आनन्द प्राप्ति की दिशा

February 1979

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रेशम का कीड़ा अपना खोल आप बुनता है और उसी में बंध कर रह जाता है। मकड़ी के बंधन में बाँधने वाला जाला उसका अपना ही तना हुआ होता है। इसे उनकी प्रवृत्त की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। जब रेशम का कीड़ा खोल में से निकलने की बात सोचता है तो बुनने की तरह उसे कुतर डालने में भी कुछ कठिनाई नहीं होती। मकड़ी अपने फैलाये जाल को जब चाहे तब समेट भी सकती है इन्द्रिय लिप्साओं और ममता अहंता को प्रधानता देकर मनुष्य शोक सन्ताप की विपन्नता में ग्रस्त होता है। यदि वह अपनी दिशा पलट ले तो जीवन मुक्त स्थिति का आनन्द प्राप्त करने में भी उसे कोई अड़चन प्रतीत न होगी।

मनुष्य को सोचने और करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। उसका उपयोग भली या बुरी सही या गलत किसी भी दिशा में वह स्वेच्छा पूर्वक पूरा कर सकता है। अब बंधन में बंधना भी उसका स्वतंत्र कर्तृत्व ही है। इसमें माया, प्रारब्ध, शैतान, ग्रह−नक्षत्र आदि किसी अन्य का कोई दोष या हस्तक्षेप नहीं है। जीवन के स्वरूप और उद्देश्य से अपरिचित व्यक्ति ही भौतिक लालसाओं और लिप्साओं में स्वतः आबद्ध होता है।

समस्त विभूतियों से संपन्न मानव जीवन का अनुदान और सर्वतंत्र स्वतंत्रता का उपहार देकर भगवान ने अपने अनुग्रह का अंत कर दिया। अब वह मनुष्य पर निर्भर है कि वह उसका सदुपयोग करे और जीवनमुक्त स्थिति प्राप्त करे अथवा दुरुपयोग कर मोहपाश, लिप्सा जाल में आबद्ध हो जाय, उलझ कर आत्मविनाश करले। क्लेशों और दुःख दैवित्यताओं से मुक्ति उसके अपने ही हाथ में है। -श्री रामकृष्ण परमहंस


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