बुढ़ापा मिटाया तो नहीं घटाया जा सकता है

February 1979

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उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन यह सृष्टि का सुनिश्चित नियम है। नियति के गतिचक्र पर परिभ्रमण करते हुए पदार्थों और प्राणियों में से कोई भी इस व्यवस्था में व्यतिरेक उत्पन्न नहीं कर सकता। जो जन्मा है वह मरेगा। जो बढ़ेगा वह परिपक्व होगा। प्रगति की एक सीमा है उसके बाद ढलान आती है। सूरज दोपहर तक चढ़ता है और इसके बाद ढलना प्रारम्भ कर देता है। परिपक्वता जीर्णता में बदलती है, और क्रमशः ऐसी अवस्था आती है जिसे अनुपयोगी या अशक्त कहा जा सके। इस स्थिति में पहुँचे पदार्थ या प्राणी को नये सिरे से फैक्टरी में गलने और ढलने जाना पड़ता है। इस परिवर्तन को मरण कहा जाता है। एक वस्तु का मरण ही दूसरी का जन्म है। एक का समापन दूसरी का श्रीगणेश कहलाता है।

इस गतिचक्र के अनुसार जन्म ने वाले को प्रौढ़-प्रौढ़ को जीर्ण-होना स्वाभाविक है। समयानुसार शारीरिक जीर्णता का आता और विदाई समारोह की व्यवस्था बनना ऐसा नियति क्रम है जिस पर न तो आश्चर्य की आवश्यकता है और न उसे पलटने का प्रयास करने की।

चर्चा का विषय व्यतिरेक है। जीर्णता समय से पूर्व आ जाती है और अपेक्षाकृत अधिक अशक्त बनाती, अधिक कष्ट देती और अधिक निराशाजनक दिखती है। यहीं चिन्ता का विषय है। अन्यथा हर आयु का अपना महत्व और अपना आनन्द है। बचपन अल्हड़पन के लिए नवयौवन, जोश खरोश के लिए-प्रौढ़ता सृजन कृत्यों के लिए और वृद्धावस्था परिपक्वता के लिए प्रख्यात है। मानवी जीवन क्रम और समाज के सुसंचालन में इन सभी विशेषताओं का समन्वय ही नवीनता का आकर्षण बनाये रहता है। आशा और उमंगों का सफलताओं और प्रतीक्षाओं का सिलसिला इस परिवर्तन क्रम के अनुरूप ही चलता है। स्थिरता एवं एकरूपता बनी रहने पर तो यहाँ सब कुछ नीरस लगने लगेगा और जड़ता जैसी स्थिति बन जायेगी।

आयुष्य के वर्गीकरण में वृद्धावस्था को अधिक कुरूप और कष्टदायक माना जाता है और यौवन को अधिक सुखद तथा सुन्दर। किन्तु बात ऐसी है नहीं। कुछ बातों में यौवन और कुछ में बुढ़ापे का महत्व है। ज्ञान और अनुभव की परिपक्वता, व्यक्तित्व की प्रखरता जीवन इतिहास के साथ जुड़ी हुई प्रामाणिकता का लाभ वृद्धावस्था में ही मिल पाता है। उनका परामर्श और नेतृत्व जन साधारण के गले उतरता है। यह लाभ प्रायः युवावस्था में नहीं ही मिल पाते शारीरिक समर्थता-संघर्ष की सक्षमता, इन्द्रिय शक्ति की प्रौढ़ता, कायिक सुन्दरता, जैसी विशेषतायें जवानी में ही पाई जाती हैं। पुरुषार्थ और प्रतिस्पर्धा में वे ही बाजी मरते है। गंभीरता पूर्व विचार करने से प्रतीत होता है कि दोनों की परिस्थितियों में कुछ सुविधायें हैं और कुछ कठिनाइयाँ। दोनों में से न कोई पूर्णतया बुरी है और न भली। दो की ही क्यों चर्चा की जाये। तीसरे बचपन का अल्हड़पन अपने आप में एक अनोखा आनन्द है। एक बार उसके चले जाने के बाद तरसते ही रहना पड़ता है। दूसरे बच्चों को देखकर, बचपन की सुन्दरता, मस्ती, स्फूर्ति और निश्चिन्तता की झलक देख-देखकर मन बहलाना पड़ता है। चौथे मरण की बात सोची जाये तो उसमें नया वस्त्र पहनने, नये मकान में बसने जाने, नई यात्रा पर निकलने जैसी उत्साहवर्धक स्थिति का आभास मिलता है। रात्रि का अवसान और प्रभात का अरुणोदय किसी को अखरता नहीं, फिर जराजीर्ण अंधियारी से निकलकर नव जीवन का आनन्द देने वाला परिवर्तन मरण ही किसी को क्यों अखरना खटकना चाहिए?

शारीरिक दृष्टि से बुढ़ापे का कारण यह है कि अवयवों की शक्ति काम करते-करते पुरानी मशीनों की प्रकृति क्रम के अनुसार घटती चली जाती है। काम का दबाव उस अनुपात से नहीं घटता। पाचन के लिए उपयुक्त रसों का स्राव उतना नहीं होता जितना कि प्रस्तुत भोजन पचाने के लिए आवश्यक है। फलतः अपच रहने लगता है और उस कचरे को निकालने में ही पाचन तंत्र की अधिकाँश शक्ति चुक जाती है। दैनिक कार्यों के लिए जितनी शक्ति चाहिए उतना न तो रक्त बनता है और न उसमें पोषण का उतना अनुपात रहता है। आमदनी कम और खर्च अधिक होने पर व्यवसाय में घाटा ही पड़ता जाता है शरीर भी क्रमशः इसी क्रम से दिवालिया बनता है और बुढ़ापा चढ़ता जाता है।

इस क्रम में बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए आवश्यक सुधार परिवर्तन कर दिया जाये तो बुढ़ापा मिट तो नहीं सकता, पर उसे काफी दूर तक हटाया जा सकता है। तेजी से बढ़ती हुई अशक्तता और कुरूपता से भी बहुत हद तक बचा जा सकता है।

दबाव डालने वाले श्रम को बदल कर हलके परिश्रम वाले काम चुने जा सकते हैं। आवश्यक नहीं कि कठोर श्रम ही उपयोगी होता हो। कितने ही काम ऐसे हैं जो हल्के होते भी उपयोगिता की दृष्टि से उच्चस्तरीय होते हैं। पाचन तंत्र की शिथिलता को देखते हुए भोजन की मात्रा और गरिष्ठता में कमी की जा सकती है। अधिक पौष्टिक और अधिक मात्रा में भोजन में लाभ सोचने की आदत और मान्यता दोनों ही गलत हैं। यही यह है कि जितना ठीक तरह पचेगा वहीं सामर्थ्य देगा। अधिक खाकर उनकी अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहता है जो भूख से कम खाते और पेट खाली रखते है। पेट को भूख से कम खाते और पेट खाली रखते हैं। पेट की लदान ढोने और कचरा बुहारने के भारी काम से छुटकारा मिल सके तो वह स्वल्प मात्रा में लिये गये हलके भोजन को पचाकर इतनी सामर्थ्य देता रह सकता है जिसके सहारे बुढ़ापे में भी लम्बे समय तक जीवन रथ को लम्बी यात्रा तक चले जाने में समर्थ रखा जा सके। दिनचर्या का व्यतिक्रम बहुत भारी पड़ता है। शरीर को ढर्रे को जिन्दगी अनुकूल पड़ती है। जवानी के जोश में तो उछल कूद और अनिश्चित छलाँग लगाना अखरता नहीं, किन्तु बुढ़ापा एक नियत और निर्धारित क्रम अपनाने में सुविधा अनुभव करता है। ढलती हुई आयु में अनियमितता जितना बचा जा सके उतना ही उत्तम है। इन्द्रिय शक्तियों का अपव्यय जितना कम हो उतना ही अच्छा है। यह भण्डार आवेशों की आकुलता में गंवाया तो जा सकता है पर युवावस्था बीत जाने के उपरान्त फिर नये सिरे से उसे संचित नहीं किया जा सकता।

समय रहते चेतने की नीति यदि स्वीकार हो तो वृद्धावस्था के आगमन की गति धीमी करने वाले आवश्यक उपाय सहज की अपनाये जा सकते हैं। काम तो पूरे समय किया जाता रहे, पर उसे हलका बनाया जाये। बीच-बीच में सुस्ता-सुस्ता कर किया जाये। आलसी बनने की आवश्यकता नहीं है। काम को मनोरंजन बनाया जा सकता है और उसे खेल की तरह खेलते हुए स्वास्थ्य रक्षा-उत्पादन लोक-हित और आत्म-सन्तोष का बहुमुखी लाभ उठाया जा सकता है।

भूख घट जाये तो भोजन की मात्र तुरन्त कम कर देनी चाहिए पेट की थैली तो युवावस्था जितनी ही फैली रहती है और उसे ठूँसते रहने की पुरानी आदत भी बनी रहती है किन्तु पाचन शक्ति की न्यूनता से उतना पच नहीं पाता। अपच से विष उत्पन्न होता है और उससे शरीर को वृद्धावस्था के साथ-साथ रुग्णता का भी कष्ट सहना पड़ता है। यह सोचना गलत है कि कम खाने से कम शक्ति मिलेगी। भोजन का उतना ही अंश लाभदायक होता है जो पच सके। बुढ़ापे में थोड़ा भोजन ही पच सकता है। अस्तु उसकी मात्र पेट की सामर्थ्य गिरते ही तुरन्त घटानी आरम्भ कर देनी चाहिए। युवावस्था की तुलना में वृद्धावस्था का भोजन आधा तो कर ही देना चाहिए। आवश्यकतानुसार उसे और भी अधिक अनुपात में कम किया जा सकता है। एक समय भोजन दूसरे समय दूध, फल आदि हल्की चीजें लेकर काम चलाया जाये। भोजन में गरिष्ठता हटा दी जाये। सात्विक भोज बच्चे और बूढ़ों के लिए भी उपयुक्त है। इन्द्रिय निग्रह यों होता तो सभी के लिए उत्तम है, पर वृद्धावस्था में तो उस पर अधिकाधिक अंकुश ही लगाते चलना चाहिए। प्रातःकाल कई मील नियमित रूप से टहलने जाना-गहरी और लम्बी साँस लेने की आदत डालना बुढ़ापे पर नियन्त्रण करने का अच्छा उपचार है। भोजन के समय तो उतना नहीं पर बाद में कई गिलास पानी-पीने की आदत डालनी चाहिए। व्यस्तता में लोग पानी-पीने की उपेक्षा करने लगते है। फलतः शरीर में जलीय अंश घट जाने से नस-नाड़ियों में माँस-पेशियों में कठोरता उत्पन्न होती है और मलों के निष्कासन में रुकावट पड़ती है।

वृद्धावस्था में मस्तिष्कीय मज्जा और जीवाणु संरचना में कठोरता की मात्रा बढ़ जाती है। उनमें आवेशों से उत्पन्न आग को सहने और सन्तुलन बनाये रहने की क्षमता में काफी कमी पड़ जाती है फलतः चिन्ता, भय, क्रोध, शोक, निराशा आदि के आवेश जड़ जमाकर बैठन लगते हैं। उनकी घुसपैठ को रोकना कठिन पड़ता है। यह उत्तेजनायें देर तक जिस मस्तिष्क पर छाई रहती है उसकी कुशलता पर भारी आघात पहुँचाती हैं और चिन्तन की समस्वरता ही बिगाड़ कर रख देती है। बुढ़ापे में प्रायः मनुष्य चिड़चिड़ा जिंदगी उसकी बन जाती है। उसका कारण स्वाभाविक अवसाद उतना नहीं होता जितना कि आवेशों के दबाव से मानसिक समस्वरता का अस्त-व्यस्त हो जाना।

परिवारों में कई व्यक्ति होते हैं और उनसे सम्बन्धित कई प्रकार की समस्याओं बनी रहती है। उनमें से कुछ कष्टसाध्य भी होती है। उनके समाधान की आवश्यकता वयोवृद्धों को अपेक्षाकृत और भी अधिक प्रतीत होती है। फलतः वे चिन्तित रहने लगते हैं। समाधान ढूंढ़ना एक बात है और चिन्तित रहना दूसरी। हल खोजने और उपाय अपनाने के लिए मस्तिष्क का सन्तुलित होना आवश्यक है। चिन्तित व्यक्ति का मन संस्थान विक्षुब्ध रहता है फलतः सारा चार तंत्र ही लड़खड़ा जाता है और निराकार का मार्ग निकालने के स्थान पर ऐसा कुछ सोचने लगता है जिनमें गुत्थी सुलझने के स्थान पर उलटी और उलझती चली जाये। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए बुढ़ापे में मस्तिष्क को विशेष तौर से हल्का रखने की आवश्यकता है। वानप्रस्थ की परम्परा का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लाभ यह है कि उपासना स्वाध्याय, लोक-साधना जैसे उच्चस्तरीय कार्यों में मस्तिष्क के रहने से उन चिन्ताओं का दबाव सहज ही घट जाता है जो बुढ़ापे को आवश्यकता से अधिक कष्टकारण बना देती हैं।

परिवार के परामर्शदाता के रूप में वयोवृद्धों की भूमिका पर्याप्त है। बच्चो की शिक्षा और सुसंस्कारिता बढ़ाने में उनकी विशेष रुचि होनी चाहिए। तरुणों की डाँट-डपट करने की अपेक्षा अपना कार्य क्षेत्र बच्चो में बना लेना और हंसते-हंसाते समय गुजारना अधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण है। प्रशासक का पद स्वेच्छापूर्वक तरुण पीढ़ी हो हस्तान्तरित कर लेना चाहिए। उन्हें प्रेम पूर्वक परामर्श देते रहने का कर्त्तव्य पालन ही पर्याप्त मानना चाहिए। अनुभव से आदमी बहुत कुछ सीखता है। नई पीढ़ी यदि कुछ खोकर भी अनुभव खरीदती है तो उतनी छूट उस मिलनी ही चाहिए जिसमें किसी भयंकर संकट का खतरा न हो।

मानसिक तनाव बुढ़ापे को जल्दी लाने, कष्टकर बनाने का बहुत बड़ा कारण है। इस तथ्य को ध्यान में रखा जा सके तो अतीत की मर्मबेधी स्मृतियाँ, मरण की सम्भावनायें, सीमा से बाहर चली जाने से रोकी जा सकती है। परिस्थितियों से तालमेल बिठाकर चलने की नीति अपनाने वाले वयोवृद्ध, बुढ़ापे की उतनी ही हानि सहते हैं जितनी अनिवार्य है। आमतौर से अपनी ही शारीरिक, मानसिक अस्त-व्यस्ततायें बुढ़ापे के साथ मिलकर इन संकटों को उत्पन्न, करती है जिनके कारण ढलती आयु वाली बुरी तरह संत्रस्त देखे जाते हैं।


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