं परंस्मृतम्।

योऽर्थे शुचिहि सशुचिर्न मृद्वावरि शुचिः शुचिः॥

शौचाना मर्थ शौचं च (पद्य पु0 पाताल खंड

5। 86। 66)

अर्थात्-सारी पवित्रताओं में धन सम्बन्धी पवित्रता (नेक कमाई से पेट भरना ) बड़ी है।


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