खीजते रहने की आदत से पिण्ड छुड़ायें

February 1979

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प्रसन्न रहना, न रहना उसी तरह अपनी इच्छा पर निर्भर है जैसे चलना न चलना। हम चाहें तो किसी एक जगह पर भी अपंगों की तरह बने रह सकते हैं और चाहें तो पैरों में थोड़ी अड़चन रहने पर भी प्रयत्नपूर्वक कुछ न कुछ चलते फिरते रह सकते हैं। विवशता की बात दूसरी है अन्यथा सामान्य स्थिति में चलना न चलना अपने हाथ की बात है। ठीक इसी प्रकार मन को प्रसन्नता की दिशा में चलाना या न चलाना अपनी मर्जी पर है। हम चाहें तो वर्तमान परिस्थितियों के रहते हुए भी प्रसन्न रह सकते हैं, चाहे उसमें थोड़ी सी प्रतिकूलता ही क्यों न हो। यदि चाहना इसके विपरीत हो, अप्रसन्न रहने की आदत ने गहराई से उत्तर कर जड़ जमा ली हो तो फिर विद्या और अनुकूलता का प्रचुर परमाणु उपलब्ध करते हुए भी ऐसे कारण ढूंढ़ निकाले जा सकते हैं जो खीज चिन्ता परेशानी और असन्तोष उत्पन्न करके चेहरे पर अप्रसन्नता बनाते रहें।

अप्रसन्नता एक आदत है, जैसी कि नशा पीने वालों की होती है। अभ्यास का जीवन में बहुत बड़ा स्थान है। बहुत समय तक एक ढर्रा चलता रहे तो वह धीरे-धीरे आदत बन जाता है और उसी में स्वाभाविकता लगने लगता है। इतना ही नहीं आदत पुरानी हो जाने पर तो उसे चरितार्थ किये बिना चैन नहीं पड़ता है। नशेबाजी की बुराईयों को समझते हुए भी आदमी उसे अपनाए रहता है। दूसरे दिन चैन नहीं पड़ता। यह आदत का ही चमत्कार है। इसी प्रकार बात बात में आवेश लाने कटु वचन बोलने कामों में अनावश्यक देर लगाने छिद्रान्वेषण करते रहने जैसी अनेकों आदतें स्वभाव का अंग बन जाती हैं और अनचाहे ही अपना काम करती रहती हैं। अप्रसन्न रहना भी एक आदत है जिसमें परिस्थितियाँ उतना करण नहीं जितना कि स्वभाव और अभ्यास। लगता भर ऐसा है कि परिस्थितियों के दबाव और व्यक्तियों के दुर्व्यवहार से खिन्न रहना पड़ता है। इसमें बहुत थोड़ी ही सचाई होती है। वास्तविकता यह है कि चिड़चिड़े बच्चों की तरह कुछ बड़े भी खीजते रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं और उस अभ्यास को व्यवहार में लाने के लिए कोई न कोई बहाना ढूंढ़ते रहते हैं। खोजने वाले जब ईश्वर तक को खोज निकालते हैं तो कोई कारण नहीं कि असन्तुष्ट रहने का सच्चा झूठा बहाना न खोजा जा सके।

यदि अप्रसन्नता से सचमुच ही पीछा छुड़ाना हो और यह लगता हो कि इसके कारण मानसिक स्वास्थ्य मानसिक सन्तुलन और लोक व्यवहार की सफलताओं का सिर्फ सन्तुलन और लोग व्यवहार की सफलताओं का स्त्रोत-व्यक्तित्व इस दुर्भाग्य के कारण नष्ट हुआ जा रहा है तो अप्रसन्नता के कारणों को गिनने और उन्हें निरस्त करने से पहले यह विचार करना चाहिए कि हमारे इर्द गिर्द प्रसन्नता दायक परिस्थितियाँ कितनी हैं। सर्व प्रथम उन्हीं की गणना करनी चाहिए। उसका महत्व समझना चाहिए। और देखना चाहिए कि उन सुविधाओं से भी संसार में कितने लोग वंचित है इतने पर भी वे खीजते नहीं, किसी तरह परिस्थितियों से ताल मेल बिठाते हैं और अपना सन्तुलन बनाए रहते हैं। फाँसी की सजा पाये हुए कैदी भी मौत की कोठरी गहरी नींद सोते देखे गये हैं फिर अपने ऊपर ही ऐसी क्या गाज गिर रहीं है जो नींद गंवा बैठे चिन्ता में डूबे रहें और खिन्न बने। खीजें, और मुखाकृति पर अप्रसन्नता की कालिख पोते फिरें।

अपनी मन मर्जी की परिस्थितियाँ मिलती रहना नितान्त कठिन हैं। कामनाओं पर कोई अंकुश नहीं। वे कुछ भी चाहे सकती हैं और कुछ भी माँग सकती हैं। परन्तु दुनिया अपनी बनाई हुई तो नहीं है। इसमें चल रहे घटना क्रम अपने ढंग से चलते है। वे हमारी मर्जी से चलने लगे-जैसा चाहते हैं वैसा ही होता रहे, यह कठिन है। ऐसा तो तभी हो सकता था जब हमीं ईश्वर होते और बिना अन्य किसी की सुविधा असुविधा का आवश्यकता अनुकूलता का ध्यान रेख, वैसा ही ही बनाते रहते जैसा कि अपना मन है। वैसा तो ईश्वर के लिए भी नहीं बन पड़ा फिर हमारे लिए ही कैसे सम्भव हो सकता है। ईश्वर को गालियाँ देने वाले, अवज्ञा करने वाले और उसकी सुंदर सृष्टि तक को मन चाही परिस्थितियाँ मिल नहीं सकी हैं, अथवा उसने किसी कारण वंश उन्हें चाहा नहीं है। हो सकता है कि विभिन्न अनुकूलता के खतरे को उसने समझा हो और प्रतिकूलता से जूझने में जो सतर्कता, समर्थता की प्रसन्नता उत्पन्न होती है उसे ध्यान में रखा हो। फलतः खट्टा मीठा स्वाद लेने के लिए प्रिय और अप्रिय के ताने बाने से इस दुनिया की चादर बुनी हो। हमें भी इसी तरह विचार करना चाहिए और सर्वत्र अनुकूलता बनी रहने की, आकाश कुसुम जैसी कल्पना को छोड़ ही देना चाहिए। वह सोचने में सुखद लगती तो है पर जिस ढंग से यह संसार बना है उसमें संभव है नहीं।

अप्रसन्नता को अपनी कुकल्पनाओं का अभिशाप कह सकते हैं। उससे छूट सकना उतना ही सरल है जितना कि अपनी सुखेच्छा अत्यधिक ऊंचे स्तर की बढ़ा ली जाये और फिर देखा जाये कि उसमें क्या-क्या कमी रहीं हैं। इन कमियों को दुर्भाग्य मानकर कोसते रहा जा सकता है। दूसरों से बड़ी-बड़ी आशा अपेक्षाएं कीजिए फिर देखिये उनमें कितनी कमी रह गई। कम जरूर मिल जायेगी। बस, क्रुद्ध और खिन्न रहने के साधन मिल गये। इस उपाय को अपनाने वाला इस राह पर चलने वाला जीवन भर अप्रसन्न बना रह सकता है।

किन्तु यदि लगता हो कि अप्रसन्न रहने के कारण अपनी प्रतिभा जलती और गरिमा गलती जाती है और उसमें मात्र घाटा है तो फिर परिस्थितियों में परिवर्तन के लिए साहसिक कदम उठाने की आवश्यकता है। यह कदम एक ही हो सकता है कि अपने सोचने का ढर्रा बदला जाय और खीजते रहने की आदत को बदला जाय। परिस्थितियाँ इसमें बहुत बड़ा कारण नहीं होती। क्योंकि इससे भी गई गुजरी परिस्थितियों में रहने वाले असंख्यों व्यक्ति जब हंसते-हंसाते दिन गुजारते रहते हैं तो अपने लिए ही वैसा कर सकना क्यों सम्भव नहीं हो सकता? संपर्क के सभी व्यक्ति अनुकूलता वर्ते यह सम्भव नहीं। क्योंकि उनका अपना स्तर और व्यक्तित्व है, जो अनेक कारणों से बना है। उसमें हेर फेर होना होगा तो हमारी मर्जी से नहीं उनकी अपनी ही चेष्टा से संभव होगा। ऐसी दशा में तालमेल बिठा कर चलना ही एक मात्र उपाय है। यह दुनिया साझे को दुकान है। मिल जुल कर रहने से तालमेल बिठाकर ही चलना होता है। यह तथ्य समझ में आ सके तो फिर समन्वय को नीति अपनाना होगी। चिन्तन में इतना लोच आ सके तो समझना चाहिए कि खीजने को सारा संकट अनायास ही टल गया।

प्रतिकूलताओं को बदला नहीं जाना चाहिए या व्यक्तियों को सुधारा न जाये। यह यथा सम्भव करते ही रहना ही चाहिए। प्रयत्न से अब अनेक कार्यों में कहने लायक सफलता मिलती रहती है तो इस दिशा में भी सुधार हो सकता है। अभीष्ट परिवर्तन की आशा और चेष्टा करना उचित भी है और आवश्यक भी, पर वह सब धैर्यपूर्वक संतुलित ढंग से ही, योजनाबद्ध रीति से होना चाहिए। आवेश आने और तत्काल बदल जाने की बात सोचने से काम बनता नहीं बिगड़ता है। उत्तेजित मस्तिष्क को उपाय सोचने की क्षमता से हाथ धोना पड़ता है। उसके लिए सही मार्ग खोजना और दूरदर्शितापूर्ण रीति अपना सकना भी संभव नहीं रहता। अप्रसन्नताग्रस्त व्यक्ति तत्वतः अर्ध-विक्षिप्तता की स्थिति में रहता है और सुधार के लिए उसके द्वारा सोचे गए उपाय भी अटपटे होते हैं। फलतः प्रयत्न भी प्रायः उलटे ही पड़ते है और गुत्थियाँ सुलझने की अपेक्षा उलटी उलझती ही चली जाती हैं।

सम्बद्ध व्यक्तियों की आदतें अपने प्रतिकूल पड़ती है तो उन्हें समझाने बुझाने, सुधारने से लेकर सम्बन्ध तोड़ने या प्रतिरोध करने तक के तरीके अपनाये जा सकते हैं पर इसके लिए आवेश ग्रस्त होने की आवश्यकता नहीं हैं। ऐसा करने से सुधार की बात तो पीछे पड़ जायगी और क्रोध के कारण नया प्रश्न उठ खड़ा होगा, मान अपमान का। जिसे सुधारना था वह यदि आवेश का शिकार बना है तो अपने अपमान का बदला लेने की बात सोचने लगेगा, सुधारने के प्रश्न पर तो वह और भी अड़ियलपन अपना लेगा ऐसी दशा में आवेश का प्रतिकूल उलटे रूप में ही सामने आवेगा। व्यक्तियों से निपटने में भी अपना सन्तुलन तो ठीक ही बना रहना चाहिए। अप्रसन्नता का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह अपने चिन्तन तंत्र को ही गड़बड़ा देती है। फलतः न तो यही उपाय सूझता है और न सही उपाय अपनाये बनता है। ऐसी दशा में परिस्थितियों को बदलने और व्यक्तियों को सुधारने का उद्देश्य तनिक भी पूरा नहीं होता और असफलता जनम निराशा मस्तिष्क पर नई विपत्ति की तरह और भी अधिक बोझिल बनकर लद पड़ती है।

यह उन उपायों की चर्चा हुई जो परिस्थिति की प्रतिकूलता एवं व्यक्तियों की अभद्रता एवं अस्तव्यस्तता के कारण उत्पन्न होती है। यदि वे तथ्यपूर्ण हों और उन्हें वस्तुतः बदलना ही आवश्यक हो तब भी अप्रसन्नता की मनःस्थिति को ही सर्व प्रथम बदलना होगा, क्योंकि अभीष्ट परिवर्तन के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपकरण अपना मस्तिष्क ही होता है। यही उपाय सोचने और यही गति अपनाने की जिम्मेदारी उसी पर आती है। यदि वह अस्तव्यस्त, खिन्न उत्तेजित स्थिति में रह रहा होगा तो उसके कार्य ही उपहासास्पद होंगे, ऐसी दशा में सारे प्रयास ही निष्फल होते चले जायेंगे।

अधिकतर होता यह है कि प्रतिकूलता उतनी बाधक नहीं होती जितनी कि अप्रसन्न रहने की आदत। यह जब अभ्यास में सम्मिलित हो जाती है तो तुनक-मिजाजी का रूप धारण कर लेत हे। बात बात पर रूठना असन्तोष व्यक्त करना-दोष निकालना, आक्रोश व्यक्त करना जैसे लक्षण चेहरे पर छाये रहते हैं। मन भारी रहता है और दूसरों को दंड न बन बड़े तो भूखा रहने आदि के उपक्रमों द्वारा अपने को ही संतानें का मन होता रहता है। यदि कोई सच्चे मन से अप्रसन्नता के अभिशाप से छूटना चाहता हो तो उसे अपना इस अभागी आदत से मनोवैज्ञानिक स्तर पर छुटकारा पाने का प्रयत्न करना चाहिए।


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