कहना ही क्या (kahani)

February 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

हिरण्याक्ष का वध करने के उपरान्त भी जब भगवान वाराह अपने लोक को वापिस नहीं लौटे तो वहाँ चिन्ता होने लगी। देवता व्याकुल हुए और शंकर जी को तलाश करने भेजा गया।

शंकरजी ने भू लोक में उन्हें सर्वत्र खोज डाला। देखा तो वे अपना परिवार बनाये बैठे है। स्त्री बच्चों के समक्ष क्रीड़ा संलग्न हो रहे है। शूकरी और उसके शिशु शावक उन्हें अपना विनोद साधन बनाये हुए है।

वापिस ब्रह्मलोक चलने की प्रार्थना जब बाराह जी ने अस्वीकार करदी और अपना क्रीड़ा विनोद छोड़ने का तैयार न हुए तो क्रुद्ध शंकरजी ने त्रिशूल से उनका पेट फाड़ डाला। शरीर क्षत−विक्षत हो गया तो विवश होकर बाराह भगवान अपने लोक जा पहुँचे।

प्रतीक्षा में चिन्तित बैठे हुए देवताओं ने जब विलम्ब का कारण पूछा तो उनने कहा--”शरीर और उसकी ममता बड़ी प्रबल है। जीवधारी उसी में लिप्त होकर धारियों की तरह मेरी भी दुर्गति हुई। शंकरजी ने उस माया को विदीर्ण न किया होता तो मेरे लिए भी वापिस लौटना कठिन था।

शिवजी हँस पड़े, उनने कहा-देवताओं! अब तुम समझे होंगे कि मेरे विरक्त विचरण का रहस्य क्या है। आसक्ति के बंधनों में बंधे हुए जीव, त्याग का आधार न लें तो उनका छुटकारा भी संभव नहीं। आसक्ति ग्रस्त बाराहजी की जब यह दुर्गति हुई तो दूसरों के बारे में कहना ही क्या है?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118