सृष्टि कर्ता ने एक दिन सोचा कि धरती पर जाकर कम से कम अपनी सृष्टि को तो देखा जाये। धरती पर पहुंचते ही उनकी दृष्टि एक किसान की ओर गई। वह कुदाल लिये पहाड़ खोदने में लगा था। सृष्टि कर्ता प्रयत्न करने पर भी अपनी हंसी न रोक पाये। उस इतने बड़े कार्य में केवल एक व्यक्ति को लगा देख और भी आश्चर्य हुआ।
वह किसान के पास गये और कारण जानना चाहा तो उसका सीधा उत्तर था- ‘महाराज! मेरे साथ कैसा अन्याय है? इस पर्वत को अन्यत्र स्थान ही नहीं मिला। बादल आते हैं, इससे टकराकर उस ओर वर्षा कर देते हैं। और पर्वत से इस ओर जो मेरे खेत हैं, वह सूखे ही रहते हैं।’
‘‘क्या तुम, इस विशाल पर्वत को हटा सकोगे?’’
‘क्यों नहीं! मैं इसे हटाकर ही मानूंगा यह मेरा दृढ़ संकल्प है।’
सृष्टि कर्ता आगे बढ़ गये, उन्होंने अपने सामने पर्वत राज को याचना करते देखा वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहा था- ‘विधाता! इस संसार में सिवाय आपके मेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता।’
‘क्या तुम इतने कायर हो, जो एक किसान के परिश्रम से डर गये।’
‘मेरे भयभीत होने के पीछे कोई कारण है। क्या आपने अभी-अभी नहीं देखा था कि किसान में कितना आत्म-विश्वास है’ यहां से वह मुझे हटाकर ही मानेगा। अगर इसकी इच्छा इस जीवन में पूरी नहीं हुई तो उसके छोड़े हुए काम को उसके पुत्र तथा पौत्र पूरा करेंगे और मुझे भूमिसात करके ही चैन लेंगे। ‘‘आत्म-विश्वास असंभव लगने वाले कार्यों को भी संभव बना देता है।’’ पर्वतराज ने कहा।