अपराध न समाज से छिपता है न अपने आपसे

February 1979

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अपराध विज्ञान का एक सामान्य और सर्वमान्य सिद्धांत है कि अपराधी कितना ही चतुर और कितना ही चालाक क्यों न हो, जब वह अपराध करता है तो अपराध स्थल पर कोई न कोई ऐसा चिन्ह आवश्यक छोड़ जाता है जिससे कि वह पकड़ में आ जाता ह। इस सिद्धान्त के मूल में अंतरात्मा के विरुद्ध किये जाने वाले कार्य में आत्मा की प्रताड़ना के कारण अंतःकरण में होने वाली हड़बड़ाहट ही है। अपराधी को उस समय दोहरे मानसिक द्वन्द्व से गुजरना पड़ता ह। एक तो अपराध करते हुए कोई देख न ले, कोई ऐसा सूत्र न छूट जाये जिससे उसकी पहचान हो सके। दूसरा संघर्ष अपनी आत्मा से ही करना पड़ता है जो उसे किये जा रहे अनुचित कार्य के लिए अनवरत लताड़ती फटकारती ही रहती है। इन दोहरे द्वन्द्वों के कारण वह इतना घबरा उठता है कि अपराध स्थल पर कोई न कोई चूक अवश्य कर जाता हैं।

अब तो अपराधी की खोज के लिए अंगुल मुद्रायें (फिंगर प्रिन्ट्स) भी काफी सहायक होते हैं। यह मुद्रायें अपराध स्थान पर अपराधी द्वारा कहीं न कहीं जरूर छूट जाती हैं। यद्यपि अपराधी अपनी ओर से पूरी सावधानी बरतते हैं कि उनका कोई चिन्ह घटना स्थल पर छूटे नहीं परन्तु अंगुलियों की छाप कहीं न कहीं अवश्य छूट जाती है, जिससे वे पकड़ में आ जाते हैं।

ऐसे कितने ही अपराध हुए हैं जिनमें अपराधी ने अपना कोई सूत्र घटना स्थल पर नहीं छोड़ा किंतु अंगुल मुद्रा के कारण पकड़ में आ गये 2 जून 1648 को बर्कशायर (इंग्लैंड) में 4 वर्षीय श्रीमती फ्रीमैन की हत्या हुई। अपराधियों ने हत्या करने के बाद अपनी पहचान के सूत्र बड़ी सफाई से मिटा दिये थे। अपराधियों को खोजने के लिए चैपमैन तथा हिश-लैम्प नामक पुलिस अधिकारियों को नियुक्त किया गया। पुलिस अधिकारी जब घटना स्थल पर पहुँचे तो उन्हें ऐसा कोई सूत्र नहीं मिला जिसे लेकर जाँच को आगे बढ़ाया जा सके। बहुत बारीकी से पड़ताल करने के बाद फिंगर प्रिण्ट ब्यूरो के प्रधान एफ.आर. चैरिल न सब और से निराशा व्यक्त की 16 कमरे वाले इस आलीशान मकान में दुबारा खोज की गयी तो मृत महिला के बिस्तर पर एक छोटा सा कार्ड बोर्ड का टुकड़ा मिला। इस कार्ड बोर्ड पर बहुत हलके निशान दिखाई दिये बड़ी सावधानी से उन निशानों को रसायन द्वारा उभार कर फोटो लिया गया यह कार्ड बोर्ड का टुकड़ा एक ऐसे कागज के डिब्बे का था जिसे पचासों बार खोला और बन्द किया गया था। पता नहीं वे निशान किसके थे। फिर भी जो निशान मिले वे किसी व्यक्ति के दाँये अंगूठे तथा मध्यमा के निशान थे।

इन निशानों को स्काटलैण्ड यार्ड के फिंगर प्रिन्ट रिकार्ड से मिलाया गया तो पता चला कि ये निशान कुख्यात सेंधमार जार्ज रसेल कीट की अंगुलियों के थे। वह वर्षों से अपराधी जीवन व्यतीत कर रहा था। इस हत्याकाण्ड में जार्ज रसेल के फिंगर प्रिन्ट के अलावा अन्य कोई व्यक्ति न तो प्रत्यक्षदर्शी था और न ही अन्य कोई दूसरे प्रमाण थे जो उसे अपराधी सिद्ध करा सकते थे। परन्तु गुप्तचर अधिकारियों ने सारे काण्ड को इस प्रकार सूत्र दर सूत्र मिलाया कि जार्ज रसैल को अपराधी घोषित किया गया और उसे सजा दी गयी।

कई बार तो अंगुल-मुद्रायें प्रत्यक्षदर्शियों से भी अधिक प्रमाणित सिद्ध होती हैं। अंगुल-मुद्राओं का वैज्ञानिक आधार यह है कि मनुष्य शरीर के सभी अंग सारे चिन्ह समयानुसार बदलते, बनते मिटते रहते हैं हथेली अथवा अंगुलियों पर पड़ी रहने वाली हस्तरेखाऐं भी बदलती रहती है किन्तु इनके अतिरिक्त जो बारीक असंख्य रेखायें होती हैं वे कभी नहीं बदलती इनके साथ ही किसी एक व्यक्ति की रेखायें दूसरे व्यक्ति से मेल भी नहीं खातीं यहाँ तक कि एक ही समय पर एक साथ जन्मे दो हमशक्ल जुड़वा भाइयों की रेखायें भी एक सी नहीं रहतीं पिछले दिनों लन्दन में ही एक सेवा काण्ड हुआ जिसमें अपराधी का पता चल गया था। उसे देखने वाले, प्रत्यक्षदर्शी भी थे परन्तु समस्या यह थी कि अपराधी का एक दूसरा भाई भी था, जो स्वयं अपने भाई का अनुगमन करता था। यह निश्चित नहीं किया जा रहा था कि वास्तविक अपराधी कौन है? उस स्थिति में अंगुल मुद्रायें सहायक सिद्ध हुईं और वास्तविक अपराधी को दण्ड दिया जा सका।

घटना स्थल पर अपराधी की अंगुल-मुद्रायें कैसे अंकित हो जाती हैं। इस संदर्भ में अपराध विज्ञानियों का कहना है कि मनुष्य के हाथ में से एक अदृश्य द्रव निरन्तर द्रवित होता रहता है। व्यक्ति जब अपराध करता है तो इस द्रव की मात्रा बढ़ जाती है। मात्रा बढ़ जाने का कारण अपराधी में चलते रहने वाला मानसिक द्वन्द्व, पकड़े जाने का डर तथा आत्मा की फटकार के कारण उत्पन्न हुई घबराहट ही बताया जाता है। इसलिए अपराधी की अंगुलमुद्रायें उस स्राव के कारण अधिक स्पष्टता से अंकित हो जाती है। इसी आधार पर सैकड़ों व्यक्तियों की अंगुल मुद्राओं के बीच भी अपराधी की अंगुल मुद्रायें पहचानी जा सकती हैं।

भारत की राजधानी दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में 24 अगस्त 1969 को हुई चोरी इतनी सफाई से की गई थी कि अपराधी का कोई चिन्ह ही पता नहीं चल रहा था। वहाँ काँच के एक टूटे हुए टुकड़े पर पड़े अदृश्य अंगुल मुद्राओं के द्वारा ही अपराधी को पहचाना और पकड़ा जा सका अन्य सूत्रों के आधार पर अपराधी की कद काठी का ही अनुमान लगाया जा सकता था। अपराधी ने खिड़की में लगी लोहे की सलाखों को मोड़कर एक वर्ग फीट जगह बनायी थी और उसी में से वह अन्दर घुसा था राष्ट्रीय संग्रहालय में हुई इस चोरी में 1 लाख 74 हजार रुपये मूल्य के गुप्त एवं मुगलकालीन रत्नजड़ित आभूषण तथा स्वर्ण मुद्रायें चोर ले गये थे।

अपराध विज्ञान के विशेषज्ञ इतना ही अनुमान लगा सके कि अपराधी अकेला था, नाटे कद का तथा शक्तिशाली और पुष्टदेह का स्वामी था। खोज इससे आगे न बढ़ने पर सेण्ट्रल फिंगर प्रिन्ट ब्यूरो कलकत्ता से फिंगर प्रिण्ट एक्सपर्ट बुलाये गये जिन्होंने काँच के एक टूटे हुए टुकड़े पर तीन अदृश्य अंगुल मुद्रायें देखी। उन्हें ग्रेपाउडर से उभारा गया और चित्रित कर दिया गया।

इसी आधार पर उक्त घटना के 60 दिन बाद आँध्रप्रदेश के सिकन्दराबाद जिले के पिकेट ग्राम में छुपे हुए अपराधी यादगिरि को 5 नवम्बर को गिरफ्तार किया गया तथा उसके पास से चोरी किया गया माल बरामद हुआ। अपराध विज्ञानी अंगुल-मुद्राओं के अंकित होने का कारण जिस अदृश्य और सूक्ष्म द्रव को मानते हैं बताया जाता है कि वह द्रव किसी संगीन अपराध के समय अपराधी के हाथों से अनजाने ही बड़ी तेजी से बहने लगता है।

किसी भी दुष्कर्म में प्रवृत्त होते समय पहले व्यक्ति की अन्तरात्मा धिक्कारती है, परन्तु जब उस आवाज को कुचल कर बार-बार दुष्कर्म किये जाते हैं तो अन्तरात्मा की वह ध्वनि, चेतावनी क्षीण पड़ने लगती है। ऐसी स्थिति में अपराधी को न घबराहट होती है और न भय। माना जाये कि उस द्रव के निसरण का कारण घबराहट या भय ही है तो वैसी स्थिति में जब कि ऐसा कोई द्वन्द्व नहीं चलता, अतः करण की आवाज मर सी जाती है तो कोई द्रव नहीं बहना चाहिए परन्तु इस दशा में भी अंगुल मुद्राओं के अंकन में कोई परिवर्तन नहीं देखा गया है। बड़े से बड़े पुराने और कुशल अपराधियों की अंगुलियाँ उसी प्रकार अपनी छाप छोड़ देती हैं जैसे नये अपराधी की। कहीं यह प्रक्रिया अन्तरात्मा द्वारा अपनी बात न मानने अनीति का पथ न छोड़ने के कारण समाज द्वारा दण्डित कराये जाने के लिए छुड़वायी गयी सूक्ष्म पहचान हो।

उपरोक्त अपराध घटनाओं में तो उन्हीं अपराधों को उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। जिसमें हाथ के निशान अंकित होने की सम्भावना कहीं न कहीं रहती ही है लेकिन अपराधी जब दूर रहकर वार करता है जैसे गोली चलाता है या विष देकर किसी की हत्या करता है तो भी बच नहीं पाता। हालाँकि इन तरीकों में अंगुल-मुद्राओं का कोई भय नहीं रहता फिर भी अपराधी को पकड़ ही लिया जाता है 1950 में पंजाब की रियासत के राजा रणजीतसिंह की हत्या उनकी रानी पलविंदर कौर ने ही कर दी थी। कोई प्रमाण नहीं था कि यह हत्या रानी ने ही की है और न ही किसी को संदेह हो सकता है क्योंकि किसी ने कभी भी राजा रानी में मनमुटाव या मतभेद जैसी कोई बात देखी ही नहीं थी।

घटना इस प्रकार है- रंजीतसिंह और पलविंदर कौर उस दिन शिकार पर गये थे, शाम को वापस कैंप पर केवल महारानी ही लौटी। उन्होंने अपने अन्य साथियों को बताया कि मैं और महाराजा अपने शिकार के पीछे अलग-अलग रास्तों पर निकल गये थे। महाराज के वापस न आने पर महारानी भी बहुत चिंतित दिखाई दे रहीं थी। देर रात तक उन लोगों ने कैंप पर महाराजा का इंतजार किया जब महाराजा का एक प्यादा यह सूचना लेकर आया कि महाराज एक कुएं में गिर गये हैं सभी लोग दौड़े गये और रस्सी डाल कर महाराज को कुएं में से निकाला गया परन्तु तब तक महाराजा की मृत्यु हो चुकी थी।

लेकिन पोस्टमार्टम की रिपोर्ट मृत्यु का दूसरा ही कारण बता रहीं थी। डाक्टरों के अनुसार महाराजा की मृत्यु कुएं में गिरने के कारण नहीं वरन् एक नुकीले तीर के कारण हुई थी। पुलिस का विचार था कि उन दिनों कुछ आदिवासी कबीलों की महाराजा से रंजिश चल रहीं थी और यह तीर आदिवासियों द्वारा ही इस्तेमाल किया जाता है। सूत्र दर सूत्र घटना की कड़ियां इस प्रकार मिलाई गयीं कि लगता था किसी आदिवासी ने महाराजा पर उस समय तीन चलाया जब वह पानी पीने के लिए कुएं पर चुके थे। प्रहार के कारण महाराजा कुएं में गिर गये और उनकी मृत्यु हो गयी।

उस तीर को, जिसका अगला सिरा महाराजा की पीठ में घुसा हुआ था, अपराध विज्ञान की लैबोरेटरी में भेजा गया। अपराध विज्ञानी डा. दत्त ने निरीक्षण किया तो पाया कि तीर का अगला हिस्सा अत्यन्त नुकीला, ठोस और ताँबे का बना हुआ था और वह एक पेचदार खोखली ट्यूब से बना है। आगे जाँच की गयी तो पता चला कि वह तीर नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार की रायफल की गोली है जो ताम्बे से बनती है क्योंकि उस रायफल से निकली गोली की गति व मारक शक्ति इतनी तेज तथा गर्म होती है कि सीसे की गोली पिघल जाती है। इसी लिए रायफल में ताँबे की गोली प्रयुक्त की जाती है।

यह रायफल उक्त क्षेत्र में केवल रियासत के राज घराने में ही थी। केस ने नया मोड़ लिया तो उसके आधार पर पलविंदर ‘कौर’ को गिरफ्तार किया गया और उसे सेशन से सात साल की सजा दी गयी। यद्यपि यह केस आगे हाईकोर्ट में भी ले जाया गया। पता नहीं वहाँ क्या निर्णय हुआ परन्तु इन सभी घटनाओं से यह सिद्ध है कि अपराधी अपराध करने के लिए कितनी भी योजनायें बनायें, कैसी भी सावधानी बरतें परन्तु प्रायः वे कहीं न कहीं ऐसी चूक जरूर कर जाते हैं जिससे कि उसका राज खुल जाता है।

कदाचित कोई व्यक्ति इतनी सावधानी बरते कि वह पुलिस और कानून की निगाहों से बच निकले तो भी उसे अपराध का दण्ड तो मिला ही हैं। समाज न भी दे, परन्तु जिनके प्रति अपराध किया गया है उनकी आत्मा, स्वयं अपनी आत्मा और ईश्वरीय नियम अपराधी को उसके किये का दण्ड देते हैं। अभी कुछ वर्ष पूर्व की घटना है। अर्जेण्टाइना के एक ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति ने एक ग्रामीण को गोली मार कर हत्या कर दी। गोपी इतनी नजदीक से मारी गयी थी कि मृत व्यक्ति की खोपड़ी को छेदते हुए पीछे खड़े वृक्ष के तने में जा घुसी।

हत्यारा पकड़ लिया गया। प्रत्यक्ष दर्शी गवाह, साक्ष्य और प्रमाणों के बावजूद भी वकीलों ने कुछ ऐसे कानूनी पेच निकाल लिये कि अपराधी को संदेह का लाभ मिल गया और वह बरी हो गया। इस घटना के तीन वर्ष बाद वहीं व्यक्ति अपने खेत पर खड़ा होकर मेंड़ पर लगा वृक्ष कटवा रहा था। वह वहीं वृक्ष था जिसके नीचे उस मजदूर की गोली मार कर हत्या की गयी थी।

जब वृक्ष को काटा जा रहा था तो वृक्ष कट कर कुछ इस प्रकार गिरा कि उसमें तीन वर्ष पूर्व फंसी गोली बंदूक से छूटी गोली की तरह ‘उसी खेत मालिक की कनपटी पर लगी’ जिसने कि मजदूर की गोली मार कर हत्या की थी। पेड़ से छूटी हुई गोली के कारण वह व्यक्ति घटना स्थल पर ही मर गया। इस विचित्र घटना को जिस किसी ने भी सुना सृष्टि नियंता की न्याय प्रक्रिया का यह अद्भुत ढंग देख कर दांतों तले अंगुली दबा कर रह गया।

अनीति अनाचार के शिकार होकर अपने प्राण खो बैठने वाले व्यक्ति की आत्मा भी कई बार अपराधी को पकड़वा देती है। एडिनबरा में 1905 एक अद्भुत हत्या काण्ड हुआ वहाँ की एक मकान मालकिन मिस जूरी की हत्या उसी मकान में रह रहे किरायेदार चार्ली ने कर दी। चार्ली एक पुलिस अधिकारी था और उसी थाने का इंचार्ज था जिसमें कि जूरी की हत्या की रिपोर्ट दर्ज करायी गयी थी। अतः चार्ली ने इस रिपोर्ट पर कोई कार्यवाही नहीं की और कैसे फाइल हो गया। यह सारा घटनाक्रम मार्च 1905 का हैं।

इसके बाद उस मकान में जो भी किरायेदार आता जूरी की आत्मा उस केस को पुनः चालू कराने तथा अपराधी को दण्ड दिलवाने के लिए कहती। लेकिन लोग जूरी की आकाँक्षा को पूरा करने के स्थान पर डर के मारे वह मकान छोड़कर चले जाते, सन् 1920 में उसी बंगले में मि. डिक्सन नामक एक पुलिस अधिकारी आया, जूरी की आत्मा ने उससे भी वहीं सब कहा जो अन्य किरायेदारों से कहती रहती थी। मि. डिक्सन ने उन बातों को सहजता और गम्भीरता से लिया। उन्होंने एडिनबरा के उस थाने में दबा दी गयी 15 वर्ष पुरानी वह फाइल फिर निकलवायी। उसमें जूरी के नौकर द्वारा यह शिकायत दर्ज करायी गई थी कि किसी ने उसकी मालकिन को गला घोंट कर मार डाला है। इस रिपोर्ट पर तत्कालीन थाना अध्यक्ष ने यह टिप्पणी लिखवायी थी कि-जिस समय जूरी की हत्या हुई उस समय चार्ली गश्त पर गया हुआ था और अनुमान किया जाता है कि मिस जूरी ने अपने अकेले पान से ऊब कर स्वयं आत्महत्या कर ली है।

जूरी की आत्महत्या द्वारा दिये गये निर्देशों के आधार पर मि. डिक्सन ने सारे मामले की फिर से जाँच करायी और सारे प्रमाण एकत्रित किये गये। सभी प्रमाण चार्ली के विरुद्ध जाते थे। इस आधार पर चार्ली को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तार करने के बाद चार्ली ने स्वीकार कर लिया कि उसी ने जूरी की हत्या की थी क्योंकि जूरी से उसके अवैध सम्बन्ध थे। प्रेम का ढोंग रचकर चार्ली जूरी से जल्द ही विवाह करने का वादा करते हुए यह सब करता रहा था। इन सम्बन्धों के कारण जूरी गर्भवती हो गयी थी और शादी के लिए दबाव डालने लगी थी। उससे छुटकारा पाने के लिए ही चार्ली ने जूरी की हत्या कर दी और अपने पुलिस अधिकारी होने का लाभ भी उठाया।

व्यक्ति अपने अपकर्म ही भूत बन कर उसका पीछा करते रहते हैं और जब तक वह व्यक्ति उन दुष्कर्मों का फल नहीं भोग लेता तब तक वह उससे पीछा नहीं छूटता। 28 जनवरी 76 की घटना है मझगवाँ बिहार के सोनपुर गाँव में एक बनिये के यहाँ नौकरी कर रहे 23 वर्षीय युवक भवानी ने 13 वर्षीया दुलारी के साथ मौका देख कर अपनी वासना पाशविक ढंग से पूरी की और उसके बाद दुलारी की हत्या करके नहर में फेंक दी। इस घटना का किसी को पता नहीं चला और न पुलिस को ही हत्या का कोई सुराग ही मिल सका कि किसने हत्या की थी?

लेकिन भवानी के कानों में उस निर्दोष युवती की चीत्कार, हमेशा गूँजती रहती, मूक याचना भरी निगाहें, चेहरे पर विवशता के भाव, आतंक की काली छाया-आदि कुल मिलाकर वह सारा दृश्य भवानी की आंखों के आगे कौंध जाता। अंतरात्मा की प्रताड़ना और पश्चाताप की व्यथा वेदना भवानी अधिक नहीं झेल सका और मार्च तक मझगावाँ वासियों ने भवानी को सड़कों पर पागलों की तरह चिल्लाते चीखते देखा। यहीं नहीं कुछ दिनों बाद भवानी ने विक्षिप्तावस्था में अपने गले में फाँसी लगा ली।

इस जन्म में कोई व्यक्ति पापकर्मों के दण्ड से बच जाने में सफल भी हो जाता है तो भी उसका दण्ड अगले-जन्म में सुनिश्चित रूप से मिलता है। आप्त वाक्य कि’-पूर्व जन्म के पाप हो इस जन्म में असाध्य और कष्टकर रोगों के रूप में पीड़ित करते हैं। “अगले जन्म में यह दण्ड तो भोगना ही पड़ते हैं इसी जन्म में जो मानसिक बोझ, व्यथा पश्चाताप की आग दहकती रहती है वही कम नहीं होती। अखण्ड ज्योति के पाठक उस विमान चालक का विवरण पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं। जिसने नागाशाकी और हिरोशिमा पर अणु बम गिराये थे।

क्षणिक प्रलोभन या आवेश में आकर कोई अपराध कर बैठना सौ में से निन्यानवे बार समाज के सामने अपराधी की तरह खड़ा कर देता है। उससे बच भी गये तो अंतरात्मा की मार पीड़ित आत्मा के प्रतिशोध और सृष्टि संतुलन बनाये रखने वाले नियमों की पकड़ से बचकर कहाँ जायेगा।


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