अपनों से अपनी बात- - जाग्रत आत्माओं को रजत जयंती वर्ष का आह्वान उद्बोधन

February 1979

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दूध गरम करने पर मलाई तैर कर ऊपर आ जाती है। वृक्ष जब अपने पूर्ण यौवन पर होता है तो फूलने फलने लगता है। बादलों की जल सम्पदा जब परिपूर्ण हो जाती है तो वे आकाश में ऊंचे उड़ना छोड़कर नीचे उत्तर आते है और धरती पर बरसने लगते हैं। चन्द्रमा जब पृथ्वी के समीप होता है तो समुद्र से ज्वार भाटे उठते है और धरती पर कितनी ही अदृश्य हलचलें उठ पड़ती है। शरीरों का विकास परिपूर्ण होते ही प्रजनन की उमंगे उठने लगती है।

विचारणा और भावना के क्षेत्र में प्रविष्ट हुई सदाशयता का एक ही चिन्ह है कि वह लोक हित के पुण्य परमार्थ प्रयोजनों के लिए सहज उन्मुख होती है। आदर्शों की प्रतिष्ठापना ही श्रद्धा की प्रौढ़ता प्रमाण है। चिन्तन के भ्रष्टता और आचरण की दुष्टता के रूप में परिलक्षित होने वाला निकृष्टता के प्रति उच्चस्तरीय अन्त करणों में प्रचण्ड आक्रोश उभरता है। असुरता से लड़ पड़ने के अतिरिक्त उनके पास कोई चारा ही नहीं रहता। ईश्वर अवतरण के दो ही लक्ष्य हैं, धर्म का संस्थापन और अधर्म का निराकरण। जिसकी अन्तरात्मा में ईश्वरत्व की मात्रा जितनी बढ़ेगी उसे उसी अनुपात से इन दोनों प्रयोजनों के लिए अपनी तत्परता नियोजित करनी पड़ेगी।

आस्थावान निष्क्रिय रह नहीं सकते। निष्ठा की परिणित प्रबल पुरुषार्थ में ही होकर रहती है। श्रद्धा का परिचय प्रत्यक्ष कारुणिकता के रूप में मिलता है। करुणाई की अन्त संवेदनाऐं पीड़ा और पतन की आग बुझाने के लिए अपने सामर्थ्य और सम्पदा को प्रस्तुत किये बिना रह ही नहीं सकती। यहीं चिन्ह है जिसकी कसौटी पर व्यक्ति को आन्तरिक गरिमा का यथार्थ परिचय प्राप्त होता है। आध्यात्मिकता, आस्तिकता और धार्मिकता की विडम्बना करने वाले तो संकीर्ण स्वार्थपरता के दल-दल में फंसे भी बैठे रह सकते है, पर जिनकी अन्तरात्मा में दैवी आलोक का वस्तुतः अवतरण होगा वे राजहंस की तरह विराट के उन्मुक्त आकाश में विचरण करेंगे। विश्व कल्याण में ही उन्हें आत्म कल्याण की प्रतीति होगी। उन्हें आदर्शों के लिए समर्पित जीवन जीते ही देखा जा सकेगी।

ईश्वर भक्ति और संकीर्ण स्वार्थपरता में किसी प्रकार संगति नहीं बैठती। महानात्मा का अर्थ ही यह है कि वह महान प्रयोजनों के लिए जिये। पेट और प्रजनन की पशु प्रवृत्तियों तक सीमित रहने वाले, लोभ-मोह की सड़ी कीचड़ में कृमि कीटकों की तरह बुल बुलाते रहने वाले तत्व ज्ञान का वांग् विलास भर कर सकते है। ब्रह्मविद्या और भक्ति साधना का आनन्द तो मात्र उन्हें ही मिलता है जो साधु ब्राह्मण की पुण्य परम्परा के अनुरूप अपना जीवन क्रम उदार परमार्थ परायणता के रंग में रंगे रहते हैं।

अखंड-ज्योति और उस के परिजनों के मध्य लम्बे समय से इन्हीं तथ्यों को समझने समझाने का उपक्रम चलता रहा है। स्वाध्याय सत्संग की आरम्भिक शिक्षा का प्रयोजन बहुत हद तक पूरा हो चुका। अब परीक्षा की घड़िया हैं। जो पढ़ा या पढ़ाया गया उसकी पहुँच कितनी गहराई तक हो सकी है यह जानना परीक्षा का उद्देश्य होता है। जो उत्तीर्ण होते है उन्हीं का परिश्रम और मनोयोग सराहा जाता है। अन्यथा पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले दोनों ही अपयश के भागी बनते हैं। अखण्ड ज्योति और उसके परिजनों के मध्य लम्बे समय से चले आने वाले आदान-प्रदान की परिपक्वता की घड़ियां सामने हैं। इन्हें परीक्षा काल भी कह सकते हैं। दंगल में पहलवान की-घुड़दौड़ में घोड़े की-युद्ध मोर्चे पर सैनिक की गहराई आँकी जाती हैं।

नव-निर्माण के लिए चल रही देवी हलचलों की प्रौढ़ता इन दिनों देखी जा सकती। यह युग बसन्त है। पौधे लहलहाऐंगे ही। पल्लव हुलसेंगे ही। फूल खिलेंगे ही। फल लगेंगे ही। भौंरे इन दिनों गूँजे बिना रह नहीं सकते। कोकिल की वाणी मुखर बिना रुकने वाली नहीं हैं। तितलियों की उमंगे उनके हिलते हुए पंखों से सहज ही परिलक्षित होगी। जहाँ चेतना में जागृति का अंश होगा वहाँ युग परिवर्तन की पुण्य बेला में युग धर्म के अनुरूप अपनी क्रिया पद्धति को मोड़ने का साहस भी उभरेगा। अरुणोदय से पूर्ण कुकुट्ठों को अन्तःप्रेरणा वांग लगाने और सोतों को जगाने के लिए अनायास ही उमंगती है। ऊषा का आलोक पक्षियों तक को कलरव की प्रेरणा देता है। प्रभात का दर्शन होते ही प्रत्येक सचेतना को पूछता छोड़ने और कर्म संलग्न होने की प्रेरणा मिलती है। जिन पर परिवर्तनों का कोई प्रभाव न पड़े उन्हें जड़ ही कहा लायेगा। जीवितों में भी मृतक देखे जा सकते हैं। जिनके अन्तःकरण में उच्चस्तर की संवेदनाओं का अता-पता न लगे और जो नर पशुओं की रीति नीति छोड़ने और मानवों आदर्शों के साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्व अपनाने के लिए सहमत न हो सकें, उन्हें जीवितों में गिने जाने वाले मृतक ही कहा जायेगा।

रजत जयन्ती वर्ष में अखण्ड ज्योति परिवार के प्राणवान परिजनों में से प्रत्येक के अंतःकरण में एक उमंग उठ रही है कि परिवर्तन की इस पुण्य बेला में नव सृजन की युग पुकार को पूरा करने के लिए उसका भी कुछ योगदान होना चाहिए। कृपणता कभी सह्य भी हो सकती है पर कभी तो वह नितान्त असह्य हो जाती है। आपत्ति काल में हर समर्थ से साहसिक सहयोग की अपेक्षा की जाती है। उससे मुँह मोड़ने वालों में बाल, वृद्ध, रुग्ण अपंग क्षम्य समस्या जा सकते हैं। पर समर्थों की आना कानी हर किसी को बुरी लगती है। यहाँ तक कि उसका अपनी आत्मा भी धिक्कारे बिना नहीं रह सकती। बाहर से तो इस प्रकार की निष्ठुरता पर घृणा ही बरसती है। युग संख्या की यह विशिष्ट घड़ियां कुछ ऐसी ही है। जिनमें नव सृजन में योगदान करने की युग पुकार की अनसुनी नहीं ही किया जाना चाहिए। जागृत आत्माओं को नव सृजन का आमंत्रण अन्तरिक्ष से उतरा है। इसे अस्वीकार करने में हर दृष्टि से घाटा ही घाटा है इस तथ्य को जो जितनी जल्दी समझ लेगा वह उतनी ही बुद्धिमत्ता का परिचय देगा।

नव-सृजन के लिए समय दान यही हैं कि महाकाल की माँग को पूरा करने के लिए जागृत आत्माओं की साहसिकता को उमंगना ही चाहिए। सुदामा को बगल में दबी चावलों की पोटली देनी पड़ी थी-कर्ण ने मुँह में लगे हुए दाँत उखाड़े थे-बलि और हरिश्चंद्र को राज सिंहासन खाली करने पड़े थे-शबरी को बेरों से और गोपियों को दही और माखन से हाथ धोना पड़ा था। दरिद्र विदुर बथुए का शक परोसने की ही स्थिति थे पर जो दे सकते थे देने में कृष्ण न बने। साधन न सही श्रम और मनोयोग तो हर किसी के पास हो सकता है इसे तो गीध, गिलहरी और रीछ, वानर सरीखे साधन ही भी प्रस्तुत कर सकते है। समय दान की माँग ऐसी है जिसे हर भावनाशील सहज ही प्रस्तुत कर सकता है। व्यस्तता, दरिद्रता, चिन्ता समस्या आदि के बहाने गढ़ने हो तो बुद्धिकौशल को इशारा करने भर की देर है। गढ़ने और ढालने में दिमाग की फैक्टरी इतनी तेज है कि पुण्य प्रयोजन में सहयोग न दे सकने के पक्ष में दलीलों और कारणों का एक से एक विचित्र बहाने गढ़कर खड़े कर देगी। इन जादूगरी से किसको कितना संतोष होगा यह तो नहीं कहा जा सकता पर इतना अवश्य माना जायेगा कि अनिच्छा के पक्ष में हजार तर्क उपस्थित कर देने में किसी का भी मस्तिष्क किसी दूसरे से पीछे रहने हार मानने को तैयार नहीं हो सकता।

तथ्य दूसरे ही हैं। जिन्हें कुछ करना होता है वे घोर व्यस्तता के बीच भी अपने प्रिय प्रसंग के लिए कुछ कर गुजरने के लिए सहज ही अवसर प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ तक कि दरिद्रता, रुग्णता, व्यस्तता से लेकर समस्याओं के जाल जंजाल तक के कुछ न कुछ करते रहने में बाधक नहीं बन सकते। ऐसे भावनाशीलों की कमी नहीं जो उलझनों और कठिनाइयों से निपटने की तरह ही अन्तरात्मा की, महाकाल की युग पुकार की-गरिमा स्वीकार करते हैं और उसे सर्वोपरि समस्या आवश्यकता मानते हैं। प्रयासों में प्रमुखता सदा उन्हें मिलती है जिन्हें अंतःकरण द्वारा महत्वपूर्ण माना जाता है। युग प्रकार यदि महत्वहीन समझी गई है तो सहज ही उसके लिए आजीवन फुरसत न मिलने की मनःस्थिति और परिस्थिति बनी रहेगी। श्रद्धा उमंगी भी तो हजार उपाय ऐसे निकल जावेंगे जिनके आधार पर निर्वाह की समस्याओं को हल करते रहने के साथ-साथ ही प्रस्तुत युग धर्म के आहृ के लिए भी इतना कुछ किया जा सकता है जिससे आत्म संतोष और लोक श्रद्धा को अभीष्ट मात्रा उपलब्धि होती रहे।

युग विकृतियों का एक ही कारण है जन मानस में आदर्शों के प्रति अनास्था का बढ़ जाना। इस सड़ी कीचड़ से ही असंख्यों कृमि कीटक उपजते हैं और समस्याओं तथा विभीषिकाओं के रूप में जन जन को संत्रस्त करते हैं। उज्ज्वल भविष्य की संरचना का एक ही उपाय है-जन मानस का परिष्कार। चिन्तन में उत्कृष्टता का समावेश किया जा सके, दृष्टिकोण में आदर्शवादिता को समावेश किया जा सके, दृष्टिकोण में आदर्शवादिता को स्थान मिल सके तो लोक प्रवाह में सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों का बाहुल्य दीखेगा। ऐसी दशा में युग संकट के कुहासे को दूर होते देर न लगेगी। समस्या दार्शनिक है। आर्थिक, राजनैतिक या सामाजिक नहीं। जन मानस को परिष्कृत किया जा सके तो प्रस्तुत विभीषिकाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। उनसे लड़ने की लम्बी चौड़ी तैयारी करने की आवश्यकता ही न रहेगी। मनुष्य को ध्वंस के विरत करने के-सुजन में से लागू होने के लिए सहन किया जा सके तो बड़े पैमाने पर जो खर्चीली योजनाएं बन रहीं है। उनमें से एक भी आवश्यकता न पड़ेगी। जन के बूँद बूँद प्रयासों से इतना कुछ अनायास ही होने लगेगा जिस पर सैकड़ों पंच वर्षीय सृजन योजनाओं को निछावर किया जा सकेगा। इसके विपरीत जन सहयोग के अभाव में बड़ी से बड़ी खर्चीली योजनाएं अपंग बनकर रह जाती है। हमें पत्तों पर भटकने के स्थान पर जड़ सींचने का प्रयत्न करना चाहिए। जन मानस का परिष्कार ही सामयिक समस्याओं का एक मात्र हल है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना का लक्ष्य इस एक ही राज मार्ग पर चलते हुए निश्चित रूप से पूर्ण हो सकता है। ज्ञान यज्ञ का युग अनुष्ठान इसी निमित्त चल रहा हैं। विचार क्रान्ति की लाल मशाल का प्रज्वलन इसी विश्वास के साथ हुआ है कि जन-जन के मन-मन में उत्कृष्टता की आस्थाओं का आलोक उत्पन्न किया जा सके।

युग-सृजन का संकल्प एक ही कार्य पद्धति को उपजाने से संभव हो सकता है वह नव जागरण के लिए अनवरत जन संपर्क। इस प्रक्रिया के अंतर्गत सभी कार्यक्रम आ जाते हैं जिन्हें प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं सुधारात्मक कार्यों में गिना जाता है। बौद्धिक नैतिक और सामाजिक क्रान्तियाँ ही अपने युग की समस्त समस्याओं द्वारा जन जागरण का आलोक वितरण करने के लिए जन संपर्क कर निकलना ही एक मात्र उपाय है। लेखनी और वाणी की सामर्थ्य जितनी ही क्यों न हो पर उसका वास्तविक लाभ तो प्राणवानों का जन संपर्क ही उत्पन्न कर सकता है।

बादलों की तरह खेत-खेत पर बरसने से ही व्यापक हरितिमा उत्पन्न की जा सकेगी। पवन की तरह जन-जन तक अनुदान पहुँचाने का प्रयास ही प्राणियों में जीव चेतना का अस्तित्व बनायें रह सकता है। सूर्य की तरह गर्मी रोशनी और चन्द्रमा की तरह शीतलता बाँटने के लिए ठीक वैसे ही परिभ्रमण की योजना बनानी पड़ेगी जैसी कि प्राचीन काल के ब्राह्मण, साधु और वानप्रस्थ अपनाते थे। अतीत की गौरव गरिमा का मेरुदंड धर्म चेतना उत्पन्न करने के लिए परिभ्रमण करने की धर्म निष्ठा को ही समझा जा सकता है। तीर्थ यात्रा का प्रधान उद्देश्य यही है।

भगवान बुद्ध ने युग क्रांति के लिए इस पुण्य परंपरा को अपने ढंग से सामयिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए पुनर्गठन किया था। छोटे बड़े रूपों में प्रायः सभी संतों ने अपनी कार्य पद्धति में उसी धर्म धारणा का समावेश किया है। युगांतरीय चेतना को व्यापक बनाने के लिए प्रव्रज्या अभियान को प्रमुखता देना ही प्रधान उपाय है। रजत जयंती वर्ष में जागृत आत्माओं में से अधिकांश को अपनी-अपनी मनःस्थिति और स्थिति के अनुरूप प्रव्रज्या अभियान में भाग लेने के लिए कहा गया है।

यह प्रक्रिया ऐसी है जिसे हर व्यक्ति हर स्थिति में किसी न किसी प्रकार- किसी न किसी सीमा तक अवश्य ही पूरा हो सकता है। संपर्क हर व्यक्ति का दूसरों के साथ होता ही है। कुछ लोग अपने पास आते हैं कुछ के पास अपने को जाना पड़ता है। इस संपर्क से वैयक्तिक करणों के अतिरिक्त एक उद्देश्य आस्थाओं के परिष्कार की चर्चा को भी रखा जा सके तो उतने भर से हर व्यक्ति युगांतरीय चेतना उत्पन्न करने में सहयोग दे सकता है। प्रियजनों, परिचितों में पत्र-व्यवहार के माध्यम से ऐसा कुछ करते रहा जा सकता है। घर परिवार की सीमा में भी यह प्रयास चलते रह सकते हैं। जो घर से बाहर जाने की स्थिति में नहीं हैं वे अपने प्रतिनिधि के रूप में दूसरों को परिभ्रमण सुविधा साधन देकर उनके लिए अधिक कर सकने का पथ-प्रशस्त कर सकते हैं। व्यक्ति विशेष के लिए एक स्थान पर रह कर भी लेखन, शोधन, शिक्षण आदि कार्यों के सहारे युग आलोक का वितरण कर सकना संभव हो सकता है।

कौन किस प्रकार प्रव्रज्या अभियान में सम्मिलित हो इस क्रिया-पद्धति का निर्धारण व्यक्ति विशेष की स्थिति योग्यता को ध्यान में रखकर अलग-अलग प्रकार से किया जा सकता है। यह आगे की बात है। प्रथम प्रश्न यह है कि जाग्रत आत्माओं में से प्रत्येक को किसी न किसी प्रकार लोक मानस को परिष्कृत करने के लिए जन संपर्क के लिए समय दान करने की नीति बनानी चाहिए। सिद्धांत इतना निश्चय हो जाने के उपरांत यह सरल पड़ेगा कि व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप उसे समयदान का उपयोग किस कार्य के लिए किस प्रकार किया जाय?

अखण्ड-ज्योति के पिछले अंकों में प्रव्रज्या अभियान के संदर्भ में प्रकाश डाला और उसका स्वरूप तथा कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता रहा है। व्यक्ति की समस्त जागृत सफलताओं में से प्रत्येक को समयदान के लिए अनुरोध किया गया है और उसके उपयोग का प्रधान उपाय जन-संपर्क के लिए परिभ्रमण सुझाया गया है। यों व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुसार ऐसा भी हो सकता है कि अन्य उपायों से बाहर न जा सकने की स्थिति में भी, प्रव्रज्या का उद्देश्य पूरा कर सकने में योगदान दे सकें।

परिव्राजकों की तीन श्रेणियां हैं (1) वरिष्ठ (2) कनिष्ठ (3) समयदानी। 1. वरिष्ठ वे जो परिवार के उत्तरदायित्वों से प्रायः निवृत्त हो चुके, जो अपना अधिकांश समय घर से बाहर रहकर दे सकते हैं। 2. कनिष्ठ वे जो साल में दो महीने बाहर जाने के लिए दे सकते हैं। और शेष समय में अपने समीपवर्ती क्षेत्र में जन-जागरण के लिए प्रायः दो घंटे रोज लगाते रह सकते हैं। 3. समयदानी वे जो बाहर तो नहीं जा सकते पर अपने स्थान पर दो घंटे नित्य का एवं छुट्टी के दिनों का उपयोग इसी पुण्य प्रयोजन में लगाते रह सकते हैं। तीनों प्रकार के समयदानियों से आवेदन-पत्र मांगे गये हैं और अपना परिचय देने के लिए निम्न जानकारियां अपने ही हाथ से विस्तारपूर्वक लिख भेजने के लिए कहा गया है। परिचय-

(1) पूरा नाम (2) पूरा पता (3) प्रव्रज्या का वर्ग वरिष्ठ, कनिष्ठ या समयदानी, (4) संकल्प तिथि (5) शिक्षा योग्यता (6) व्यवसाय (7) जन्मतिथि (8) जाति-गोत्र।

विवरण- (1) शारीरिक स्वास्थ्य (2) मनःस्थिति (3) परिवार के सदस्यों का विवरण (4) अर्थ व्यवस्था (5) दुर्गुणों, सद्गुणों की जानकारी (6) समस्याऐं तथा उलझनें (7) जीवन की उल्लेखनीय घटनाऐं (8) मिशन से संपर्क का विवरण-

अनुरोध के अनुरूप जागृत आत्माओं की भावभरी श्रद्धाँजलियाँ समयदान के संकल्पों के रूप में मिल रहीं है। आशा के अनुरूप अभी उनकी संख्या नहीं है। जो लोग चिरकाल से मिशन की भावभरी सेवा करते रहे हैं उनमें से भी बहुतों के नियमित आवेदन पत्र अभी फाइल में नत्थी नहीं हो सके हैं। इस कमी से यह कठिनाई पड़ेगी कि इन दिनों प्रव्रज्या किनकी किस रूप में चल रहीं है और उसमें क्या मोड़ परिवर्तन लाया जाना आवश्यक है इसका समुचित निर्धारण न हो सकेगा। शान्ति कुँज की संचालक सत्ता इन दिनों इस संदर्भ में बहुत उत्सुक एवं इच्छुक है कि समयदानियों की सूची उनके सामने रहे और उनकी गतिविधियों की तस्वीर निरन्तर आँखों के आगे से गुजरती रहे। सहायकों, सदस्यों की कमी नहीं। वे लाखों की संख्या को पार कर करोड़ों बनने जा रहे हैं। आशाओं के केन्द्र बिन्दु व है जो प्राण वितरण में हाथ बटा सकते हैं। जो नियमित श्रमदान की प्रतिज्ञा के सहारे अपनी विशिष्ट निष्ठा का प्रमाण दे सकते है। प्रव्रज्या अभियान के अंतर्गत इन दिनों इसी की जाँच पड़ताल, खोज बीन हो रही है और जो आगे आ रहे है। उनकी हाथ में लगी उंगलियाँ के सदृश्य अभीष्ट प्रयोजन के लिए घनिष्ठ सहयोगियों के रूप में गणना हो रहीं हैं। अस्तु जहाँ भी युग सृजन के लिए समयदान का आमंत्रण पहुँचा हो-जहाँ भी उस अनुरोध ने हलचल उत्पन्न की हो वहाँ यह आवश्यक माना जाये कि प्रतिज्ञाबद्ध सक्रियता का पंजीकरण भी आवश्यक है। उसके बिना न अनुशासन चलेगा न मार्गदर्शन रहेगा। और न योजनाबद्ध रूप से अगले दिनों कुछ करने का निर्धारण बन पड़ेगा। जब योजनाबद्ध-संघबद्ध कार्य होना है तो प्राथमिक आवश्यकता पंजीकरण के रूप में भी पूरी होनी चाहिए। इसमें उपेक्षा करना संकोचशीलता नम्रता, नाम न चाहना जैसी आदर्शवादिताओं की सीमा में नहीं आता वरन उससे सुनियोजित क्रिया प्रक्रिया में भारी अव्यवस्था और विश्रृंखलता उत्पन्न होती हैं। जिन्हें भी समयदान की चुनौती स्वीकार करनी ही युग देवता के अंचल में अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करनी हो, उन्हें निर्धारित आठ जानकारियाँ भेज कर शान्ति कुँज हरिद्वार से अपना पंजीकरण करा लेना चाहिए। इसके लिए अनावश्यक विलम्ब न करना ही श्रेयस्कर है।

वरिष्ठ कनिष्ठ और समयदानी परिव्राजकों को अपनी भावी कार्य पद्धति एवं रीति नीति के सम्बन्ध में आवश्यक मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए अगले दिनों शान्ति कुँज की परिव्राजक सत्रश्रृंखला में उपस्थित होना चाहिए। यह श्रृंखला 1 मई से चलेगी और जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर इन पाँच महीनों में लगातार जारी रहेगा। इन सत्रों में जहाँ परिव्राजकों का दृष्टिकोण चिन्तन उद्देश्य, व्यवहार समझा जायगा। वहाँ उनके व्यक्तित्व को उभारने वाले ऐसे परामर्श भी दिये जायेंगे, जिन्हें अपना कर अपनी प्रतिभा और प्रभावशीलता को अधिक प्रखर बनाया जा सके। जन संपर्क का आनन्द तभी है जब उससे दूसरों को आवश्यक प्रकाश एवं उत्साह मिल सकें। यह किसे लिए किस प्रकार का संभव हो सकता है इसका विधिवत प्रशिक्षित व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप उन पाँच महीने के परिव्राजक सत्रों में चलता रहेगा।

विचार विनिमय, परामर्श मार्गदर्शन की दृष्टि से 10 दिन की अवधि भी पर्याप्त है। इस दृष्टि से उपरोक्त पाँच महीनों में 1 से 10-11 से 20-21 से 31 तारीखों के सत्र चलते रहेंगे। इसके अतिरिक्त कुछ विशेषताएं ऐसी हैं जिन्हें सीखने के लिए अधिक समय लगाने की आवश्यकता पड़ेगी। (1) भाषण कला एवं संभाषण की प्रभावोत्पादक क्षमता का अभ्यास (2) काम चलाऊ संगीत शिक्षा (3) यज्ञ आदि कर्मकांडों को प्रेरणाप्रद पद्धति से सम्पादित कर सकने का कौशल। यह तीनों कार्य ऐसे हैं जिनके लिए दस दिन पर्याप्त नहीं हो डडडड इनका अभ्यास करने के लिए अधिक समय डडडड इन तीनों का साथ-साथ अभ्यास करने के लिए डडडड तीन महीना चाहिए किन्तु जिन्हें थोड़ा डडडड उनके लिए जल्दी भी हो सकता है संगीत डडडड साध्य है। उसे छोड़ दिया जायें तो भाषण डडडड कर्मकांड का अभ्यास एक महीने में भी पूरा हो सकता है।

यहां एक बड़ी कठिनाई यह आती है कि हर व्यक्ति की योग्यता अलग होती है। अतएव शिक्षण की आवश्यकता भी अलग-अलग प्रकार की रहती है। सामूहिक प्रशिक्षण के अध्यापन की सुविधा तो रहती है पर शिक्षार्थियों का स्तर ऊंचा-नीचा रहने के कारण मध्यवर्ती लाभ उठा पाते हैं, कम दर्जे वाले ऊंचा शिक्षण पकड़ नहीं पाते और बड़े दर्जे वाले को छोटा प्रशिक्षण व्यर्थ लगता है। इस कठिनाई का हल एक ही निकाला है कि हर शिक्षार्थी को एक स्वतंत्र इकाई मानकर उसे उसकी स्थिति के अनुरूप एक अलग कक्षा माना जाय और आवश्यकता के अनुरूप भाषण- संगीत एवं कर्मकांड का अभ्यास कराया जाय। अध्ययन की दृष्टि से यह अत्यंत जटिल एवं कष्ट साध्य है। फिर भी वैसा ही करने का साहस किया गया है। यह शिक्षण शैली एक प्रकार से अनुपम ही समझी जा सकती है। आशा की गई है कि अभिनव प्रयोग भी असफल नहीं होगा। संगीत प्रवचन एवं कर्मकांड कक्षाओं में कौन छात्र कितने समय तक रुक सकेगा यह नहीं कहा जा सकता है। अपनी ओर से यही कहा गया है कि जितना अधिक ठहर सकना संभव हो उतना ठहरना चाहिए। अधिक गुड़ डालने से अधिक मीठा होने की कहावत यहां भी चरितार्थ होगी। पर जो अधिक समय नहीं ठहर सकते उन्हें भी बीस दिन तो ठहरना ही चाहिए। परामर्श के लिए दस दिन भी पर्याप्त हैं किंतु प्रशिक्षण के लिए बीस दिन भी न्यूनतम ही समझे जायेंगे।

परिव्राजकों का पंजीकरण आवश्यक है। समयदानी अपने आवेदन परिचय इन्हीं दिनों भेज कर प्रव्रज्या श्रृंखला में अपने आपको सूत्र संबद्ध करलें। इसके उपरांत अगला चरण उन्हें यह उठाना चाहिए कि मई, जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर के पांच महीनों में से परामर्श डडडड दिन वाले में और प्रशिक्षण के लिए न्यूनतम डडडड आने के लिए अपनी सुविधा की तारीख निश्चित कर लेनी चाहिए और स्थान सुरक्षित करा लेना चाहिए। अधिक समय रुकने वाली बात का महत्व भी समझा ही जाना चाहिए। संगीत अभ्यास के लिए तो हर हालत में अधिक समय ही चाहिए।

रजत जयंती वर्ष से पुरश्चरण श्रृंखला का विस्तार तेजी से हो रहा है। नवंबर, दिसंबर, जनवरी, फरवरी चार महीनों में 250 आयोजन पूरे होने जा रहे हैं। अप्रैल, मई, जून में भी प्रायः इससे भी अधिक गायत्री यज्ञ एवं युग निर्माण सम्मेलन पूरे होंगे। पुरश्चरण श्रृंखला नवीन निश्चय के अनुसार 25 महीने चलेगी अर्थात् आयोजनों का वर्तमान क्रम एक वर्ष और आगे तक चलेगा। उनमें पंद्रह-पंद्रह दिन के लिए परिव्राजक भेजे जाने हैं। कुशल वक्ताओं और गायकों की भी आवश्यकता पड़ेगी। इसकी पूर्ति इन पांच महीने के परिव्राजक सत्रों में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले समयदानी ही पूरा करेंगे। इस दृष्टि से समयदानियों को- पंजीकरण कराने वालों को- उपरोक्त पांच महीने में शांतिकुंज पहुंचकर अधिक समय रुकने और अपने कार्य को अधिक शानदार ढंग से पूरा कर सकने की योग्यता भी प्राप्त करनी चाहिये। युग-चेतना के उभार की इस भाव-भरी बेला में सृजन शिल्पियों की सर्वोपरि आवश्यकता है। अखण्ड-ज्योति परिवार की जागृत-आत्माओं को इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए आगे आने का युग निमंत्रण इन पंक्तियों के द्वारा रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष में एक बार फिर से भेजा जा रहा है।


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