मरण और उसके साथ जुड़ी हुई समस्याएँ

February 1979

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भागवत में एक अत्यन्त मासिक आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने मरते हुए व्यक्ति को देखा, उनका अन्तःकरण जीव के मायावी बंधन देखकर द्रवित हो उठा। आत्मा ने तब शरीर छोड़ दिया था, उसके शव के समीप खड़े कुटुम्बी जन रुदन कर रहे थे। पुत्र भी विलाप कर रहा था, कह रहा था-हाय!पिताजी ने मुझे असहाय छोड़ दिया, नारद ने जीव को समझाया वत्स! इस मायावी बन्धन को तोड़ मेरे साथ चल, विराट विश्व में कैसे-कैसे स्वर्गीय स्थल हैं, चल और जीवन मुक्ति का आनन्द ले।

किन्तु मृतक पिता की आसक्ति उन विलाप कर रहे कुटुम्बियों से जुड़ी थी, नारद की ओर उसने ध्यान ही नहीं दिया अपने वासना मय सूक्ष्म शरीर से वहीं घूमता रहा। परिवारी जन शोक मनाकर धीरे-धीरे अपनी सामान्य जिन्दगी बिताने लगे, किन्तु मृतात्मा के विश्रृंखलित चित्त मेँ बेटे का विलाप ही गूँजता रहा, उसने पशु योनि में प्रवेश किया, बैल हो गया और बैल बनकर अपने किसान बैठे की सेवा करने लगा।

कुछ दिन पश्चात नारद पुनः बैल के पिंजरे में बन्द उस जीव से मिले और पूछा-तेरा मन हो तो चल उच्च लोगों की उपलब्धियों का आनन्द प्राप्त कर। बैल ने कहा-भगवन अभी तो जैसे तैसे बेटे की आर्थिक स्थित कुछ नियंत्रित हो पाई है, अभी कहाँ चलूं? नारद चले गए। जीव डण्डे खाकर भी बेटे की आसक्ति का शिकार बना रहा। मृत्यु के समय भी बेटे की आसक्ति कम न हुई सो वह कुत्ता हो गया, हर बार बेटे को देखने की मोह भावना उसे क्रमशः अल्पायु योनि में प्रविष्ट कराती रहीं। कुत्ता बनकर वह बेटे की सम्पत्ति की रक्षा में तल्लीन हो गया। पूर्व जन्मों के संस्कार और मोह भावना उसे जब उमड़ती वह भोजन के लिये चौक की ओर बढ़ता पर तभी मिलती दुत्कार और डंडे, कुत्ता ड्योढ़ी की ओर भागता। पर बेटे की रक्षा की बात, उससे खून से जोंक की तरह चिपकी हुई थी सो उसने मालिक बने पुत्र का दरवाजा नहीं छोड़ा।

देवर्षि नारद फिर आये और चलने को कहा तो कुत्ते ने कहा-भगवन आप देखते नहीं। मेरे बेटे की सम्पत्ति को चोर बदमाश ताकते रहते हैं ऐसे में उसे छोड़कर कहाँ जाऊं? देवर्षि इस बात को समझते थे कि इस मोहासक्ति में उसकी अपनी वासनायें और तृष्णायें भी जुड़ी है। वह समझाते वत्स! तू जिन इन्द्रियों को सुख का साधन समझता है वे तुझे बार-बार छोड़ देती है फिर तू उनके पीछे बावला क्यों बना है, किन्तु कुत्ते को समझ कहाँ से आती, मानवीय सत्ता तक तो सत्य को आँक नहीं पाती।

जीव को गुस्सा आया-मेरे द्वारा कमाये अन्न का एक अंश भी यह मेरा तथा कथित बेटा देता नहीं-इस बार ऐसा करूंगा कि मेरी कमाई तो मुझे खाने को मिले-इस तरह वह चूहा बना उस स्थिति में नारद ने पुनः दया की किन्तु तब भी उसे ज्ञान न हुआ, चूहों से तंग किसान ने विष मिले आटे की गोलियाँ रखीं। चूहा मर गया। मृतक चूहे ने देखा कि विष देकर मेरा प्राणांत किया गया है उसका मन क्रोध और प्रतिशोध की भावना से जल उठा। फलतः उसे सर्प योनि मिली। जीवन के बदले जीवन लेने की क्रोधाग्नि के भड़कते ही सर्प ज्यों ही बिल से बाहर निकला, उन्हीं घर वालों ने, जिनकी आसक्ति उसे निम्नतर योनियों में भ्रमण करा रही थी, लाठियों, पत्थरों से उसे कुचल कुचल कर मार डाला। बेचारे नारद ने अब उधर जाना व्यर्थ समझा क्योंकि वे समझ चुके थे कि अभी वह इस प्रतिशोध की धुन में चींटी, मच्छर मक्खी न जाने क्या-क्या बनेगा?

कहानी के शास्त्रीय प्रतिपादन संभवतः आज के बुद्धि जीवी लोगों को प्रभावित न करें। वे इसे मात्र अन्धविश्वास और पौराणिक वाक्य कहकर उसकी उपेक्षा कर दें किन्तु सत्यान्वेषी पश्चिमी जगत के मूर्धन्य वैज्ञानिकों, प्रबुद्ध व्यक्तियों, डॉक्टरों और पत्रकारों को जीवन और मृत्यु की संध्या के जो अनुभव हुये है वह इस आख्यायिका और हिन्दुओं की मरणोत्तर संस्कार परम्परा का पूरी तरह समर्थन करते हैं। यहाँ कुछ ऐसी ही घटनायें दी जा रहीं है जिनमें, मरणासन्न व्यक्तियों को हुए अनुभव आये हैं।

कई बार यों हुआ किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय सुप्रसिद्ध डाक्टर भी विद्यमान थे। लोग अंतिम संस्कार की तैयारी करने लगे तभी एकाएक मृतक की चेतना उसी शरीर में पुनः लौट आई और वह जीवित उठ बैठा। कुछ व्यक्तियों का मस्तिष्क प्रखर और हृदय संवेदन शील रहा है उन्होंने अपनी चेतना को जीवन और मृत्यु की देहली पर संधि पर स्थिर कर उस पार जो कुछ देखा उसका वर्णन मरते मरते कर दिया। किन्हीं माध्यमों के द्वारा मृतात्माओं से संपर्क का सम्मोहन विज्ञान भारत वर्ष ही नहीं पश्चिमी देशों में भी प्रचलित है। उन अनुभवों की सत्यता की परख उनके द्वारा बताई गई उन अतिरिक्त बातों और घटनाओं से होती है जो मृतक के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था पीछे माध्यम के बताये गये तथ्यों के आधार पर खोज की गई तो वह घटनाऐं सत्य पाई गईं।

इस तरह की घटनाओं के सैकड़ों उदाहरण डा. रावर्ट कूकल बी.एस.सी. (साइकोलॉजी डी.एस.सी., पी.एच.डी) पूर्व निर्देशक वनस्पति विज्ञान एडरबीन विश्वविद्यालय की पुस्तक “टेकनीक्स आफ एस्ट्रल प्रोजेक्शन, एन्थोनी बोर्गिया लन्दन की पुस्तक “मोर एबाउट लाइफ इन दी वर्ल्ड अनसीन”, डब्ल्यू एच. ऐलन लन्दन द्वारा प्रकाशित डा. जेम्स पाइक की पुस्तक “दि होराइजन” “पोस्टमार्टम जनरल,” “लाइफ वर्थ लिविंग” तथा “सुप्रीम एडवेयर” जिन्हें क्रमशः ग्रेस रोशर (प्रकाशन जूम्स क्लार्क एण्ड कं.) मिसेज जैन शेरवुड (प्रकाशन मेसर्स नेबिल्ले स्पेयर मैन 112 ह्वाइट फील्ड स्ट्रीट लन्दन) मिसेज हैस कोप (प्रकाशक मेसर्स चार्ल्स टेलर, बुक हाउस लन्दन) तथा जियो लाजिकल सर्वे लन्दन के तत्कालीन प्रधानाचार्य और भूगर्भ विज्ञान वेत्ता हैं। इस तरह के विख्यात व्यक्तियों की अनुभूतियों को यों ही ठुकराया जाना मानवीय आस्था के लिये घातक नहीं तो अशोभनीय अवश्य कहा जायेगा। इन पुस्तकों के कुछ उद्धरण-

लारेंस आफ अरेबिया- जिन्हें लोग स्काट कहकर बुलाया करते थे, ने अपने अनुभव इन शब्दों में व्यक्त किये है-यह एक ऐसी दुनिया है जहाँ न प्रकाश है और न अन्धकार है धूमिल वातावरण जान पड़ता है, ऐसा लग रहा है कि दीपक बुझ रहा है और मुझे निद्रा घेरती चली आ रही है, इस समय मेरी इच्छायें-नींद में न जाने के लिये झगड़ती और मचलती सी लगती हैं किन्तु ..............!

“वियान्ड दि होराइजन” में गोर्डन का अनुभव-मेरी चेतना शरीर से बाहर आ गई, मैंने इतना हल्कापन अनुभव किया मानो सारे शरीर की थकावट विश्राम में बदल गई हो, पर मेरे मन में बार-बार पत्नी रोशर का स्नेह उमड़ता था अतएव वहाँ से हटने का मन नहीं कर रहा था। पत्नी की आँखों में आँसू थे, उनकी रोने की आवाज और वह जो भी कहती थी उन्हें मैंने स्पष्ट सुना। उन्होंने यह शब्द कहे मैंने उनको समझाने, उनके आँसू पोंछने का प्रयास भी किया पर न तो मुझ से आँसू धुले न किसी ने मेरी आवाज सुनी, तब मैंने अनुभव किया कि यह शरीर छूट जाने की अवस्था है। उस समय बहुत दुख हुआ। मैंने सारी शक्ति लगाकर अपने शरीर में घुसने का प्रयास किया, पीछे क्या हुआ? कैसे हुआ? याद नहीं आता।

आफ्टर डेथ में प्रकाशित जुलिया का संस्करण और मासिक है। यह पुस्तक 1897 प्रकाशित हुई और अब तक उसके लगभग बीस संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। जर्मन,स्विस फ्रेंच, डेनिस, रशियन तथा इटैलियन भाषा में उसके अनुवाद भी छप चुके है। जुलिया एक बहुत रंगीन स्वभाव की लड़की थी। सुन्दर होने के कारण उसके अनेक मित्र थे। अपने मित्रो से वह प्रायः कहा करती थी कि यदि मेरी मृत्यु हुई तो भी मिलती अवश्य रहूँगी। संयोग वश 12 दिसम्बर 1891 में उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद उसके कई मित्रो ने तो उसके प्रेत को मंडराते हुए देखा ही कुछ अजनबी आत्माओं को उसके संदेश भी मिले जिनमें उन लोगों को न केवल वह सन्देश प्राप्त हुए जिन्हें जूलिया के अत्यधिक निकट सम्बन्धी ही जानते थे। ऐसे लोगों में कुछ वह भी थे जिन्होंने उसे कभी देखा न हीं था पर जब सैकड़ों फोटो उनके सामने रखे गये तो उन्होंने जुलिया का फोटो ग्राफ पहचान कर बता दिया-उन लोगों ने बताया-जुलिया की आत्मा अपने मित्रों के लिये भटकती रहती है, वह उन्हें देखती है पर स्वयं न देखे जाने या स्पर्श जन्य अनुभूति का आनन्द न प्राप्त कर सकने के कारण वह आतंकित और पीड़ित रहती है।

डा. रावर्ट कूकल ने स्वीकार किया है मृत्यु के बाद मनुष्य अपने सूक्ष्म अणुओं के शरीर से बना रहता है उसके मन की चंचलता, इच्छाएं और वासनायें बनी रहती हैं यदि वे अतृप्त रहें या जहाँ आसक्ति होती है जीव वहीं मंडराता रहता है।

इन उदाहरणों में अभिव्यक्त सत्य पढ़ समझकर देवर्षि नारद की वह व्यथा निरर्थक नहीं लगती जिसमें मनुष्य जैसे विचार शील प्राणी को नितान्त पार्थिव होने का भ्रम हो जाता है। अपने यहाँ किसी की मृत्यु के समय दुख न करने, धार्मिक वातावरण बनाने के पीछे ऐसा ही अकाट्य दर्शन सन्निहित है कि यदि मृत्यु के समय जीव अशान्त आसक्त रहा हो तो देह त्याग के बाद भी यह अशान्ति बनी न रहे अपितु उसे परामर्श बोध हो जिससे वह जीवात्मा की विकास यात्रा पर चल पड़े।

किन्तु भ्रम में पड़ी माननीय बुद्धि को क्या कहा जावे? जो इतना भी नहीं सोच पाता कि मृत्यु के समय विचारणायें, इच्छायें, स्वभाव सब वहीं तो रहेंगे जैसा जीवन भर का अभ्यास होगा जिसने जीवन भर परमात्मा की याद न की, अपना लक्ष्य न पहचाना, शारीरिक सुखों और इन्द्रिय जन्य अनुराग को निरर्थक नहीं समझा, उन्हीं में आसक्त रहा उसकी अन्तिम समय भावनायें एकाएक कैसे बदल पायेंगी।

मृत्यु जीवन का यथार्थ है, उसे कोई टाल नहीं सकता, फिर उपेक्षा क्या हितकर हो सकती है। समझदार वह है जो एक महान यात्रा की तैयारी के इस श्री गणेश पर्व की अच्छी तरह जान लेता है और परिपूर्ण तैयारियां करके चलता है जिससे महान् यात्रा के आनंद मिल सकें। मानवेत्तर योनियों में भटकना पड़े तो महर्षि नारद के जीव की कथा अपनी ही समझनी चाहिए किसी और की नहीं।


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