धर्म जानि कुसुमानि

February 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

रंग-बिरंगे पुष्पों की सुशोभित छटा एवं अनुपम सौंदर्य सहज ही उस रास्ते जाने वाले के मन को आकर्षित कर लेता था। पुष्पों की सुरभित गंध मन को मदमस्त बना देती थी। अपने पावन चरणों से अपनी परम भक्त शबरी की कुटिया को कृतार्थ करने भगवान स्वयं आज जा रहे थे। ये पुष्प मानो उनका अभिनन्दन कर रहे थे।

कुटिया पर अपने इष्ट देव को देखकर शबरी भाव विह्वल हो उठी। आँखों से आनन्द एवं प्रसन्नता के अश्रु टपकने लगे। पद रज को मस्तक पर धारण कर उनके चरणों को पवित्र जल से धोया, उन्हें आसन पर बैठाकर भोजन आदि की तैयारी करने लगी। पुष्पों की लुभावनी सुगन्ध अब भी भगवान राम के मानस पटल पर छायी थी। शबरी के आते ही वह पूछ पड़े ‘कि इन सुन्दरतम पुष्पों को किसने लगाया है?

शबरी ने कहा, “भगवान! एक ऋषि कुछ दिनों पूर्व यहाँ रहते थे जिनका नाम मातंग था। लोक कल्याण के लिए उन्होंने यहाँ आश्रम की व्यवस्था बनायी थी। मातंग ऋषि के आश्रम में दूर-दूर से बहुत से विद्यार्थी विद्याध्ययन एवं जन सेवा का प्रशिक्षण लेने आते थे। लोक-कल्याण में निरत रहने वाले ऋषि-मुनियों को ठहरने की भी यहाँ समुचित व्यवस्था रहती थी। यहाँ विश्ववसुन्धरा को सुन्दर बनाने एवं प्राणि मात्र के कल्याण के लिए शोध कार्य, प्रशिक्षण एवं तपश्चर्या के क्रिया-कलाप चलाये जाते थे।

एक बार आश्रम में भोजन आदि बनाने की लकड़ी का अभाव हो गया। वर्षा ऋतु भी आने ही वाली थी। आश्रम में रहने वाले विद्यार्थी इस तथ्य से अवगत थे कि बरसात आने वाली है तथा लकड़ी की व्यवस्था करली जानी चाहिए जिससे चार मास बरसात में ईंधन का काम चल सके। यह जानते हुए भी विद्यार्थी उपेक्षा कर रहे थे तथा श्रम से बचना चाहते थे। विद्यार्थियों में छाये हुए अवसाद एवं उपेक्षा की प्रवृत्ति को देखकर मातंग ऋषि चिन्तित हो उठे, ‘श्रम देवता का अपमान और वह भी ऋषि आश्रम में, भला यह कैसे हो सकता था। विद्यार्थियों ने जब ‘आचार्य श्री’ को लकड़ी लाने के लिए जंगल की ओर जाते देखा तो ग्लानि से भर उठे तथा उनके पीछे कुल्हाड़ी लेकर दौड़े।

सभी जंगल में पहुँचकर लकड़ी काटने लगे। तीसरे पहर विद्यार्थी गण अपने-अपने सिर पर भारी लकड़ी के गट्ठर लादे आश्रम की ओर लौट पड़े। शरीर से पसीना निकल कर गिरता जा रहा था किन्तु सब प्रसन्न थे तथा एक अलौकिक आनन्द की अनुभूति कर रहे थे। उस दिन विद्यार्थियों की छुट्टी कर दी गई। कठोर श्रम एवं मन प्रफुल्लित होने के कारण सब जल्दी ही सो गये। प्रातःकाल ब्रह्म वेला में ऋषि उठे। विद्यार्थियों को साथ ले स्नानादि के लिए चल पड़े। एकाएक मन्द-मन्द उषाकालीन वायु के झोंके के साथ मन को प्रसन्न करने वाली सुगन्ध आने लगी। सभी विद्यार्थी आश्चर्य से युक्त स्वर में ऋषि से पूछने लगे-पूज्य वर! यह सुगन्ध आज कहाँ से आ रहीं है? मातंग ऋषि मुस्कराते हुए बोले, ‘जाओ, स्वयं पता लगाओ। हिरण के समान छलाँग लगाते हुए बच्चे निकले। उन्होंने देखा कि जंगल से सिर पर लकड़ी लाते हुए जिन-जिन स्थानों पर आश्रम वासियों का पसीना गिरा था, उन स्थानों पर एक-एक पुष्प सुन्दर डालियों में खिला हुआ दिखायी दिया। “हे राम! ये सुगन्ध युक्त रंग-बिरंगे पुष्प पसीने से उत्पन्न हुए है” शबरी ने कहा।

वाल्मीकि रामायण के इस प्रसंग में श्रम देवता के महत्व का प्रतिपादन किया है। इस देव की उपासना से ही विश्व उद्यान को सौंदर्य युक्त बनाया जा सका है। भौतिक समृद्धि का जो आज बढ़ा-चढ़ा स्वरूप दिखायी दे रहा है उसका मूल आधार है, श्रम की साधना। जन मानस में श्रम रूपी देवता के प्रति निष्ठा की प्रतिष्ठा से ही सामाजिक उन्नति एवं भौतिक समृद्धि सम्भव है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles