आर्श्चवत्पश्यति कश्चिदेनं

February 1979

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मनुष्य - शरीर की संरचना अपने आप में इतनी विस्मयकारक है कि उसका जितना ही अधिक विचार-विश्लेषण किया जाय, उतना ही अधिक यह तथ्य स्पष्ट होता है कि ईश्वर न इस अद्भुत यंत्र का उपहार हल्के-फुल्के प्रयोजनों के लिये कदापि नहीं दिया होगा जिस आश्चर्यजनक वैज्ञानिक सामर्थ्य, गणितीय बुद्धि तथा व्यवस्था एवं संचालन की अनुशासित योजना से इस शरीर का निर्माण किया गया है, वह इतनी प्रचंड एवं समर्थ चेतन सत्ता का ही कार्य हो सकता है, कि उसके इस निर्माण को कुतूहल या क्रीड़ा मान सकना असम्भव है। किसी खेल भर के लिये, विनोद-मनोरंजन के लिये भला कभी ऐसा अनुपम और विराट यंत्र समूहों से सज्जित विशाल कारखाना रचा जाता है?

वैज्ञानिक अन्वेषणों ने यह तथ्य स्पष्ट कर दिया है कि मानव-शरीर अपनी मिसाल आप है। यह सच है कि कुछ प्राणी मनुष्य से अधिक तेज दौड़ते हैं, कुछ लम्बी कूद लगा सकते हैं, कोई उड़ सकते हैं, तो कोई स्पर्श, श्रवण या घ्राण-संवेदना की दृष्टि से मनुष्य हजार गुना विकसित होते है। लेकिन बौद्धिक-सामर्थ्य ही नहीं, देह की संरचना की दृष्टि से भी मनुष्य अनुपम है। ऐसा कोई भी जानवर नहीं है, जो दौड़ने कूदने, उछलने और फेंकने सब में समान रूप से दक्ष व निपुण हो।

206 हड्डियों और 600 से कुछ ऊपर माँसपेशियों के ऊपर चमड़ी का चोला तना है। हड्डियाँ, माँसपेशियाँ और चमड़ी तीनों की ही संरचना का कौशल अनूठा है।

हड्डियों जैसी मजबूत किन्तु हल्की वस्तु की कल्पना करना भी कठिन है। पूरे शरीर का जितना वजन होता है, हड्डियाँ उसके पंचमांश से भी कम वजन की होती है। अपनी देह का ही भार इन पर कुछ कम नहीं होता। जब हम खाली हाथ डुलाते चल रहे होते हैं, उस समय हमारी जाँघ की हड्डी के एक-एक वर्ग इंच क्षेत्र पर पाँच-पाँच सौ किलो का दबाव पड़ रहा होता है। शरीर का भार, धरती का गुरुत्वाकर्षण और हवा की तेज मार ये तीन दबाव हड्डियाँ झेल रही होती है। इस दबाव को जो उस समय मानव-शरीर की हल्की हड्डियाँ झेल रही होती है, इस्पात की छड़ ही बर्दाश्त कर सकती है। जब कुली भारी बोरों का बोझ ढोते हैं, जब वेट-लिफ्टर चैम्पियन प्रतियोगिता प्रदर्शनों में सैकड़ों किलो वजन उठाते हैं, तब हाथ और पैर की हड्डियों पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है। सीमेन्ट और इस्पात को भी मात करने वाली ये हड्डियाँ कितनी मजबूत और फिर भी कितनी हल्की होती है।

फिर इन हड्डियों की बनावट का कौशल और सूझबूझ भी गजब की हैं आधुनिक इमारतों में गोलाईदार पतली छत बनाई जाती है। क्योंकि अंडाकार खोल पतला होने पर भी मजबूत रहता है। मानव-मस्तिष्क की रक्षक खोपड़ी की हड्डियाँ ऐसी ही गोलाईदार मजबूत प्लेटों की शक्ल में होती है। जहाँ जैसी आवश्यकता हो वहाँ वैसा आकार। जाँघ की हड्डियों पर ज्यादा जोर पड़ता है, तो उन्हें भी एक खोखले बेलन की आकृति दी गई है। जाँघ और कूल्हे की हड्डियों या बाँह और कंधे की हड्डियों का जोड़ ऐसा है, जैसे किसी गोल छल्ले में गेंद फंसादी जाये, ताकि आसानी से घूम भी सके और फंसी भी रहे। खोपड़ी, कूल्हे जैसे स्थानों में हड्डी का हिलना-डुलना घातक-हानिकारक हो सकता है, अतः वहाँ के जोड़ अति सुदृढ़ बने हैं। नारी की कूल्हे की हड्डियाँ पुरुषों से भिन्न होती है। उनमें यह व्यवस्था रहती है कि प्रसव-काल समीप आते ही जोड़ कुछ खुल जाये, ताकि शिशु बाहर सुगमता से आ सके। पसलियों का जोड़ सामने सीने की हड्डी पर मजबूत होता है किन्तु पीछे रीढ़ की हड्डी के साथ उनके जोड़ घूम और फिसल सकने वाले होते हैं, ताकि फेफड़ों की धौंकनी के फैलने-सिकुड़ने में आसानी हो।

हड्डियों की इन जोड़ों की सुव्यवस्था का ही परिणाम है कि हम शरीर को तरह-तरह से घुमा सकते हैं। हाथों को पूरे 360 अंश के कोण में से किसी भी कोण पर, किसी भी दिशा में घुमाया जा सकना अपने आप में एक चमत्कार ही है। कोई भी एक अकेली क्रेन इस प्रकार सभी दिशाओं में नहीं घूम सकती। फिर इन हड्डियों में ऐसी विशिष्टता है कि प्रबल आघात-प्रहार से यदि वे टूट जायें, तो स्वतः ही जुड़ सकती है। हाँ अपने आप जुड़ने की क्रिया धीमी अवश्य होती है। जब तक मनुष्य अपने ही शरीर पर अत्याचार की अधिकता न करदे, हड्डियों की कोई बीमारी नहीं लगती।

वस्तुतः मनुष्य का शरीर ही नहीं, मन, बुद्धि, अन्तः-करण सभी इतने समर्थ होते हैं कि छोटी-मोटी भूलों को सुधार लेना या हल्के-फुल्के आघातों को झेल लेना उनके लिये सरल बात होती है। अनाचार और अपव्यय की अति ही उन्हें जर्जर और रुग्ण बनाती है।

इसी प्रकार दुराग्रह ही मनुष्य को रुक्ष और संकीर्ण बनाते है। अन्यथा उसमें स्वाभाविक रूप से सरसता भरी लोच रहती है। जिससे वह हर परिस्थिति में तालमेल बिठा सकता है और प्रतिकूलताओं के बीच प्रसन्न रहते हुए उन्हें क्रमशः अनुकूलता में बदल सकता है।

शरीर की माँसपेशियों तक में यह लोच और शक्ति पाई जाती है। इसीसे सिकुड़ती-फैलती रहकर वे देहव्यापार साधे रहती है। ये अपने से हजार गुना वजन सम्हालती रहती है। इनकी क्षमताएँ विस्मयकारक हैं। पेट की माँसपेशी भोजन ग्रहण करने के लिये स्वतः फैलती चली जाती है। हृदय की माँसपेशी गर्भस्थ शिशु में तीसवें दिन से काम करना शुरू कर देती है और ‘अहर्निश सेवामहे’ का साकार उदाहरण बनी आजीवन निरन्तर क्रियाशील रही आती है। साधारण काम करते हुए प्रत्येक व्यक्ति अपनी माँसपेशियों पर इतना जोर डालता है जितना कि जोर टनों माल उठाते समय किसी क्रेन को लगाना पड़ता है। अपनी हड्डी और माँसपेशी तो आदमी साधारणतः देख नहीं पाता। पर चमड़ी पर उसकी नजर नित्य ही पड़ती है। इस चमड़ी को रंगने पोतने में लोग हजारों रुपये खर्च करते हैं। पर चमड़ी के वास्तविक चमत्कार को कम ही लोग जान पाते हैं और जानने पर भी स्मरण तो और भी कम लोग रख पाते हैं।

(1) बाहरी ताप-शीत को झेलने (2) शरीर के भीतरी ताप को सामान्य बनाये रखने, (3) स्पर्श बोध के द्वारा आसपास की जानकारी निरन्तर देते रहने और (4) भीतरी अंगों-अवयवों को चोट-चपेट, कीटाणु-विषाणु से बचाये रखने की चतुर्विध सेवा चमड़ी निरन्तर करती रहती है। जबकि शरीर के किसी भी हिस्से में यह एक इंच के पंचमांश से भी अधिक ही पतली होती है। इतनी नाजुक पतली इस चमड़ी के भी हिस्से होते हैं

चमड़ी का बाहरी हिस्सा जो एपीडर्मिस कहलाता है, एक चतुर चौकीदार है। अपनी चौकीदारी के कर्त्तव्य की पूर्ति के लिये जहाँ जैसी व्यवस्था आवश्यक होती है वैसी ही व्यूहरचना उसने कर रखी है। आँख जैसे कोमल स्थान की रक्षा के लिये वह इतनी पतली व मृदु हो गई है कि एक इंच के दो हजारवें भाग के बराबर ही उसकी तह है। अंगुलियों के नाजुक पोरों की रक्षा के लिये तो उसने नाखून का ही निर्माण कर डाला है। तलुओं में वह मोटे-तगड़े चौकीदार के रूप में बैठी है। हड्डियों के उन जोड़ो पर जहाँ मोड़ने की जरूरत पड़ती है, यह चमड़ी ढीली-ढाली होती है।

बाहरी चमड़ी के नीचे की तह किसी विशाल एवं व्यवस्थित दल के निष्ठावान स्वयं सेवकों की तरह चुपचाप काम करती रहती है। वह नित नये कोश रूपी कार्यकर्ता तैयार कर उन्हें व्यवस्थित रीति से आगे बढ़ाती है, ताकि समय आने पर वे बाहर मंच की व्यवस्था सम्हाल सकें। दुनिया को गोर-काले, भूरे-पीले के भेदों में फँसाने वाला “मेलेनिन” नामक पदार्थ इसी तरह तरह में होता है।”मेलेनिन” की अधिकता से रंग काला हो जाता है। तेज धूप और गर्मी से शरीर की रक्षा के लिये अधिक “मेलेनिन” की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए गर्म देशों के लोग श्यामवर्णी होते हैं। गोरे भी अधिक समय यहाँ रहें, तो ताम्बई-भूरे होने लगते हैं।

भीतरी चमड़ी का कारोबार और भी जटिल है। उनमें लाखों बारीक तार यानी स्नायु-तंतु फैले रहते हैं, जो प्रत्येक स्पर्श की संवेदना मस्तिष्क तक ले जाते और वहाँ से आवश्यक सूचना-निर्देश लाते हैं। सर्दी-गर्मी, पीड़ा-रोमाँच आदि की अनुभूतियों के सन्देश- वाहक ये बारीक तार कुल मिलाकर अपने आप में किसी विशाल दूरभाष-केन्द्र की छवि पैदा करते हैं। मस्तिष्क के ‘हाइपोथेलमस’ केन्द्र से जैसे ही दूरभाष पर खबर मिली कि शरीर का तापमान बढ़ गया है वैसे ही रक्तवाहिनियों में रक्त प्रवाह की और चमड़ी में स्थिर स्वेदग्रंथियों की गति तेज हो जाती है और खून की बढ़ी हुई गर्मी बाहरी चमड़ी के रास्ते, पसीने के रूप में निकलने लगती है। तापमान गिरने की इस टेलीफोन से खबर मिलने पर रक्तप्रवाह कम हो जाता है, स्वेदग्रंथियां भी धीमी चाल से काम करने लगती हैं और चमड़ी तथा चर्बी की तहें शरीर की गर्मी को बाहर नहीं जाने देतीं। इस प्रकार, किसी वायरलेस-सज्जित, अनुशासित एवं ईमानदार पुलिस-दल की तरह चौकस और सक्रिय, समर्पित स्वयं सेवकों की तरह निष्काम भाव से सेवारत तथा परिपक्व बुद्धि संचालकों-निर्देशकों की तरह सूझबूझ से काम लेने वाली यह शरीर की व्यवस्था जितनी विशाल है, उतनी ही जटिल भी।

इसकी क्रियाशीलता, सन्तुलन-क्षमता, लचीलापन, दृढ़ता सभी कुछ आश्चर्यजनक है। योग-व्यायाम, जिम्नास्टिक, सर्कस और ओलम्पिक खेलों में शरीर के इसी सन्तुलन के करतब देखकर लोग मुग्ध होते है। हाथ की अंगुलियों से उसी हाथ की कुहनी को छू सकना याकि गर्दन को मोड़कर चेहरा पीठ की तरफ ले जाना जैसे मोड़ ही असम्भव हैं। अन्यथा मानव-शरीर में इतनी अधिक मुड़ सकने, लचक-झुक सकने की सन्तुलन-सामर्थ्य है कि जो बेमिसाल है। क्रियाशीलता भी ऐसी ही अथाह है। बहुत अधिक श्रम करने पर माँसपेशियों में जो थकान होती है वह भी आराम के बाद पूरी तरह दूर हो जाती है, यदि मनुष्य स्वयं ही व्यर्थ की चिन्ताओं से मानसिक तनाव न लाद ले।

सामान्यतः मनुष्य अपने शरीर को इन आश्चर्यजनक क्षमताओं के प्रति जागरूक नहीं रहते। दूसरों की असमानताएं ही उन्हें आकर्षित करती हैं, पर वे असामान्य करतब वस्तुतः प्रत्येक के शरीर में अन्तर्निहित सामर्थ्य के किसी अंश-विशेष का नहीं प्रयत्नपूर्वक किया गया विकास होते हैं।

बिना कभी सोये दिन−रात लगातार वर्षों काम करने वाले अपवाद व्यक्ति की क्रियाशीलता का स्मरण कराते हैं। चलती रेल, मोटर रोक देने वाले राममूर्ति जैसे व्यायाम-विशारदों के कतरब हमें शक्ति का भान कराते हैं। कीलें, पिन और रेत खा-पचा लेने वालों को देखकर पाचन-शक्ति का ध्यान आता हैं। पिछले दिनों जब बंगला देश का स्वातंत्र्य-संघर्ष चला था, तो उसकी सहायता हेतु बीकानेर में श्री आशुगिरि ने लम्बे समय तक एक समय बालू-रेत खायी थी और बचा अन्न बंगला देश के लिये अर्पित किया था।

किन्तु यदि अपने ही प्रति जागरूकता हो तो ऐसी असामान्य घटनाओं को बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं पड़े। प्रत्येक मनुष्य के शरीर में प्रति क्षण चल रहा भव्य क्रिया-व्यापार स्वयं में ही इतना विस्मयविभोर कर देने वाला है कि आश्चर्यों की खोज के लिए बाहर दौड़ने के मेहनत जरूरी नहीं। अपने भीतर ही एक जादूगर मौजूद है। आवश्यकता अपनी इन विलक्षणताओं को समझने तथा उनका मूल्य आँकने और उनसे मार्गदर्शन पाने की है। परमेश्वर ने इतनी क्षमताएँ जिसे दी हैं वह मनुष्य खाने-पीने और रोने-कलपने में ही जीवन गुजार दे, तो उससे अधिक अयोग्य और अपात्र कौन होगा? हर परिस्थिति में मार्ग ढूंढ़ सकने और हजार तरह की गतिविधियों में दक्ष हो सकने की क्षमता उसमें विद्यमान है। आवश्यकता अपनी कीमत आप आँकने की है।

माँ के स्तन से जो दूध प्राप्त होता है, वह किसी भी “रेफ्रिजरेटर” में संरक्षित दूध को ताजगी में मात करता है। कान जैसा “साउण्ड फिल्टर” यन्त्र मनुष्य द्वारा बना पाना अभी स्वप्न ही है। आँख जैसे कैमरों का बन पाना भी अभी तक सम्भव नहीं हो सका है। फिल्में बनाते समय भी फोटो दृश्य और कैमरे की दूरी का सन्तुलन साधते हुए ‘फोकस’ मिलाना पड़ता है। ‘फोकल लेन्थ’ को इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता। पर पास से पास और दूर से दूर का दृश्य देखने के विभिन्न क्रम हम अपनी आँखों को आगे-पीछे हटाये बिना मजे में देखते रह सकते हैं। फिर वे एक ही बार में सही फोटो उतार लेती है, जबकि कैमरे के उल्टे फोटो दुबारा प्रिन्ट कर सीधे किये जाते हैं। सुरक्षा और सफाई के स्वतः प्रबन्ध और रंगों के वर्गीकरण की अतिरिक्त विशेषताओं का तो कैमरे में हो सकने का प्रश्न ही नहीं।

यही बात चारों तरफ की और भिन्न-भिन्न ‘फ्रीक्वेंसी” की ध्वनियाँ स्पष्ट सुन सकने की क्षमता वाले कानों के बारे में है।

हृदय, फेफड़े, गुर्दे सभी की सामर्थ्य गतिविधियाँ विस्मयकारी हैं। इनकी निरन्तर श्रमशीलता और कर्तव्यपरायणता इनके अद्वितीय समर्पण के प्रतिपादक तथ्य हैं। भोजन पचाने की आमाशय की क्रिया का तो कहना? अन्न को रक्त में बदल देने वाली इस रसायनशाला में अत्यंत जटिल और विलक्षण रासायनिक प्रक्रियाएँ सम्पन्न होती रहती है।

इतने अधिक जटिल, बारीक शक्तिशाली और समर्थ यन्त्रों का संचालन-निर्देशन प्रधानतः शरीर में मस्तिष्क के नियन्त्रण से स्वतः होता रहता है। उसके लिये सचेत प्रयास कम ही किये जाते हैं। इस विराट और भव्य कारखाने को जितना ही देखा-परखा, समझा-सोचा जाय, उतना ही विस्मय भाव बढ़ता जाता है और गीता की ये पंक्तियाँ (2129) बार-बार याद आती है-

“आश्चर्य वत्पश्यति कश्चिदेनं, आश्चर्य व द्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्य वच्चैनमन्य श्रृणोति, श्रृत्वाप्येनं वेद न चैक्कश्चित्॥”

अर्थात्- कुछ लोग इस मानव पिंड को आश्चर्य से भरकर देखते हैं, कुछ लोग आश्चर्यवत्-इसका वर्णन करते हैं, जिसे कुछ अन्य आश्चर्य से भरकर सुनते हैं। इस पर भी कई लोग इसे जान नहीं पाते।

आवश्यकता इस आश्चर्योत्पादक अनुपम कृति के स्वरूप एवं प्रयोजन को समझने की है। इतनी श्रेष्ठ कृति को क्रीड़ा-विनोद के लिए सृजित मानने से बड़ी मूढ़ता और क्या होगी? फिर भी अपने को बुद्धिमान कहने-मानने वाले मनुष्यों में ऐसे मूढ़ों की संख्या कम नहीं अधिक ही है। यह भी अपने आप में एक आश्चर्य ही है। अन्यथा इतनी समर्थता के स्वामी में मूढ़ता-हीनता तो दुलर्भ ही होनी चाहिए।

आवश्यकता इन सर्वश्रेष्ठ अनुदानों के सदुपयोग द्वारा अपने जीवन को सार्थक बनाने की है। तभी उस कर्ता की कारीगरी का सही सम्मान समझा जायेगा।


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