रोग का कारण कीटाणु नहीं शरीर गत विषाक्तता

February 1979

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रोग बीमारियों के सम्बन्ध में आम धारणा यह है कि वे शरीर में विजातीय तत्वों के प्रविष्ट हो जाने से उत्पन्न होती हैं। परन्तु विज्ञान की अधुनातम शोधों ने यह सिद्ध कर दिया है कि बीमारियों का कारण विजातीय द्रव्य अथवा कीटाणु नहीं अपितु जीवनी शक्ति का अभाव है। पिछले दिनों एक स्वास्थ्य पत्रिका में अमेरिका के एक प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सा शास्त्री एम. डी. पसीने का मत है-”कीटाणु रोग का कारण नहीं है। वे रोग का परिणाम है। एक स्वस्थ शरीर कीटाणुओं के लिए अच्छा अड्डा नहीं है किन्तु एक गंदा शरीर जिस में विजातीय पदार्थ और नाना प्रकार के विष भरे है, कीटाणुओं के लिए एक क्यारी की तरह होता है। अतः रोग को दूर करने का उपाय कीटाणुओं को नष्ट करना नहीं बल्कि उन कारणों को दूर करना है जो कि कीटाणुओं की वृद्धि में सहायक है। बच्चे का मुख प्रायः सभी संक्रामक कीटाणुओं का निवास होता है। किन्तु दस में से नौ बच्चे नहीं पड़ते। केवल इसलिए कि उन का शरीर कीटाणुओं को पनपने और फलने के लिए कोई वातावरण प्रस्तुत नहीं करता। वह दसवां अभागा बच्चा जो बेचारा बीमार पड़ता है अपने शरीर में इस लिए कीटाणुओं को पलने और पनपने का अवसर देता है कि उसका शरीर जीवनी शक्ति को खो बैठा है तथा मलों से लदा पड़ा है।

डाक्टर जे. डब्ल्यू. विल्सन अपनी पुस्तक ‘दि न्यू हाइजिन’ में लिखते है- “एक बार’ अमेरिका के डॉक्टरों ने मूलाधार में संचित मल की अवस्था की जाँच की। इसके लिए उन्होंने पर्याप्त समय लगाकर 284 रोगियों के थे। डाक्टरों ने देखा कि इनमें से 156 शवों की बड़ी आंतें सड़े हुए मल से भरी थीं। उनमें से कई का मलाधार मल से भरकर फुल जाने के कारण दूना हो गया था। कई शवों में यह मल इतना सूख गया था कि मूलाधार से चिपक कर स्लेट के समान कठोर हो गया था। इससे किसी भी रोगी का मल त्याग स्थगित नहीं हुआ था। यह बड़े आश्चर्य की बात है। इस सूखे हुए मल में था। यह बड़े आश्चर्य की बात है। इस सूखे हुए मल में छोटे बड़े कई प्रकार के रोगों के कीड़े पाये गये। कहीं कहीं इन कीटाणुओं के अण्डे भी मिले। कई जगह ऐसा हुआ था कि ये कीटाणु माँस में भी घुस गये थे और उससे वहाँ घाव पड़ गये थे।

डाक्टर टर्नर का कथन है कि-आठ व्यक्तियों ने केवल एक व्यक्ति की ही बड़ी आँत साफ रहती होगी। शेष लोगों को साधारण रीति से नित्य शौच हो जाता है और बे समझ लेते है कि हमारा पेट साफ है पर वास्तविक बात यह होती है कि मलाशय में पूरा मल भर जाने से उसके नीचे का मल थोड़ा सा निकल जाता है और उसकी जगह ऊपर का मल नीचे खिसक आता है। मलाशय सदा ही भरा रहता है। इस प्रकार का मनुष्य वर्षों तक पाँच फीट लम्बे मल से भरे थैलों को पेट में रख कर चलता फिरता और सोता है। इस मल का परिणाम अनेक मनुष्यों में पाँच से आठ दस किलोग्राम तक होता है वे इसी मल को साथ लेकर चलते फिरते हैं, मिलते जुलते हैं, खाते पीते हैं और अन्त में दुनिया से कूच कर जाते हैं।

शरीर में मल के जमा होने से पैदा होने वाले रोग दवा, नश्तर या ऐसे किसी उपचार से दूर नहीं हो सकते जो शरीर को इस मल से मुक्त नहीं करता। आँत में अधिक दिनों तक रुका हुआ मल बहुत खतरनाक हो जाता है क्योंकि उसके उसके सड़ने से विष पैदा होता है जो सारे शरीर में फैल कर उसे विषाक्त कर देता है। आंतों की असाधारण अवस्था ही सिरदर्द, निरोध शक्ति के ह्रास आदि का कारण होती है और इनके जरिये सर्दी और कठिन रोग उत्पन्न किया करती हैं।

शरीर की आँतरिक शुचिता और पवित्रता शरीर में वह सामर्थ्य उत्पन्न करती है कि वह रोग बीमारी के कारणों को अपने आप दूर करता रहता है, उसमें यह सामर्थ्य स्वतः ही स्फूर्ति होती रहती है कि वह शरीर में घूस पड़ने वाली विकृतियों का सफाया करती रहे।


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