मंगला मंगलम्

February 1979

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भवन अमंगल-मकड़ियों ने जहाँ तहाँ जाले बुन रखे हैं, शिशुओं का शौच दुर्गन्ध फैला रहा है-पशुओं ने सर्वत्र गोबर फैला रखी है, सर्वत्र अस्वच्छता, अमंगल ऐसे घर में रहना तो नर्क में रहना है। दिन भर यही विचार उठता रहता, श्रुतिधर बेचैन हो उठे, यह भवन अमंगल है कह कर एक दिन उनने गृह-परित्याग किया और समीप के एक गाँव में जाकर रहने लगे। ग्राम वासी निर्धन हैं, अशिक्षित, हैं मैले कुचैले वस्त्र पहन कर सत्संग में सम्मिलित होते हैं गाँव की गन्दगी ने पुनः श्रुतिधर के मन में पीड़ा भर दी। ग्राम भी अमंगल है-इस अमंगल में कैसे जिया जाये? श्रुतिधर ने उसका भी परित्याग किया और निर्जन वन में एक वृक्ष के नीचे एकाकी कुटी बना कर रहने लगे।

रात आनंद और शान्ति के साथ व्यतीत हो गई किन्तु प्रातःकाल होते ही पक्षियों का कलख, कुछ जंगली जीव उधर से गुजरे थे कुटी के बाहर उनने आखेट किये जीवों की हड्डियाँ छोड़ दी थी, आशंका से ओत-प्रोत श्रुतिधर के अन्तःकरण को आकुलित करने के लिए इतना ही पर्याप्त था, उन्हें वन में भी अमंगल के ही दर्शन हुये। अब क्या किया जाए वे इसी चिन्ता में थे तभी उन्हें सामने बहती हुई श्वेत सलिला सरिता दिखाई दी, उन्हें आनंद हुआ, विचार करने लगे यह नदी ही सर्व मंगल सम्पन्न है सो कानन-कुटी का परित्याग कर वे उस शीतल पयस्विनी के आश्रय में चल पड़े।

शीतल जल के सामीप्य से उन्हें सुखद अनुभूति हुई अंजुलि बाँध कर उन्होंने जल ग्रहण किया तो अन्तःकरण प्रफुल्लित हुआ, पर इस तृप्ति के क्षण अभी पूरी तरह समाप्त भी नहीं हो पाये थे कि उनने देखा एक बड़ी मछली ने आक्रमण किया और छोटी मछली को निगल लिया, इस उथल पुथल से सरिता के तट तक हिलोरें पहुँची-जिससे वहाँ रखे मेंढकों-मच्छरों के अंडे बच्चे पानी में उतरने लगे अभी यह स्थिति स्थिर भी न हो पाई थी कि ऊपर से बहते-बहते किसी श्वान का शव उन के समीप आ पहुँचा। यह दृश्य देखते ही श्रुतिधर का हृदय घृणा से भर गया। उन्हें उस नदी के जल में भी अमंगल के ही दर्शन हुये।

अब कहाँ जाया जाए? इस प्रश्न ने श्रुतिधर को झकझोरा वन, पर्वत, आकाश सभी तो अमंगल से परिपूर्ण हैं उनका हृदय उद्वेलित हो उठा। इससे अच्छा तो यही है कि जीवन ही समाप्त कर दिया जाए अमंगल से बचने का एक ही उपाय उनकी दृष्टि में शेष रहा था।

श्रुतिधर ने लकड़ियाँ चुनी, चिता बनाई प्रदक्षिणा की और उस पर आग लगाने लगे तभी उधर कहीं से वासुकी आ पहुँचे। यह सब कौतुक देख कर उनने पूछा-’तात! यह तुम क्या कर रहे हो। दुःख भरे स्वर में श्रुतिधर ने अपनी अब तक की सारी कथा सुनाई और कहा जिस सृष्टि में सर्वत्र अमंगल ही अमंगल हो उसमें रहने से तो मर जाना अच्छा।

वासुकी मुस्कराये, एक क्षण चुप रहे फिर मौन भंग करते हुए बोले-वत्स! तुम चिता में बैठोगे, तुम्हारा शरीर जलेगा, शरीर में भरे मल भी जलेंगे उससे भी अमंगल ही तो उपजेगा, उस अमंगल में क्या तुम्हें शान्ति मिल पायेगी?

तात! सृष्टि में अमंगल से मंगल कहीं अधिक है घर में रहकर सुयोग्य नागरिकों का निर्माण, गाँव में शिक्षा संस्कृति का विस्तार, वन में उपासना की शान्ति और जल में दूषण का प्रच्छालन प्रकृति की प्रेरणा यही तो है कि सृष्टि में जो मंगल है उसका अभिसिंचन परिवर्धन और विस्तार हो जो अमंगल है उसका शुचि-संस्कार, यदि तुम इसमें जुट पड़ो तो अशान्ति का प्रश्न ही शेष न रहे, श्रुतिधर को यथार्थ का बोध हुआ वे घर लौट आये और मंगल की साधना में जीवन बिताने लगे।


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