जीवन का सत्य और सार्थकता

February 1979

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युवराज भद्रबाहु अपने समय के सभी युवकों में सर्व श्रेष्ठ, सुन्दर और सुगठित काया का स्वामी था। उसे अपनी सुन्दर कार्या और अतुल रूप यौवन का गर्व भी था। इस गर्व के कारण वह अन्य राजकुमारों के सामने दर्प भरे वचन भी बोलता रहता था। एक दिन युवराज महामंत्री के पुत्र सुकेशी के साथ बजरा से बाहर सरिता के तट पर भ्रमण कर रहा था। भ्रमण करते हुये युवराज और मंत्री पुत्र नगर से कुछ दूर चले गये।

एक स्थान पर-जहाँ सरिता के दूसरे तट पर श्मशान था, कुछ लोग शवदाह कर रहे थे। युवराज ने मंत्री पुत्र से पूछा-‘वहाँ क्या हो रहा है?’

वहाँ खड़े लोगों का कोई स्नेही जन मर गया है-सुकेशी ने कहा-’वे लोग उसके मृत शरीर का दाह संस्कार कर रहे है।’

“अवश्य ही वह कोई कुरूप व्यक्ति होगा’-भद्रबाहु यहां भी दर्पभरी टिप्पणी किये बिना नहीं रह सका-”वह सुन्दर होता तो कोई क्यों जलाना चाहता। अपने पास नहीं रखता।”

“नहीं। ऐसी बात नहीं है, शरीर सुन्दर हो या असुन्दर मर जाने पर सभी शरीर सड़ने-गलने लगते है। अतः उन शरीरों को जला देना पड़ता है”-सुकेशी ने कहा।

यह बात युवराज के जाने किस धर्मस्थल को स्पष्ट कर गई कि उसे अपने रूप, सौंदर्य और यौवन का दर्प टूटे हुये काँच के टुकड़ों की तरह बिखर गया प्रतीत होने लगा और वह उदास रहने लगा। उदासी ने उसे इस बुरी तरह आ घेरा कि उसका सुन्दर चहरा म्लान दिखाई पड़ने लगा। राजा ने अनेक प्रकार युवराज की उदासी और मलीनता का कारण जानना तथा उसे दूर करना चाहा पर कोई परिणाम नहीं निकला।

युवराज की इस प्रकार चिन्तित और उदास देख कर मंत्री पुत्र सुकेशी भी व्यथित हुआ। वह भद्रबाहु को हर तरह से बहलाने का प्रयत्न करता पर युवराज के मुख छायी रहने वाली मलीनता मिटती ही नहीं थी। राजगुरु कालाचार्य को एक विधि सूझी और वह भद्रबाहु को अपने गुरु महाचार्य के पास ले गया।

सिद्धयोगी महाचार्य ने अपनी अंतर्दृष्टि से भद्रबाहु की मनोव्यथा, खिन्नता का कारण जान लिया और कहा-’भद्र तुम इस शरीर के अन्तिम परिणाम की चिंता करते हो।’

लगा किसी ने दुःखती रग को पहचान लिया हो और भद्रबाहु ने अपनी सारी उड़ेल दी। महाचार्य ने कहा-’अच्छा बताओ! आज तुम भवन के स्वामी हो। उस भवन में निवास करते हो। कल को वह भवन रहने योग्य नहीं रह जाता तो उस भवन को छोड़कर अन्य भवन में जाओगे अथवा नहीं।’

‘सो तो जाना ही पड़ेगा महात्मन्-भद्रबाहु ने कहा। कालाचार्य बोले- इसके बाद वह भवन गिर जाता है कि उसमें आग लग जाती है तो इससे तुम्हारा क्या बिगड़ा?’

‘कुछ नहीं गुरुदेव।’

‘वहीं नियम शरीर के लिए भी लागू होता है। इसमें निवास करने वाली आत्मा के लिए जब तक यह रहने योग्य है तभी तक यह सुन्दर है। जराजीर्ण हो जाने पर आत्मा द्वारा इसका त्याग और इसका नाश स्वाभाविक ही है। शरीर नहीं, सुन्दर तो वह आत्म तत्व है जिसके कारण इसकी प्रतिष्ठा है। इसलिये आत्मा के प्रीत्यर्थ, उसके हित व विकास के लिए शरीर को एक उपकरण मात्र समझा। उसके लिए चिंतित मत होओ।

इन वचनों ने भद्रबाहु के ज्ञान चक्षु खोल दिये और उसने निश्चय किया कि वह शरीर के गर्व की अपेक्षा आत्मा की महिमा को समझ कर जीवन सार्थकता की सिद्धि के लिए ही प्रयत्नशील रहेगा।


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