पुनर्जन्म सिद्धान्त को भली भाँति समझा जाय

February 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

किसी भी सिद्धान्त को यदि भली भाँति नहीं समझा जाय तो उसे मानने का दम भरने पर भी आचरण उससे विपरीत ही बना रहता है। पुनर्जन्म-सिद्धान्त के साथ भी ऐसा ही हुआ है। उसकी वैज्ञानिक प्रक्रिया को न समझने वालों ने जहाँ इस जीवन के भौतिक सुविधा-साधनों को ही पूरी तरह पिछले जन्म का पुण्यफल मान लिया, वहीं इस पुण्य कर्म का अर्थ पूजा-पत्री, कर्मकाँड तक ही सीमित माना जाने लगा। परिणाम यह हुआ कि न तो व्यक्ति की आदर्श परायणता के प्रति कोई वास्तविक सम्मान बचा न ही पुरुषार्थ को प्रगति का आधार समझा गया। इसके स्थान पर भौतिक सुख-सुविधाएं अपने पुरुषार्थ की तुलना में कहीं अधिक जुटा पाना या पा जाना ही चारित्रिक सौभाग्य या श्रेष्ठता का प्रमाण माना जाने लगा और वह श्रेष्ठता पाने का आसान तरीका ग्रह नक्षत्रों, देवताओं को टंट-घंट से प्रसन्न करना समझा गया।

यह एक विचित्र विडम्बना ही है कि पुनर्जन्म का जो सिद्धान्त पुरुषार्थ और कर्म की महत्ता का प्रतिपादक था, कठिन से कठिन अप्रत्याशित विपत्ति को भी प्रारब्ध भोग मानकर धैर्यपूर्वक सहने और आगे उत्कर्ष हेतु पूर्ण विश्वास के साथ प्रयासरत रहने की प्रेरणा देता था, वहीं निष्क्रियता और अंधनियतिवाद का भ्रान्त मतवाद बन कर रह गया है।

मनुष्य द्वारा अपने भाग्य का निर्माण आप किये जाने का तथ्य भुलाकर यह माना जाने लगा कि देवता अपनी मर्जी और मौज के मुताबिक किसी का भाग्य खराब किसी का अच्छा लिखते या बनाते रहते है। भला, यदि ऐसा होने लगे, तो इन देवताओं को शक्ति सम्पन्न पागलों के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा? पूजा पत्री के रूप में मिथ्या, या अतिरंजित प्रशंसा तथा अत्यन्त सस्ती उपहार सामग्री पाकर ही अपनी नीति व्यवस्था को उलट पुलट देने वाले देवता तो अस्त व्यस्त अफसरों और बाबुओं से भी अधिक भोंदू सिद्ध होते।

प्रायः किसी को धन-सुविधा सम्पन्न देखकर इसे उसके पिछले जन्मों का पुण्य मान लिया जाता है। पर, धन मनुष्य की अनेक विभूतियों में से एक विभूति है, एक मात्र नहीं। कोई व्यक्ति धनी है, यह यदि उसके किसी विगत पुण्य का फल है। तो साथ ही यदि वह दुराचारी है, क्षुद्र है, क्रूर है व्यसनी है, तो यह सब उसके किसी विगत पाप का फल मानना होगा। यही स्वाभाविक और तर्क संगत प्रतिपादन कहलायेगा। सामान्यतः लोग जीवन में कुछ सत्कर्म करते है, कुछ अनैतिकताऐं भी। सत्कर्म का सुफल किसी सद्गुण या समृद्धि के रूप में सामने आयेगा तो दुष्कर्म का प्रभाव दुष्प्रवृत्ति दुर्गुणों के रूप में दिखेगा धनिकों में से कोई भी मतिमंद देखे जाते हैं, तो कोई ओछे भी। कोई दुर्व्यसनी दुराचारी होते हैं तो कोई धूर्त प्रवंचक भी। सबके सब धनिक सर्वगुण सम्पन्न होते हों, ऐसा देखने में नहीं आता। लेकिन उनके दुर्गुणों को पिछले जन्म में उनके पापी होने का प्रमाण तो खुले आम नहीं कहा जाता जबकि उनकी धन-सम्पन्नता को उनके पुण्यात्मा होने का चिन्ह बताते प्रायः बहुत से रूढ़ि पूजकों को देखा जाता है। यह पुनर्जन्म की अधूरी और भ्रान्त धारणा हुई।

साधन-सुविधाओं की प्रचुरता उपलब्ध होना न तो किसी के पिछले जन्म में पुण्यात्मा होने का प्रमाण है, न ही किसी के व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का परिचायक है। प्रवृत्तियाँ दूषित या पतनशील हुई तो परिस्थितियों की यह अनुकूलता और साधनों की प्रचुरता बौद्धिक-नैतिक एवं चारित्रिक पतन में भी सहायक सिद्ध होती है। साधन सम्पन्नता से भी बढ़ चढ़कर उत्कृष्ट संवेदना, आदर्शवादी आस्था, सात्विकता, प्रसन्नता, धैर्य, साहस, शौर्य, सूझबूझ, स्वाध्याय-परायणता-कला कौशल व्यवहार-कुशलता भावनात्मक श्रेष्ठता, करुणा, निरहंकारिता, अंतर्दृष्टि, कुशाग्रबुद्धित्व, प्रखर धारणा-शक्ति-सहयोग वृत्ति, आदि सैकड़ों, हजारों मानवीय विशेषताएं है। इनमें से प्रत्येक का अपना महत्व है और उपयोगिता है। प्रत्येक से अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ संभव हैं।

इस पर भी इन दिनों किसी भी व्यक्ति की अन्य कोई विशेषता न देखकर मात्र उसकी आर्थिक-समृद्धि के आधार पर भाग्यवान और पुण्यात्मा मान लिया जाता है। अथवा आर्थिक विपन्नता देखकर अभागा और पिछले जन्म के पाप का फल भोगने वाला मान बैठा जाता है। इस प्रवृत्ति को पुनर्जन्म पर आस्था का द्योतक नहीं, चिंतन-शक्ति एवं विवेक की दरिद्रता और व्यक्तित्व के उथलेपन का परिचायक मानना ही सही है। इस उथलेपन और बौनेपन के कारण ही भाग्य को बदलने के लिये चमत्कारों का आश्रय खोजने में ही समय, श्रम एवं पुरुषार्थ गंवाया जाता रहा है।

पुनर्जन्म की वास्तविक दार्शनिक मान्यता तो इससे भिन्न ही तथ्य एवं निष्कर्ष प्रस्तुत करती है। सफलताएं विफलताएं व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व भर से संबंधित नहीं होतीं। सामाजिक परिस्थितियां और सामाजिक प्रचलित मान्यताएं भी इसमें निर्णायक भूमिका निभाती निभाती हैं। आदर्शवादी समाज में चरित्रवान का सम्मान होता है, तो भ्रष्ट समाज उसे पिछड़ा मूर्ख समझता है। कभी भारतवर्ष में तपस्वी विद्वानों का लोकमानस पर गहरा प्रभाव होता था। आज आर्थिक संपन्नता अन्य सभी सामर्थ्यों पर हावी है। पैसे वालों को बुद्धिजीवियों-कलाकारों तक का सहयोग सरलता से मिल जाता है। कभी यही कला और विवेक धर्म के लिये समर्पित होता था।

अतः किसी व्यक्ति के पिछले जन्मों की प्रवृत्तियों, संस्कारों का लेखा-जोखा यदि करना ही हो तो ऐसा उसकी वर्तमान प्रवृत्तियों गतिविधियों के आधार पर किया जाना ही उचित है, न कि सफलता के आधार पर। सफलता की परिभाषाएं और पैमाने भिन्न-भिन्न होते हैं, किंतु आदर्शवादिता और अवसरवादिता का मापदंड प्रायः सर्वमान्य होता है। स्वार्थ को छलपूर्वक परमार्थ तो प्रचारित किया जा सकता है परंतु वास्तविकता विदित होने पर सभी एक स्वर से उसे हेय स्वार्थ ही कहेंगे। जबकि सफलता के बारे में ऐसा एकमत नहीं हो सकता। भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद को कुछ लोग क्रांति-चेतना के प्रसार में सफल व्यक्ति मानेंगे तो कुछ अन्य उस दशा में उन्हें, विफल निरूपित करेंगे। किंतु उसका जो भी आदर्श था उसके प्रति वे निष्ठावान थे यह सभी मानेंगे। इस प्रकार प्रवृत्तियों के मापदंडों में भिन्नता है। अतः पिछले जन्म के पुण्य-पाप को उपलब्धियों से नहीं, प्रवृत्तियों से आंका जाना चाहिए।

यह मन, बुद्धि, अंतःकरण की प्रवृत्तियों और चेतना-स्तर ही है, जो अगले जन्म में भी काम आता है। साधन-सामग्रियां तो यहीं छूट जाती हैं।

दक्षिणी अफ्रीका में जोहान्सवर्ग शहर स्थित विट्टाटर स्ट्रैण्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर्थर ब्लेकस्ले ने ‘साइकिक रिसर्च’ के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किये हैं। पिता एडवर्ड माइकेल बर्वे और मां कैरोलिन फ्रांसिस एलिजाबेथ की संतान जोय बर्वे की जांच पड़ताल इन्होंने उस समय शुरू की, जब वह 13 वर्ष की थी और उसकी विचित्रताओं की बात श्री ब्लेकस्ले को विदित हुई।

यह लड़की जोय ढ़ाई वर्ष की आयु से ही अति प्राचीन ऐतिहासिक दृश्यों और वस्तुओं के चित्र बनाने लगी थी। उसकी इस शक्ति का प्रचार तब से अधिक हुआ, जब 12 वर्ष की आयु में वह ‘क्रुगर’ हाउस नामक भवन देखने गयी, जहां 15 वीं शताब्दी में वहां के गणतंत्र का प्रधान ओम पाल रहा करता था। जोय का कहना था कि मैं पाल को जानती थी। उसने पाल के बारे में अनेक बातें बताई। जोय के इतिहास-प्राध्यापक ने जांच के बाद उसके द्वारा बताये गये विवरण इतिहास-प्रमाणित बताये और कहा कि इसके पूर्व मैं स्वयं यह सब नहीं जानता था। जोय के बताने पर मैंने पुस्तकों और रिकार्ड्स की छानबीन की, तो पाया कि जाये की जानकारी आश्चर्यजनक रूप से सही थी। जोय ने बताया कि ओम पाल की पहल पत्नी मेरिया डूप्लेसिस 16 वर्ष की उम्र में एक बच्चे को जन्म देते ही मर गई थी। फिर मेरिया की भतीजी से पाल का दूसरा विवाह हुआ और उसके 16 बच्चे हुए। जोय ने यह भी बताया कि पाल को एक विद्रोह के बाद देश से निर्वासित कर दिया गया था और वह स्विट्जरलैंड चला गया था, जहां 1940 में उसकी मृत्यु हुई। ये सभी बातें छानबीन से सही निकलीं।

इस विचित्र बालिका जोय का दावा है कि उसे अपने पिछले 9 जन्मों की स्मृति है। इस बालिका के विवरणों में भी एक ही तथ्य अंतर्निहित है कि मनुष्य के विकास क्रम में एक सातत्य है और वह पिछले संस्कारों के साथ नया जीवन प्रारंभ करता है। यह बालिका आज परामनोवैज्ञानिकों के अध्ययन का एक आकर्षण-केंद्र बनी हुई है। अपने इन नवों जीवन के बारे में 12-13 वर्ष की आयु में जोय ने ऐसे विस्तृत विवरण पेश किये, जो मात्र अध्ययन के आधार पर शीर्षस्थ इतिहास-पुरातत्ववेत्ता ही बता सकते हैं। यह चमत्कार दूरानुभूति का परिणाम भी नहीं माना जा सकता। क्योंकि दूरानुभूति की सामर्थ्य से व्यक्ति उन्हीं बातों को जान सकता है, जो प्रश्नकर्ता के मन-मस्तिष्क में हैं। किंतु जोय तो बिना किसी प्रश्नकर्ता के अनेकों ब्यौरे सुनती बताती है, जिसकी जानकारी खुद श्रोताओं को नहीं होती।

जोय के अनुसार बहुत पहले के एक जन्म की उसे इतनी ही याद है कि डिनासार यानी प्राचीन भीमकाय पशु ने उसका एक बार पीछा किया था। यह पाषाण-काल की घटना है। दूसरे जन्म में जोय दासी थी। उसके स्वामी ने अप्रसन्न होकर उसका सिर काट दिया था। तीसरे जन्म में भी वह दासी के रूप में ही रही। चौथे जन्म में वह तत्कालीन रोम में एक जगह रहती थी और रेशमी कंबल एवं वस्त्र बनाती थी। पांचवें जन्म में वह एक धर्मांध महिला थी और एक धर्मोपदेशक को उसने पत्थर दे मारा।

जोय का छठवां जन्म इटली में नवजागरण के कालखंड में हुआ। उस समय वहां कला और साहित्य की नयी जागृति उभार पर थी। जोय के घर में दीवारों और छतों पर बड़े-बड़े चित्र थे। सातवां जन्म गुडहोप के अंतरीप में 17 वीं शताब्दी में हुआ। जहां पर वह ठिंगने पीले रंग के लोगों में से थी। राज्याश्रम में पलने वाले व्यवसाय से उसका सदा सम्बंध रहा।

आठवें जन्म में वह अधिक विकसित रूप में पैदा हुई। 19 वीं शताब्दी की यह बात है। सन् 1883 से सन् 1900 तक वह ट्रांसवाल गणतंत्र के राष्ट्रपति ओम परल के निवास भवन आती-जाती थी कला और कारीगरों में उसकी गहरी रुचि थी।

नवें वर्तमान जीवन में वह प्रिटोरिया नगर की एक छात्रा है। वह पिछले जन्मों के बारे में विस्तृत ब्यौरे बताती है। उसकी कला-रुचि प्रत्येक जन्म में अक्षुण्ण रही है। दासी के रूप में वह नाचती थीं। रोम में रेशमी कंबल बुनती थी धर्म क्षेत्र से भी वह सदा संबंधित रही। उसके संस्कारों में निरंतर एक धारावाहिकता देखी जा सकती है।

संस्कारों का यह प्रवाह ही पुनर्जन्म-सिद्धांत का आधार है। भाव-संवेदनाएं, आस्थाएं, चिंतन की दिशाएं और स्वभाव ही अगले जन्म में संस्कार रूप में साथ रहते हैं। साधन-सामग्रियां नहीं। साधनों की उपयोगिता भी प्रवृत्ति के अनुरूप घटती-बढ़ती रहती हैं। बुद्ध के विकास में उनका राजसी ऐश्वर्य कोई सहायता नहीं कर सका। अयोध्या की साधन-सुविधाएं राम को रावण-विजय में रंचमात्र सहयोग न दे सकीं। जिसके कारण राम या बुद्ध की गरिमा है, जो उन के व्यक्तित्व की वास्तविक विशेषताएं कही समझी जाती हैं, उनका निर्माण उन सुविधाओं के द्वारा नहीं हुआ था, जो उन्हें जन्म से प्राप्त थीं। अपितु उन सत्प्रवृत्तियों के द्वारा हुआ था, जो उनके समग्र व्यक्तित्व के मूल में क्रियाशील रहीं। ये प्रवृत्तियां ही अपने अनुरूप साधन जुटाने का समर्थ आधार बन जाती हैं। व्यक्तित्व में ये विशेषताएं न हुईं, तो साधनों सुविधाओं का विशाल भंडार खाली होते देर नहीं लगती।

यह सही है कि पुनर्जन्म-सिद्धांत के प्रारब्ध कर्म का अपना विशेष महत्व है। पर प्रारब्ध भी किसी चमत्कार का परिणाम नहीं होता और न उसमें हेर-फेर सर्वथा असंभव होता है। लेकिन आज पुनर्जन्म को मानने वालों में बड़ी तादाद उन लोगों की है, जो प्रारब्ध या दैवी-विधान को अकारण या व्यवस्थाविहीन, चमत्कारिक मानते हैं। और इनमें परिवर्तन भी चमत्कार के सहारे ही संभव मानते हैं। ये दोनों की बातें पुनर्जन्म-सिद्धांत के वास्तविक आधारों के विरुद्ध हैं।

निस्संदेह ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिनमें जन्म से ही अनेक विलक्षणताएं होती हैं या जो प्रचलित लोक-प्रवाह से अप्रभावित, अपनी ही विशिष्टता से विभूषित देखे जा सकते हैं। इसका कारण भी दैवी चमत्कार नहीं, पिछले जन्म में वैसे विकास हेतु किया गया उनका स्वतः का प्रयास- पुरुषार्थ है।

महर्षि अरविंद की प्रधान सहयोगिनी श्री मां जब मीरा रिचर्ड के रूप में फांस में बाल्यावस्था व्यतीत कर रही थीं, उसी समय उन्हें दिव्य दर्शन होते थे, जो उनके पिछले जन्म के ही संस्कारों के परिणाम थे। आचार्य विनोबा भावे ने अपने बारे में कहा है कि मुझे यह आभास होता है कि पूर्व जन्म में मैं बंगाली था। साथ ही जिन वस्तुओं के प्रति जन-सामान्य में प्रचंड आकर्षण होता है उनके प्रति विनोबा में कभी आकर्षण ही नहीं हुआ यह भी वे अपने पिछले जन्म की कमाई मानते हैं। इस जन्म की कमाई तो वह तब होती, जब उस ओर आकर्षण होता और वे उस पर नियन्त्रण करते। श्री अरविन्द के एक प्रमुख शिष्य थी अनिलवरण राय ने शैशवावस्था में ही श्री कृष्ण के विराट-स्वरूप के प्रत्यक्ष दर्शन की बात की हैं उस समय तक उन्होंने कैसी भी साधना नहीं की थी, अतः यह अनुभूति पूर्वजन्म की साधना का ही फल थी यह बात उन्होंने स्वयं कहीं है।

पुनर्जन्म के प्रति विवेकविरुद्ध मान्यतायें पालकर हर दुःखग्रस्त या आर्थिक दृष्टि से कुछ खोने वाले व्यक्ति को पिछले जन्म का पापी और सुविधा-सज्जित लोगों, धन कुबेरों, सत्तासीनों को विगत जन्म का पुण्यात्मा मान बैठने की मूढ़ता से बचना चाहिए। इन मापदंडों से तो राम, कृष्ण, विवेकानन्द, मार्क्स, महात्मा गाँधी, समेत सभी महा मानवों को अभागा और महापापी बताना तथा अत्याचारी विलासी सामन्तों धनपतियों को महान पुण्यात्मा करार देना आसान होगा।

आवश्यकता जन्म-जन्मान्तर तक चलने वाले कर्मफल के अटूट क्रम को समझने की है। उसे समझने पर ही उसकी दिशाधारा निर्धारित करने और मोड़ने में सफलता मिल सकती है। अपने भीतर की दुर्बलताओं और विकृतियों को अपनी ही भूल से चुभे काँटे समझकर धैर्यपूर्वक निकालना और घाव को पूरना चाहिए। अपनी सत्प्रवृत्तियों, श्रेष्ठ उमंगों को अपनी अमूल्य थाती समझकर उसे संरक्षित ही नहीं रखना चाहिए, अपितु चढ़ाने का भी प्रयास करना चाहिए। इस हेतु न तो किसी ग्रह-नक्षत्र की मनुहार की जरूरत है न चमत्कारों की खोज की। अपने भीतर की देव-प्रतिष्ठा और अपने भीतर जगमगा रहे आस्था के प्रकाशपूर्ण ग्रहों नक्षत्रों की अनुकूलता ही अपने विकास का आधार बन सकती है। यही पुनर्जन्म सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि और नैतिक प्रेरणा है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles